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Friday, 22 November, 2024
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दिल्ली दंगा मामले में चार्जशीट दाखिल होने के एक साल बाद भी क्यों शुरू नहीं हो सकी उमर खालिद के खिलाफ सुनवाई

आरोप पत्र की दाखिल किये जाने के 6 महीने बाद, मार्च 2021 में, उमर खालिद को इसकी प्रतियां दी गईं. इसके बाद से यह मामला दस्तावेजों की जांच के स्तर पर अटका पड़ा है.

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नई दिल्ली: ‘दिल्ली में जो दंगे हुए वे एक पूर्व नियोजित साजिश थी. इन दंगों को फैलाने की साजिश जेएनयू के छात्र उमर खालिद और उसके साथियों ने रची थी.’ पिछले साल 6 मार्च को दर्ज एफआईआर नंबर 59/2020 में इसके पिछले महीने, फरवरी 2020, में पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों के बारे में यही कहा गया है.

इसके करीब छह महीने बाद, 12 सितंबर को खालिद को दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ (स्पेशल सेल) ने तलब किया, और उसे अगले दिन से जांच में शामिल होने के लिए कहा गया. खालिद ने इस निर्देश का पालन किया और 13 सितंबर, रविवार को दोपहर करीब 1 बजे लोधी कॉलोनी स्थित स्पेशल सेल के दफ्तर गया. उसे उसी दिन रात करीब 11 बजे एफआईआर 59/2020 के तहत गिरफ्तार कर लिया गया.

उसी महीने, इस मामले में 17,000 पन्नों से अधिक का एक आरोप पत्र दायर किया गया था. फिर, अक्टूबर 2020 में एक और 197-पृष्ठ लंबी चार्जशीट में खालिद को ‘देशद्रोह का पुराना खिलाड़ी‘ कहा गया, और इसमें ऐसे नैरेटिव शामिल थे जिनके बारे में खालिद के वकील का कहना है कि यह अमेज़ॅन प्राइम के वेब सीरीज ‘द फैमिली मैन’ की ‘स्क्रिप्ट’ की तरह लगते हैं.

उस आखिरी चार्जशीट को दाखिल हुए एक साल से ज्यादा का समय हो गया है, लेकिन एफआईआर 59/2020 के मामले में अभी तक मुकदमा शुरू नहीं हुआ है. कारण? न्यायिक तकनीकियां!.

आरोपी को आरोप पत्र की कागजी प्रति (फिजिकल कॉपी) दिए जाने में भी लगभग 6 महीने और दो अदालतों द्वारा दिए गए तीन आदेश लगे. अगले 6 महीने अभियोजन पक्ष द्वारा आरोप पत्र के आधार पर कुछ अन्य दस्तावेजों के लिए कुछ आरोपियों द्वारा दायर आवेदनों का कथित रूप से विरोध करने में बीत चुके हैं.

हालांकि, दिप्रिंट से बात करते हुए दिल्ली पुलिस के एक सूत्र ने कहा कि मामले में देरी का दोषी पुलिस या अभियोजन पक्ष नहीं है, बल्कि बचाव पक्ष है जो मुकदमे में हो रही देरी को एक ‘कानूनी रणनीति’ की तरह इस्तेमाल कर रहा है, ताकि इसे ‘जमानत का आधार’ बनाया जा सके. इस सूत्र ने यह भी कहा कि पुलिस तो वास्तव में यह चाहती है कि मुकदमा तेजी से शुरू हो.

इस बीच, उमर खालिद अपने विभिन्न आवेदनों के साथ अदालत का दरवाजा खटखटाया है, जिसमें उसके परिवार से मिलने के लिए अनुमति, दांत के दर्द का इलाज कराने, उसके खिलाफ ‘मीडिया ट्रायल’ को रोकने और यहां तक ​​कि उसे अपने सेल से बाहर निकलने अनुमति संबंधी अनुरोध शामिल हैं.


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चार्जशीट दाखिल करने में लगे 6 महीने, इसकी नक़ल प्राप्त करने में भी लगे 6 महीने

पिछले साल 21 सितंबर को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने निर्देश जारी किया था कि आरोप पत्र की सॉफ्ट कॉपी सभी आरोपियों को तुरंत उपलब्ध कराई जाए और जेल में बंद सभी आरोपियों को इसकी भौतिक (कागजी) प्रतियां भी दी जाएं. इसके एक महीने बाद 21 अक्टूबर 2020 को अदालत को बताया गया कि सभी आरोपियों को पेन ड्राइव में चार्जशीट की सॉफ्ट कॉपी दे दी गई है.

अभियोजन पक्ष की ओर से तर्क दिया कि यह आपराधिक प्रक्रिया संहिता (कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर) की धारा 207, जो आरोपी को पुलिस रिपोर्ट और अन्य दस्तावेजों की ‘मुफ्त’ नक़ल प्रदान करने को अनिवार्य बनाता है, का ‘पर्याप्त रूप से किया गया अनुपालन’ था. जांच अधिकारी ने अदालत को यह भी बताया कि सभी आरोपियों को आरोप पत्र की हार्ड कॉपी प्राप्त करवाने के लिए दिल्ली सरकार द्वारा धनराशि स्वीकृत किये जाने की आवश्यकता है, और पुलिस को इसके लिए 15 दिन का समय दिया जाना चाहिए.

हालांकि, न्यायधीश रावत ने कहा था कि वह जांच अधिकारी के पैसे की कमी के बारे प्रतिवेदन से ‘प्रभावित नहीं’ हैं. उनके आदेश का पालन करने के बजाय, दिल्ली पुलिस ने इन दो आदेशों को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और दावा किया कि ये निर्देश बिल्कुल ‘यांत्रिक तरीके से’ पारित किए गए थे.

इस सब के कारण, उच्च न्यायालय ने 10 नवंबर को इस मुकदमे पर रोक लगा दी और वहां पांच महीने में नौ बार इस मामले की सुनवाई की गई. अंतत: 23 मार्च को इस अदालत को बताया गया कि चार्जशीट की पूरी नक़ल हार्ड कॉपी में तैयार है और आरोपी 25 मार्च को ट्रायल कोर्ट से इसे प्राप्त कर सकते हैं. इसके बाद मुकदमे की सुनवाई पर लगाई गई रोक हटा दी गई.

‘समय तो लगता ही है’

अगले छह महीने तक अभियोजन पक्ष ने आरोप पत्र के आधार पर कुछ अन्य दस्तावेजों की मांग करने हेतु कुछ आरोपियों द्वारा दायर आवेदनों का विरोध किया.

यह मामला फिलहाल दस्तावेजों की जांच वाले चरण में है, जो चार्जशीट दाखिल होने के बाद शुरू होता है. इसके तहत आरोपी व्यक्तियों को आरोप पत्र प्रदान किए जाते हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि वे सभी प्रकार से पूर्ण हैं- जैसे, यह सुनिश्चित करना कि जिन दस्तावेजों को उद्धृत किया गया है अथवा जिन पर भरोसा दिखाया गया है वे सभी दस्तावेज आरोप पत्र के साथ संलग्न हैं. अगला कदम आरोपों का तय करने का होता है.

इस प्राथमिकी में नामजद एक आरोपी का प्रतिनिधित्व करने वाले एक वकील, जिन्होंने अपनी पहचान उजागर नहीं किये जाने की शर्त रखी थी, ने कहा, ’आमतौर पर, आप उन दस्तावेज़ों की मांग करते हैं जो या तो अपठनीय हैं या वे दस्तावेज़ हैं जिन पर आरोप पत्र में भरोसा किया गया है, जिन्हें रिलेड-अपॉन (भरोसा किये गए) दस्तावेज़ के रूप में प्रदान किया जाना चाहिए.’

इस वकील ने कहा, ‘आम तौर पर इस प्रक्रिया में इतना समय नहीं लगता है, पर तब जब चार्जशीट छोटी होती है. लेकिन जिस मामले में 18 आरोपी हैं और साथ ही चार्जशीट 18,000 पन्नों की है, वह भी इतने इलेक्ट्रॉनिक सबूतों के साथ, तो इसमें समय लगना तो तय है.’

इनमें से कुछ आरोपियों ने आरोप पत्र के आधार पर अतिरिक्त दस्तावेज मांगे जाने के लिए कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रॉसिजर की धारा 207 के तहत आवेदन दाखिल कर रखे हैं.

इनमें से एक आरोपी का प्रतिनिधित्व कर रहे एक वकील ने दिप्रिंट को बताया कि इन आवेदनों को अभियोजन एजेंसी की ओर से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है. उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दे रखा है कि अभियुक्तों को उन सभी दस्तावेजों को भी प्रदान किया जाना चाहिए जो उसकी मदद करते हैं, न कि केवल वे दस्तावेज जो उसका अपराध साबित करने की कोशिश करते हैं.

उदाहरण के तौर पर, 10 सितंबर को, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता के वकीलों ने अदालत को बताया कि इस मामले में पेश किये गए इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की एक प्रति की मांग करने वाला उनका आवेदन पांच महीने पहले, अप्रैल 2021 में सीआरपीसी की धारा 207 के तहत दायर किया गया था, मगर पुलिस ने अभी तक इसका कोई जवाब नहीं दिया है.

इसके जवाब में, विशेष लोक अभियोजक अमित प्रसाद ने अदालत को बताया कि जब्त किए गए समूचे इलेक्ट्रॉनिक डेटा की मात्रा बहुत ज्यादा है, और इसमें आरोपी, गवाहों और संदिग्धों के डेटा भी शामिल हैं. फिर उन्होंने जोर देते हुए कहा कि इसमें उन लोगों के व्यक्तिगत डेटा भी हैं जिनके उपकरण जब्त किए गए थे, और इसलिए इसका विश्लेषण करने की आवश्यकता है. क्योंकि बिना किसी तरह के वर्गीकरण के समूचे डेटा को प्रदान किया जाना, अन्य व्यक्तियों की गोपनीयता का उल्लंघन होगा.

इस बीच, जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र और इस मामले में आरोपी आसिफ इकबाल तन्हा ने अपने चैट सहित अपने फोन में स्टोर पूरे कंटेंट और कॉन्टेक्स्ट, जिस पर अभियोजन पक्ष द्वारा भरोसा किया गया है प्राप्त करने के लिए अपने मोबाइल फोन की एक क्लोन कॉपी की मांग की है. इस बारे में प्रसाद ने तर्क दिया कि फ़िलहाल ऐसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह फोन अभी फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला के पास है.

इसके जवाब में, तन्हा के वकील सौभाग्य शंकरन ने अदालत को बताया कि मामले की चार्जशीट में कथित रूप से उनके मुवक्किल के फोन से बरामद की गई जानकारी के आधार पर लगभग 65 पृष्ठ का विवरण दिया गया है. इसलिए, उन्होंने तर्क दिया: ‘यह मेरा फोन है. यह कोई गोपनीयता का मुद्दा नहीं है. इस विषय वस्तु पर पहले से ही भरोसा दिखाया जा चुका है. इसे मुझे प्रदान करना उनका अनिवार्य कर्तव्य है.’

दरअसल 30 सितंबर को सुनवाई के दौरान जज रावत ने भी इस मामले में ट्रायल (सुनवाई) में हो रही देरी पर चिंता जताई थी. इसलिए अदालत ने सभी आरोपियों से दो सप्ताह के भीतर धारा 207 के तहत अपने-अपने आवेदन दाखिल करने को कहा. इसने अभियोजन पक्ष से भी उन दस्तावेजों पर जवाब दाखिल करने को कहा जो आरोपियों को नहीं दिए जा सकते.

अदालत का कहना था कि अगर सभी आरोपी अलग-अलग तारीखों में धारा 207 के तहत अपना-अपना आवेदन दाखिल करते हैं और अभियोजन पक्ष उन सभी मामलों में अलग जवाब दाखिल करने का विकल्प चुनता है, तो इससे पूरी प्रक्रिया में देरी होगी क्योंकि प्रत्येक आवेदन पर अलग से दलीलें सुननी होंगी.

न्यायाधीश ने अपनी टिप्पणी में कहा, ‘इसमें तो वर्षों लगेंगे, फिर यह बहुत कठिन हो जाएगा.’


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‘पुलिस चाहती है की मामले कि सुनवाई तेजी से शुरू हो’

इस रिपोर्ट/खबर की शुरुआत में उद्धृत दिल्ली पुलिस के सूत्र ने इस आरोप को एकदम से खारिज कर दिया कि पुलिस या अभियोजन पक्ष इस मुकदमे में देरी करने की कोशिश कर रहा है.

सूत्र ने कहा, ‘यह सरासर झूठ है. वास्तव में, हम तो चाहते हैं कि मुकदमा तेजी से शुरू हो क्योंकि हमने मामले की पूरी और अच्छी तरह से जांच की है, आरोप पत्र दायर कर दिया है, और हमारे पास सभी गवाह और उनके बयान मौजूद हैं. यह सब आरोपियों के वकीलों द्वारा अपनाये जा रहे कानूनी हथकंडे है, जो ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि यह जमानत का आधार बन सके.‘

वे सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘जब हमने इस मामले में आरोप पत्र दायर किया और अदालत ने इसका संज्ञान लिया, तो इन्हीं वकीलों ने अदालत में कई जमानत याचिकाएं दायर करते हुए कहा कि मामले में संज्ञान बहुत जल्दी लिया गया था. क्या वे उस समय मुकदमे में सुनवाई के बारे में नहीं सोच रहे थे?’

सूत्र ने बचाव पक्ष के इन आरोपों को भी खारिज कर दिया कि पुलिस ने आरोपियों को चार्जशीट की हार्ड कॉपी देने में छह महीने का समय लिया, और आरोपियों द्वारा कुछ दस्तावेजों के लिए दायर आवेदनों का भी विरोध किया.

इस सूत्र ने कहा, ‘वे सभी तरह के दस्तावेजों की मांग कर रहे हैं, यहां तक ​​कि उन दस्तावेजों की भी जिन पर हमने भरोसा नहीं किया है, और इसी का हमने विरोध किया है. आरोपी केवल उन्हीं दस्तावेजों की मांग कर सकता है जिन पर जांच एजेंसी ने आरोप पत्र बनाते समय भरोसा किया हो. इसके अलावा, जिन फोनों को हमने जब्त किया है, उनमें कई ऐसे व्यक्तिगत चैट, तस्वीरें आदि हैं जो मामले में कहीं भी प्रासंगिक नहीं हैं, और इसलिए हमने उनका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है. क्या वे चाहते हैं कि हम वह सारी सामग्री (कंटेन्ट) आरोपियों और उनके वकीलों के बीच वितरित कर दें.’

पुलिस सूत्र ने यह भी कहा, ‘वास्तव में, हमने उनसे (बचाव पक्ष से) यह भी कहा कि उन्हें जिन भी दस्तावेजों को देखने की जरूरत है, उनकी आकर जांच कर लें. लेकिन वे इसमें देरी करते रहे. इसके अलावा, हम ने हीं उन्हें पेन ड्राइव में 18,000 पन्नों की चार्जशीट देकर अपना बचाव करने की सुविधा प्रदान की, क्योंकि यह बहुत अधिक भारी-भरकम था. लेकिन वे हार्ड कॉपी प्राप्त करने पर जोर देते रहे. क्या यह सब अनावश्यक नहीं है?’

वे कहते हैं, ‘इसके अलावा, यह उच्च न्यायालय था जिसने मामले पर रोक लगा दी थी, जिसके कारण इतनी देरी हुई. कई याचिकाओं पर दिए गए आदेश महीनों तक सुरक्षित रखे गए. इसमें पुलिस या अभियोजन पक्ष की गलती कैसे हो सकती है?’

खालिद द्वारा खुद से दिए गए आवेदन

पिछले एक साल में, उमर खालिद ने भी अपने लिए जेल नियमों के तहत विशेषाधिकारों और अधिकारों की मांग करते हुए कई बार अदालत का दरवाजा खटखटाया है.

अपनी गिरफ्तारी के तुरंत बाद, उसने सबसे पहले हिरासत के दौरान अपने परिवार से मिलने की अनुमति मांगी; फिर अपने लिए सुरक्षा कवच के लिए, इसके बाद बिना किसी तरह के भेदभाव के अपनी जेल की दिनचर्या को पूरा करने की अनुमति देने आदि के लिए भी याचिकाएं दायर कीं. फिर, उसने जज रावत से कहा कि उसे अपने सेल से बाहर निकलने की अनुमति नहीं है और यह एक तरह से ‘एकान्त कारावास’ जैसा है.

उसने आरोप लगाया कि उसे अपने सेल में अकेला रखा गया था और उसे बाहर निकलने और किसी से बात करने की अनुमति नहीं दी गई थी. फिर दिसंबर 2020 में, खालिद ने आरोप लगाया कि जेल अधिकारियों द्वारा उसे दांत दर्द के लिए किसी भी तरह की चिकित्सा सुविधा नहीं दी जा रही थी.

फिर खालिद ने यह आरोप लगाते हुए अदालत में याचिका दायर की कि उसके खिलाफ चलाया जा रहा रह ‘शातिराना मीडिया अभियान’ उसके मामले में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई के उसके उस अधिकार को प्रभावित कर रहा है जो संविधान के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा है.

हालांकि अदालत ने पुलिस द्वारा यह कहते हए विरोध किये जाने पर कि खालिद जांच में सहयोग नहीं कर रहा है, उसके परिवार से मिलने की अनुमति दिए जाने संबंधी उसकी पहली याचिका खारिज कर दी. परन्तु कोर्ट ने निर्देश दिया कि उसे पर्याप्त सुरक्षा दी जानी चाहिए. अदालत ने तिहाड़ जेल अधिकारियों की उनके इस ‘अजीब और विचित्र’ तर्क को पेश करने के लिए भी खिंचाई की कि ‘जिस सेल में कैदी (खलिद) को रखा जा रहा है वह ऐसी जगह पर स्थित है जहां से आधे-से-अधिक वार्ड की गतविधियां दिखाई देती हैं’. इसने फिर निर्देश दिया कि उसे अपने सेल से बाहर बिताने के लिए पर्याप्त समय दिया जाए.

इसके बाद अदालत ने जेल अधीक्षक को उसके दांत दर्द के लिए भी उचित चिकित्सकीय उपचार प्रदान करने का निर्देश दिया, और फिर इस साल जनवरी में मीडिया प्रकाशनों को अदालतों के समक्ष लंबित जांच और अनुसधान संबंधी रिपोर्ट का प्रसारण अथवा प्रकाशन करते समय स्व-नियमन का पालन करने के लिए कहा.

फिलहाल खालिद की जमानत याचिका भी लंबित है. इसे 6 सितंबर को दायर किया गया था, और तब से इस पर की जा रही सुनवाई में उसके वकील पेस ने आरोप पत्र के कुछ हिस्सों को पढ़कर यह समझाया है कि कैसे खालिद के खिलाफ लगाए गए आरोप यूएपीए के तहत शामिल किये जाने वाले अपराध नहीं हैं और कैसे ये ‘आरोप अविश्‍वसनीय लगते हैं’.
वकील ने चार्जशीट और उसे लिखने वालों द्वारा लगाए गए आरोपों पर कई बार तीखे प्रहार भी जिए है, अपनी जिरह में उन्होंने ‘किसी समाचार चैनल की स्क्रिप्ट’, ‘अधिकारी की अपनी उर्वर कल्पना शक्ति’, ‘वह फैमिली मैन सीरीज की स्क्रिप्ट तो नहीं लिख रहा है’, और ‘वह आखिरी व्यक्ति जिसने किसी के साथ यात्रा की और इस (जांच) अधिकारी के सिर में घुस गया, हैरी पॉटर फिल्म का खलनायक वोल्डेमॉर्ट था’ आदि जैसे वाक्यांशों का भी प्रयोग किया है.

खालिद के वकील ने चार्जशीट से जुड़े व्हाट्सएप ग्रुप की बातचीत के स्क्रीनशॉट को भी अदालत में पढ़ा, और आरोप लगाया गया था कि ये सिर्फ ‘चुनिंदा’ मैसेज थे. ‘अगर मेरे पास योर ऑनर का नंबर होता तो मैं उन्हें भी इसमें जोड़ सकता हूं … किसी चैट समूह का हिस्सा होना कोई अपराध नहीं है.’

पेस ने आरोप पत्र के उस हिस्से की भी धज्जियां उड़ाई जो एक ‘गुप्त बैठक’ के बारे में बात करता है, लेकिन जहां ‘उक्त बैठक के प्रतिभागियों में से एक के फेसबुक से डाउनलोड की गई तरवीरों’ का सबूत के रूप में उपयोग किया गया है.
वकील ने 12 अक्टूबर को अपनी जिरह में तर्क दिया: ‘अगर इसे कहीं सार्वजानिक रूप से पोस्ट किया जाता है …तो यह कोई गुप्त बैठक नहीं हो सकती है! यह कहां कहा गया है कि यह एक अपराध है? हर जगह इस बैठक को एक षडयंत्र के रूप में दिखाया गया है. कृपया मुझे इस पन्ने की अपराधिकता के बारे में बताएं … सार्वजनिक क्षेत्र में होने वाली ऐसी बैठकों में शामिल होना कोई अपराध तो नहीं है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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