नई दिल्ली: शुक्रवार तक, 34,393 मामलों के साथ महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और राजस्थान में कोविड-19 के सबसे अधिक केस हैं, जोकि देश के कुल मामलों का 61 प्रतिशत हैं. संयोग से 2009 के बाद से, स्वाइन फ्लू या एचवनएनवन के अधिकांश केस भी इन्हीं राज्यों से आए थे.
नेशनल सेंटर ऑफ डिज़ीज़ कंट्रोल (एनसीडीसी) के स्वाइन फ्लू के आंकड़ों के अनुसार, 2019 में, देशभर के कुल एचवनएनवन मामलों में 55 प्रतिशत इन्हीं चार राज्यों में हुए थे.
एचवनएनवन और कोविड-19 अलग-अलग वायरल पैथोजंस से होते हैं, लेकिन ये दोनों संक्रमण बहुत ही सूक्ष्म बूंदों के, सांस द्वारा शरीर के अंदर जाने से होते हैं, और इनके लक्ष्ण भी एक जैसे होते हैं, जैसे बुख़ार, खांसी और सरदर्द.
दिप्रिंट ने 2009 से 2019 के बीच के आंकड़ों का विश्लेषण किया, और विशेषज्ञों से ये समझने का प्रयास किया, कि कुछ राज्यों में एचवनएनवन और कोविड-19 के मामलों की संख्या अधिक क्यों रही है, और क्या इन दोनों में कोई संबंध है.
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आंकड़े क्या कहते हैं
महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और राजस्थान में, 2009 के बाद से स्वाइन फ्लू के लगातार सबसे अधिक मामले दर्ज हुए हैं. 42,592 मामलों के साथ 2015 में, जब भारत में एचवनएनवन मामलों का सबसे बड़ा प्रकोप दर्ज किया गया, तो इन चार राज्यों में 26,928 मामले थे, जो कुल मामलों का 63 प्रतिशत था.
साल 2009-2010 की महामारी में, जब इनफ्लुएंज़ा पहली बार देश में फैला, तब भी अधिकांश केस महाराष्ट्र (11,408), दिल्ली (11,164) और राजस्थान (4,742) में थे.
गुजरात 2,379 मामलों के साथ लिस्ट में सातवें स्थान पर था, लेकिन महाराष्ट्र के बाद सबसे अधिक मौतें यहीं दर्ज हुईं थीं. देश भर में स्वाइन फ्लू से हुई 52 मौतें, यानी 2,744 में से 1,427 मौतें, इन्हीं दो राज्यों में हुईं थीं.
2015 के प्रकोप के दौरान महाराष्ट्र और गुजरात, कुल मामलों और मौतें, दोनों में सबसे आगे थे. देश भर के 37 प्रतिशत मामले, और स्वाइन फ्लू से हुईं 47.5 प्रतिशत मौतें, यानी 2,990 में से 1,422 मौतें, इन्हीं दो राज्यों में दर्ज की गईं.
2017 में, जब 2015 के बाद सबसे अधिक मामले और मौतें हुईं, तो गुजरात और महाराष्ट्र में 35 प्रतिशत से अधिक केस, और 53 प्रतिशत मौंतें दर्ज की गईं.
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अधिक टेस्टिंग, घनी आबादी हो सकते हैं कारण: एक्सपर्ट्स
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) में महामारी विज्ञान एवं संक्रमित रोग विभाग के पूर्व प्रमुख डॉ ललित कांत के अनुसार, ‘आंकड़े न होने का मतलब बीमारी न होना नहीं है’. उसकी बजाय वो इस रुझान को, इन चार राज्यों में टेस्टिंग की ऊंची दर से जोड़कर देखते हैं.
हर राज्य में लैब्स की संख्या की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘बात केवल ये है कि दूसरे राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में, न तो मौसमी फ्लू के अधिक टेस्ट किए गए, और न ही वो सार्स सीओवी टू के टेस्ट कर रहे हैं.’
एनसीडीसी के 2019 के आंकड़ों के अनुसार, इन चार राज्यों में एचवनएनवन इनफ्लुएंज़ा की जांच के लिए सबसे अधिक वाइरॉलॉजी लैब हैं. महाराष्ट्र में 36 लैब इनफेक्शन की जांच कर रहीं थीं, जबकि गुजरात में 17, दिल्ली में 14 और राजस्थान में 12 लैब ये जांच कर रहीं थीं. इस प्रकार इन राज्यों में पिछले साल तक, कुल 168 में से 78 लैब, यानी तमाम वाइरॉलॉजी लैब्स (सरकारी व प्राइवेट दोनों) में से 46 प्रतिशत, एचवनएनवन की जांच कर रहीं थीं.
कोविड-19 महामारी फैलने पर, इनमें से कई सरकारी लैब्स ने कोविड-19 की जांच करने के लिए, आईसीएमआर की मंज़ूरी हासिल कर ली. मसलन गुजरात में, स्वाइन फ्लू की जांच में लगी 9 में से 8 लैब्स को, कोविड-19 की जांच की मंज़ूरी मिल गई.
आईसीएमआर के आंकड़ों से पता चलता है, कि महाराष्ट्र में सबसे अधिक 58 लैब हैं, जिसके बाद तमिलनाडु (52), आंध्र प्रदेश (48), और दिल्ली (26) आते हैं. गुजरात (24) और राजस्थान (20) ने भी अपनी जांच सुविधाओं की संख्या में ख़ासा इज़ाफ़ा किया है।
कांत ने आगे कहा ‘मौसमी फ्लू और कोरोनावायरस में किसी विशेष पर्यावरण, नस्ल अथवा जीन के प्रति कोई ख़ास रुझान नज़र नहीं आता. जिस जगह भी हम मेहनत से खोजें, वहां ये बीमारियां पाई गईं हैं’.
प्रसिद्ध वाइरोलॉजिस्ट और आईसीएमआर के सेंटर फॉर एडवांस्ड रिसर्च इन वाइरोलॉजी के पूर्व प्रमुख, डॉ जेकब जॉन ने इन राज्यों में अपेक्षाकृत अधिक मामले होने का एक दूसरा कारण बताया- ‘घनी आबादी वाली जगहें’.
उन्होंने कहा, ‘केरल, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे घनी आबादी है, लेकिन मुम्बई जैसी जगहों में आबादी उनसे भी ज़्यादा घनी है’.
डॉ जॉन ने ये भी कहा कि इन आंकड़ों की एक संभावित व्याख्या ये हो सकती है कि ‘इनफ्लुएंज़ा और कोविड समानांतर हैं’. उन्होंने बताया कि इन दोनों संक्रामक रोगों से अंदाज़ा होता है कि इनके फैलने के पीछे कुछ सामाजिक व आर्थिक कारण भी हो सकते हैं, जो इनके फैलाव को तय करते हैं, और इस पर और अधिक शोध करने की अवश्यकता है.
उन्होंने कहा ‘ये एक ऐसा विषय है जिसपर केंद्र सरकार को काम करना चाहिए, क्योंकि हो सकता कि हमारा सामना एक दूसरी इनफ्लुएंज़ा महामारी से हो जाए, इसलिए इन कारणों का जानना बहुत ज़रूरी है’.
ये स्पष्ट नहीं है कि क्या कोविड-19 संक्रमण, भारत में अपने चरम पर पहुंच चुके हैं, क्योंकि इस वायरस के बारे में अभी बहुत कुछ जानना बाक़ी है. स्वाइन फ्लू आमतौर पर जनवरी से मार्च महीनों के बीच, और फिर मॉनसून के बाद के मौसम में, अगस्त से अक्तूबर के बीच अपने चरम पर होता है.