नई दिल्ली: साल 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुआ दंगा कोई अचानक हुआ विरोध नहीं था, बल्कि भारत में “सरकार बदलने के अंतिम लक्ष्य” को हासिल करने के लिए रची गई एक “साजिश” थे. यह देश की आंतरिक शांति और अंतरराष्ट्रीय साख को अस्थिर करने के लिए सावधानीपूर्वक बनाई गई अखिल भारतीय हिंसा थी.
दिल्ली पुलिस ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में यह दलील देते हुए 2020 के दंगों की बड़ी साजिश से जुड़े मामले में कुछ आरोपियों की जमानत याचिका का विरोध किया. उमर खालिद, शरजील इमाम, मीरान हैदर, गलफिशा फातिमा और शिफा-उर-रहमान ने दिल्ली हाईकोर्ट के 2 सितंबर के आदेश को चुनौती दी है, जिसमें उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी गई थी.
पुलिस के हलफनामे के अनुसार, दंगे अचानक नहीं हुए थे. पुलिस के पास ऐसे गवाह, दस्तावेज़ और तकनीकी सबूत हैं जो आरोपियों को दंगों और साजिश से जोड़ते हैं.
यह नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचने की कोशिश थी. इसलिए, दंगों की योजना अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आधिकारिक यात्रा के समय के साथ मिलाई गई ताकि वैश्विक मीडिया का ध्यान सुनिश्चित किया जा सके.
“सीएए का मुद्दा सावधानीपूर्वक इस रूप में चुना गया था कि इसे ‘शांतिपूर्ण प्रदर्शन’ के नाम पर ‘उग्र बनाने वाले उत्प्रेरक’ के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके,” दिल्ली पुलिस ने अपने 300 से अधिक पन्नों वाले विस्तृत जवाब में कहा.
न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की अगुवाई वाली पीठ शुक्रवार को इन जमानत याचिकाओं पर सुनवाई करेगी.
गुरुवार को दाखिल हलफनामे में दिल्ली पुलिस ने अपने आरोपपत्र का हवाला देते हुए खालिद और इमाम की भूमिका को मुख्य साजिशकर्ताओं के रूप में रेखांकित किया है. पुलिस के अनुसार, ट्रंप के दौरे से पहले अमरावती में खालिद का भाषण इस बात का प्रमाण है कि उसने हिंसा की योजना बनाने में अहम भूमिका निभाई.
पुलिस का दावा है कि उसके पास एन्क्रिप्टेड चैट्स हैं जो यह साबित करती हैं कि अशांति फैलाने का उद्देश्य सीएए को “मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार” के रूप में दिखाना था.
हलफनामे में यह भी कहा गया है कि उसी समय अन्य राज्यों में भी इसी तरह की हिंसा हुई थी, जो देशव्यापी साजिश का संकेत देती है.
उत्तर प्रदेश में, हलफनामे में कहा गया, बीस से अधिक जिलों में दंगे हुए, जिनमें 20 से ज्यादा लोगों की मौत हुई और करीब 1,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया.
असम के गुवाहाटी और डिब्रूगढ़ में मौतें और हिंसा हुईं, जबकि पश्चिम बंगाल में ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर हमले हुए, जिससे 70 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ.
केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और बिहार में भी व्यापक तोड़फोड़, आगजनी और पुलिस फायरिंग की घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें हजारों लोगों को हिरासत में लिया गया.
इस पृष्ठभूमि में पुलिस ने दावा किया कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगे कोई अलग-थलग घटना नहीं थे, बल्कि एक देशव्यापी साजिश का हिस्सा थे.
हलफनामे में आरोपियों पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने मुकदमे की कार्यवाही को “अनावश्यक अर्जियों” के ज़रिए जानबूझकर देर कराने की कोशिश की. पुलिस ने कहा कि मुकदमे की जल्द सुनवाई सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी बचाव पक्ष की है, क्योंकि उनके सहयोग की कमी—जो पुलिस के अनुसार एक योजनाबद्ध प्रयास है—ने सुनवाई को धीमा कर दिया है.
पुलिस ने उदाहरण देते हुए कहा कि आरोपपत्र के साथ दाखिल दस्तावेजों की आपूर्ति से संबंधित दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 207 की कार्यवाही दो साल में 39 सुनवाइयों तक खिंच गई.
अब तक सिर्फ 11 आरोपियों ने बहस की है, इसलिए आरोप तय नहीं हो सके हैं. इस मुद्दे पर लगभग 50 सुनवाई हो चुकी हैं, हलफनामे में कहा गया.
दिल्ली हाईकोर्ट ने जमानत खारिज करते हुए अपने फैसले में आरोपियों को मुकदमे में देरी के लिए जिम्मेदार ठहराया था.
हलफनामे में आरोपियों के इस दावे का भी खंडन किया गया कि गवाहों की सूची बहुत लंबी है. पुलिस ने कहा कि केवल 100 से 150 गवाह ही महत्वपूर्ण हैं, बाकी दोहराए गए या तकनीकी गवाह हैं, और यदि आरोपी सहयोग करें तो मुकदमा जल्दी निपट सकता है.
हलफनामे में गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) अधिनियम (UAPA) के तहत आतंकवाद से जुड़े अपराधों के लिए सख्त जमानत प्रावधानों का उल्लेख करते हुए कहा गया कि गंभीर अपराधों से निपटने वाला यह कानून सिर्फ मुकदमे में देरी के आधार पर रिहाई की अनुमति नहीं देता, खासकर तब जब आरोपी अपने ऊपर लगे आरोपों को प्रथम दृष्टया गलत साबित नहीं कर सके हों. पुलिस ने कहा, “ऐसे मामलों में नियम है—जेल, जमानत नहीं.”
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