नई दिल्ली: लैटरल एंट्री (समानांतर सीधी भर्ती) के ज़रिए सीधे सिविल सर्विस में विशेषज्ञ अधिकारियों की भर्ती में आरक्षण लागू नहीं करने के मोदी सरकार के फैसले से दलित वर्ग के आईएएस अधिकारी और अन्य नौकरशाह नाराज़ हैं.
इनमें सेवारत और सेनानिवृत दोनों ही कोटि के अधिकारी शामिल हैं. जो मानते हैं कि सरकार के फैसले को कानूनी रूप से उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
महत्वपूर्ण विभागों में प्रतिभाओं की कमी की समस्या से पार पाने के लिए शुरू की गई भर्ती की इस नई नीति पर नौकरशाहों की और भी कई आपत्तियां हैं.
भाजपा के पूर्व सांसद उदित राज ने कहा, ‘निजी क्षेत्र की प्रतिभाओं को सरकार में शामिल करना, और इसे आरक्षण के दायरे में नहीं लाना अवैध है. इस नीति को अदालतों और संसद में दोनों ही जगह चुनौती दी जा सकती है.’
लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस में शामिल होने वाले राज भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) के पूर्व अधिकारी हैं.
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा लैटरल एंट्री के माध्यम से इस साल भर्ती किए गए नौ अधिकारियों में से एक भी आरक्षित वर्ग-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग से नहीं है.
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अपना नाम नहीं दिए जाने की शर्त पर एक वरिष्ठ दलित आईएएस अधिकारी ने कहा, ‘इस कारण काफी बेचैनी है. सरकार द्वारा आरक्षण को इस तरह नकारा जाना चिंता की बात है.’
सरकार की दलील
इस संबंध में आरटीआई के तहत इंडियन एक्सप्रेस द्वारा मांगी गई जानकारी के जवाब में सरकार ने कहा है कि लैटरल एंट्री व्यवस्था पर आरक्षण की नीति लागू नहीं होती है. क्योंकि इसके ज़रिए खास क्षेत्रों के विशेषज्ञ पद विशेष के लिए नियुक्त किए जाते हैं और कोई अकेला पद आरक्षण के दायरे में नहीं आता है.
कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि इसी दलील के अनुरूप सरकार द्वारा 40 विशेषज्ञ अधिकारियों की भर्ती में भी आरक्षण दिए जाने की संभावना नहीं है. सरकार की लैटरल एंट्री व्यवस्था के दूसरे चरण में निदेशक और उप सचिव पद पर इन अधिकारियों की भर्ती किए जाने की योजना है.
हालांकि, डीओपीटी के खुद के नियमों के अनुसार सरकारी नियुक्तियों को आरक्षण के दायरे से तभी बाहर रखा जा सकता है. जब संबंधित पद अस्थाई और 45 दिनों से कम अवधि का हो.
इस विरोधाभास के बारे में डीओपीटी के अधिकारी ने कहा, ‘इकलौते पद पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता. लैटरल एंट्री के तहत अनुबंध एक व्यक्ति और सरकार के बीच होता है. इसलिए यहां आरक्षण लागू नहीं होता है.’
‘महज तकनीकी बहाना’
नए प्रावधान को आरक्षण नीति को कमज़ोर करने का प्रयास बताते हुए राज ने कहा, ‘दलित और अन्य पिछड़ा वर्गों के बीच प्रतिभा, अनुभव या ईमानदारी का कोई अभाव नहीं है, पर आप आरक्षण व्यवस्था को ताक पर रखने के तरीके ढूंढ रहे हैं.’
राज ने कहा, ‘सरकार की लैटरल भर्ती प्रक्रिया में कोई निष्पक्षता नहीं है. चयन का आधार क्या है? उन्हें ये बताना पड़ेगा.’
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ऊपर उल्लिखित वरिष्ठ दलित अधिकारी ने भी राज की बातों से सहमति जताई. उन्होंने कहा, ‘अपने फैसले को सही बताने के लिए वे कोई तकनीकी बहाना पेश कर सकते हैं, पर सच्चाई यही है कि सरकारी पदों पर आरक्षण नहीं देना संविधान की भावना के खिलाफ है.’
अधिकारी ने आगे कहा, ‘यदि आप इन लोगों पर सरकारी प्रावधान लागू नहीं करना चाहते, तो भला आप उन्हें सरकारी पदों पर ले ही क्यों रहे हैं? आप सलाहकारों के रूप में उन्हें काम पर रखिए. यदि आप सरकारी पदों पर उन्हें नियुक्त कर रहे हैं. तो फिर ये कानून का घोर उल्लंघन है.’
कथित जातीय भेदभाव के कारण 2008 में नौकरी से इस्तीफ़ा देने वाली पूर्व आईएएस अधिकारी पी. शिवाकामी ने कहा, ‘कानून बिल्कुल स्पष्ट है. आपको सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना होगा, भले ही भर्ती लैटरल हो या सामान्य.’
उन्होंने कहा, ‘यह कानून और व्यवस्था को कमज़ोर करने का एक तरीका मात्र है. अदालत में चुनौती दिए जाने पर यह कानून की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाएगा.’
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