मुंबई: भारत में पानी की किल्लत का सबसे ज्यादा बोझ अगर किसी को उठाना पड़ता है तो वो हैं महिलाएं. गांवों में तो स्थिति और ज्यादा खराब हैं. जहां किसी दूर नदी, नाले या कुएं से पानी लाने के लिए उन्हें मीलों पैदल चलना पड़ता है या किसी फिर एक बाल्टी पानी के लिए घंटों लाइन में खड़ा होना पड़ता है. परिवार की दिनभर की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त पानी इकट्ठा करने की जिम्मेदारी उन्हीं की होती है.
महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक तालुका ‘मान’ की स्थिति भी इससे कुछ अलग नहीं थी. यहां के लोग पानी की भारी कमी से जूझ रहे थे. दरअसल 350 मिमी की औसत वार्षिक वर्षा के साथ तालुका और उसके 104 गांवों कई सालों से सूखे की चपेट में हैं.
पिछले एक दशक से महाराष्ट्र में अनियमित वर्षा के कारण सूखे जैसी स्थिति पैदा हुई है. यहां केवल जमीन का पांचवां भाग सिंचित है. आधे से ज्यादा राज्य में खेती और उससे जुड़ी गतिविधियों के लिए बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है.
गन्ने जैसी ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलों को उगाने के किसानों का फैसला भी पश्चिमी महाराष्ट्र और मराठवाड़ा क्षेत्र पानी की कमी का कारण रहा है.
लेकिन इस बार की गर्मी का मौसम कुछ गांवों के लिए अलग रहा. वे पानी के लिए दर-दर नहीं भटक रहे थे और न ही उन्हें टैंकरों की राह देखनी पड़ रही थी. उनकी जरूरतें अब गांव के जल स्रोतों से पूरी हो रही हैं. विश्वास नहीं होता कि ये वही गांव हैं जो कभी पानी की भयंकर कमी से जूझ रहे थे.
यह सब एनजीओ कोरो इंडिया और 24 स्थानीय संगठनों की संयुक्त पहल से संभव हो पाया है. संगठन राज्य सरकार की मदद से मान के इन छह गांवों को सूखे से निजात दिलाने में कामयाब रहे.
उन्होंने यह कैसे किया? संगठन जानते थे कि पानी की किल्लत का सबसे ज्यादा खामियाजा गांव की महिलाओं को उठाना पड़ रहा है और उनके सहयोग के बिना इस समस्या से निजात पाना आसान नहीं होगा. बस अपनी इसी सोच के साथ सबसे पहले तालुका की 90 महिलाओं को अपने साथ जोड़ा और नतीजा यह हुआ कि आज इन गांवों में पानी का स्तर 14-15 फीट बढ़ गया है. छह में से चार गांवों को तो पानी के टैंकरों की भी जरूरत नहीं है.
‘पानी के लिए महिलाओं का संघर्ष ‘
मान के परतावडी गांव की पद्मा मोहिते ने अपने पुराने दिनों को याद करते हुए दिप्रिंट को बताया, ‘सुबह सोकर उठने के बाद से दोपहर 1 बजे तक, मैं और हमारे पड़ोस की महिलाएं पास के कुएं से पानी लाने में लगी रहती थीं.’
वह बताती हैं, ‘कुआं लगभग 35 फीट गहरा था. हममें से कुछ महिलाएं कुएं के अंदर नीचे उतरतीं और छोटे बर्तन से पानी उड़ेल-उड़ेल कर बाल्टी भरती थीं. फिर कुएं के बाहर खड़ी महिलाएं भरी बाल्टी ऊपर खींचती और खाली बाल्टी को भरने के लिए फिर से लटका देतीं. ये सिलसिला घंटों तक चलता रहता.’
मोहिते ने कहा कि पानी के लिए इस रोजमर्रा के संघर्ष का असर उनके बच्चों की पढ़ाई पर भी पड़ा रहा था. वह बताती हैं कि पानी लाने के लिए उन्हें बच्चों को अपने साथ कुएं तक ले जाना पड़ता था और इस चक्कर में सप्ताह के कई दिन उनकी स्कूल बस छूट जाया करती थी.
कुछ ऐसी ही कहानी थडाले गांव की विजया भोसले की थी. उन्हें भी अपने बच्चों के साथ पानी लाने के लिए रोजाना 1.5 किमी पैदल चलना पड़ता था. वह दिप्रिंट से कहती हैं, ‘पानी लाने के लिए हमेशा हम औरतों को ही जाना पड़ता था और ये हमारा रोजाना का संघर्ष था.’
पंघारी गांव की निवासी स्वाति दादा ने बताया कि उनके गांव में हर 10-15 दिनों में एक बार पानी का टैंकर आता था. ‘हम पानी को 12 दिनों तक स्टोर नहीं कर पाते थे. ये बमुश्किल चार-पांच दिन तक चलता और उसके बाद हमें इधर-उधर ताकना पड़ता था. पानी के लिए भीख सी मांगनी पड़ती थी कि कोई हमें किसी तरह से बस एक या दो घड़ा पानी दे दे.’
लेकिन कोरो इंडिया की पहल के साथ उनका ये संघर्ष अब बीते दिनों की बात हो गई है.
एक समुदाय को साथ लेकर चलने वाले दृष्टिकोण के साथ इस पहल को 2017 में शुरू किया गया था. मन मुताबिक नतीजे आने में चार साल लग गए. इस पहल का समर्थन करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने 1.44 करोड़ रुपये की मंजूरी दी थी.
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‘वाटर स्कूल’ और ‘ग्राम कोष’ का निर्माण
कोरो इंडिया, एनजीओ, ने पहली बार 2016-17 में मान तालुका में कदम रखा था और दो पहल: वाटर स्कूल और ग्राम कोष की शुरूआत की.
वाटर स्कूल पहल के हिस्से के रूप में स्वयंसेवकों को पानी के संरक्षण के लिए वैज्ञानिक जानकारी पर भरोसा करने के लिए प्रशिक्षित किया गया. दूसरी ओर ग्राम कोष का उद्देश्य भविष्य में परियोजना को बनाए रखने के लिए 1 लाख रुपये का एक कोष बनाना था और उसकी देखरेख का जिम्मा ग्राम समिति का था.
पचवड़ गांव की निवासी मेघा डोम्बे उन महिलाओं में शामिल थीं, जो इस पहल का हिस्सा बनीं. डोम्बे ने बताया कि पहले उन्होंने हमें पानी की बर्बादी को कम करने की ट्रेनिंग दी और उसके बाद सिखाया कि हमें ये जानकारी कैसे ग्रामीणों तक पहुंचानी है.
एनजीओ ने मान तालुका में कुओं, भूजल और बोरवेल की कमी का अध्ययन करने के लिए स्थानीय महिलाओं की एक कमेटी भी बनाई. यह काम भूवैज्ञानिक सर्वे और मैपिंग की मदद से किया गया था.
डोम्बे ने दिप्रिंट को बताया,‘ सबसे पहले हमें पानी जमा करने के लिए एक बड़ा गड्ढ़ा तैयार करना था, जहां कपड़े या बर्तन धोने और ऐसे अन्य कामों में बर्बाद होने वाले पानी को स्टोर किया जा सके. लेकिन उससे पहले पानी की बर्बादी रोकने और इसे कैसे स्टोर किया जाए इस बारे में शिक्षित करने के लिए ग्रामीणों के साथ कई बैठकें करनी पड़ीं थीं.’
इस पहल का हिस्सा रहीं महिलाओं ने बताया कि उन फलों और फसलों की खेती पर भी जोर दिया गया जिन्हें उगाने के लिए ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है.
पूर्वाग्रहों से ऊपर उठना
पहल के एक हिस्से में ग्रामीणों को वर्षा जल संचयन तकनीक और कृषि के लिए ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली के इस्तेमाल और फसल रोटेशन पैटर्न सिखाया जा रहा था.
डोम्बे ने कहा, ‘ इसके लिए स्थानीय पुरुषों और युवाओं के सहयोग की जरूरत थी. उन्हें समझाना आसान नहीं था. इस काम के लिए हमें छह महीने लगे गए’
उन्होंने आगे बताया ‘जब मैं इस पहल से जुड़ना चाहती थी, तो परिवार के सदस्यों ने मुझे बैठकों में शामिल होने से मना कर दिया. आपको तो गांवों का पता ही है. वे सोचते हैं कि अगर कोई महिला बाहर निकलेगी तो उसे घर से बाहर किसी भी व्यक्ति से बात करने का लाइसेंस मिल जाएगा. उसका व्यवहार, जीने का ढ़ंग सब बदल जाएगा. इसलिए मेरे परिवार वाले नहीं चाहते थे कि मैं बाहर जाऊं.’
लेकिन विरोध हमेशा परिवार से नहीं होता. पंघारी गांव की स्वाति दादा के परिवार को इस पहल में उनकी भागीदारी पर कोई आपत्ति नहीं थी. लेकिन अन्य ग्रामीणों ने उन्हें सहयोग नहीं दिया.
दादा ने दिप्रिंट को बताया, ‘शुरू में हमें वर्षा जल संचयन प्रणाली के निर्माण का काम भी खुद ही करना पड़ता था. पुरुष कहते थे कि जब पहल से जुड़ी हो तो बाकी का काम भी अपने-आप करो. तुमने हमारी बात नहीं सुनी. इसलिए जो करना है करो हम तुम्हारी कोई मदद नहीं करेंगे.’
तब ग्रामीणों ने महसूस किया कि सभी लिंग और जातिगत पूर्वाग्रहों को समाप्त किए बिना जल संकट का समाधान नहीं कर सकते हैं. इसके लिए सभी लोगों को एक होकर काम करना पड़ेगा.
इस तरह से बाधाओं और सामाजिक विरोध के बावजूद ये महिलाएं पानी की जबरदस्त किल्लत को दूर करने में कामयाब हो पाईं और अपने क्षेत्र को सूखा मुक्त बनाने की असाधारण उपलब्धि हासिल की.
एनजीओ कोरो इंडिया की संस्थापक सुजाता खांडेकर ने दिप्रिंट को बताया, ‘वो इस मसले को हल करना करना चाहती थीं और कोरो ने उन्हें एक साथ लाकर काम करने को आसान बनाया, उनकी हर तरीके से मदद की और तकनीकी विशेषज्ञों को उनके साथ जोड़ा.’
अब इस पहल को महाराष्ट्र के मान तालुका के 32 और गांवों में विस्तारित करने का लक्ष्य है.
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