नई दिल्ली: 56 वर्षीय क्रेन ऑपरेटर दयानंद तिवारी बीते शुक्रवार ज्यादा व्यस्त नहीं थे. वह पश्चिम दिल्ली में मेट्रो पिलर नंबर 491 के पास अपने मालिक की छोटी सी दुकान के सामने खड़े होकर, अन्य ड्राइवरों के साथ धूप में इंतजार करने लगे. और जब उन्हें काम मिला तो वह वहां से चले गए. लेकिन जब दोपहर बाद वह और उनके चचेरे भाई अनिल तिवारी क्रेन से वापस आ रहे थे, तभी उन्होंने पश्चिम दिल्ली के मुंडका में सड़क पर काले धुएं के गुबार दिखे. उन्होंने अपनी क्रेन उस ओर मोड़ ली.
घटनास्थल के आस-पास आग बुझाने वाली कोई गाड़ी नहीं थी. उन्होंने बिना एक पल गवाएं आग में फसें लोगों को बचाने का फैसला किया. उन्होंने जलती हुई चार मंजिला इमारत तक पहुंचने के लिए क्रेन से सड़क के डिवाइडर को तोड़ा और कम से कम 50 लोगों की जान बचाई. इसमें ज्यादातर एक मैन्युफैक्चरिंग यूनिट में काम करने वाली महिलाएं थीं.
दयानंद तिवारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम अभी भी दुखी हैं कि क्योंकि सभी को नहीं बचा सके, इमारत में ज्यादातर महिलाएं फंसी हुईं थीं. पूरी दुनिया महिलाओं का सम्मान करती है, उन्हें देवी माना जाता है, हमने फैसला किया कि हम उन्हें बचा लेंगे, चाहे कुछ भी हो’ उनकी आंखें नम थीं. उन्होंने कहा, ‘हम मर भी जाएं तो भी हार नहीं मानेंगे.’
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के रहने वाले दयानंद और अनिल लोगों की नजर में आज हीरो बन गए हैं. लेकिन उनके दिलो-दीमाग से अभी भी इमारत में फंसे लोगों की चीख-पुकार और दर्द की तस्वीरें नहीं गई हैं. तंग इमारत से दर्जनों मजदूरों को सुरक्षित बाहर लाते हुए, उन्होंने दूसरों को चिल्लाते और मरते हुए देखा, कुछ हताशा में एसी शाफ्ट से नीचे कूद गए. ये मंजर शायद ही वे कभी भूल पाएं. इस दर्दनाक हादसे में 27 लोग मारे गए और अन्य 29 अभी भी लापता हैं.
अगर इन चचेरे भाइयों ने तुरंत फैसला लेकर लोगों को बचाने का प्रयास नहीं किया होता तो आग में बहुत ज्यादा लोगों की जान जा सकती थी. दमकल विभाग की 30 गाड़ियों और उनके 120 कर्मचारियों के वहां तक पहुंचने में छह घंटे लग गए थे.
जहां दिल्ली में दमकल अधिकारी कह रहे हैं कि ट्रैफिक और भीड़भाड़ वाली जगह होने की वजह से देरी हुई, वहीं दयानंद और अनिल ने दिप्रिंट को बताया कि कैसे उन्होंने साइट तक पहुंचने के लिए हर बाधा को पार किया.
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‘क्रेन से कांच तोड़कर एक बार में 5 से 6 महिलाओं को बचाया’
जब दयानंद और अनिल तिवारी ने बचाव अभियान शुरू करने का फैसला किया, तो वे जानते थे कि उन्हें ये काम फुर्ती से और सोच-समझकर करना है.
उनके लिए पहला काम उस इमारत तक पहुंचना था, जो सड़क के उस पार एक भीड़भाड़ वाले इलाके में थी. वहां जाने के लिए दयानंद ने क्रेन से सड़क के डिवाइडर को तोड़ा और फिर वाहन के भारी बीम को इमारत की दूसरी मंजिल के मोटे कांच में घुसा दिया. कांच टूटने से धुआं बाहर निकलने लगा. इसी जगह से ज्यादातर शव बरामद किए गए हैं.
दयानंद क्रेन को ऑपरेट कर रहे थे तो अनिल उनकी आंख और कान बने हुए थे. तेजी से काम करने के लिए वह दयानंद को चीख-चीख कर दाएं, बाएं, ऊपर और नीचे जाने का निर्देश दे रहे थे.
मोटे शीशे को तोड़ने के बाद बिना समय गंवाए अनिल ने इमारत के अंदर चिल्ला रही हताश महिलाओं से क्रेन की बीम पर बैठने के लिए कहा. पांच या छह महिलाओं को एक बार में सुरक्षित बाहर लाया गया.
दयानंद ने कहा, ‘हम 1.5 घंटे तक ऐसा ही करते रहे. फिर आग की लपटें इतनी भयानक हो गईं कि सब कुछ दिखाई देने बंद हो गया. लेकिन हमारे मन में बस यही चल रहा था कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचानी है, किसी को छोड़ना नहीं है. हमने लोगों को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी.’
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‘अपनी जान भी जोखिम में डाली’
आग की लपटें, उनकी तपिश और बिना किसी उचित उपकरण के खतरनाक बिजली के तारों से निपटने में इन दोनों की जान भी खतरे में पड़ गई थी. उनके पास लगातार जानने वालों के फोन आ रहे थे.
अनिल ने बताया, ‘इमारत के ठीक सामने 11,000 वोल्ट का तार था. हमें बड़ी सावधानी से क्रेन को हिलाना था. अगर हम तार के करीब जाते तो बिजली का करंट एक और त्रासदी का कारण बन जाता. क्रेन में अटक कर तार टूट जाता और नीचे खड़े उन लोगों पर गिर सकता था, जो मदद के लिए इकट्ठा हुए थे.’
आग की तपिश से अचानक से कांच का एक बड़ा टुकड़ा टूटकर अनिल के पास जाकर गिरा. ये तो गनीमत थी कि अनिल उस वक्त वहां से हट गए.
इस बीच, न्यू कोमल क्रेन सर्विस नामक कंपनी मालिक और तिवारी के बॉस सुरेश ढांडा भी उनका मनोबल बढ़ाने के लिए वहां पहुंच गए.
ढांडा ने कहा, ‘उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर इस काम को अंजाम दिया था. मैंने उनसे कह दिया था कि मशीन बेशक टूट जाए लेकिन लोगों की जान बचाओ. अगर कोई मशीन टूट गई तो हमें एक नई मिल जाएगी. लेकिन जिंदगी को फिर से नहीं लाया जा सकता.’
जब तिवारी और आगे नहीं बढ़ पाए तो वे चुपचाप वापस चले गए. लेकिन उस भयानक मंजर को भूल नहीं पाए हैं. उनकी आंखों के सामने आज भी हादसे की तस्वीरें घूमती रहती हैं. ‘मैं तुम्हे क्या बताऊ? हमने लोगों को जलते देखा है.’ अनिल ने कहा और फिर एकदम से चुप हो गए.
हादसे से बाहर निकलने के लिए अपने काम से कुछ समय के लिए छुट्टी ले लेना कोई विकल्प नहीं है. सो बहादुरी के अपने अद्भुत काम के एक दिन बाद दयानंद और अनिल पिलर नंबर 491 के पास बनी दुकान पर काम करने के लिए लौट आए.
जले हुए मुंडका भवन, टूटे शीशे और राख हो चुके समान को पीले टेप से घेर दिया गया है. क्रेन को इमारत के पास लाने के लिए जिस फुटपाथ को तोड़ा था उसके बड़े-बड़े टुकड़े अभी भी सड़क पर ही पड़े हैं. लेकिन दयानंद और अनिल वहां फिर से नहीं गए: वे पहले ही बहुत कुछ देख चुके थे.
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