बेंगलुरू: अमेरिकी दवा विनियामक प्राधिकरण, फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने रविवार को कोविड-19 मरीजों के इलाज के लिए प्लाज्मा थेरेपी के आपातकालीन इस्तेमाल को मंजूरी दे दी. यह स्वास्थ्य लाभकारी प्लाज्मा रक्त में एंटीबॉडी वाला वह हिस्सा है जिसे ठीक हो चुके मरीजों से लेकर बीमार लोगों का इलाज करने में इस्तेमाल किया जाता है.
हालांकि, वैज्ञानिकों ने इस इलाज को लेकर आगाह किया है. प्लाज्मा ट्रांसफ्यूजन को अभी तक रैंडम आधार पर नियंत्रित परीक्षणों में खरा नहीं माना गया है जिसे किसी भी दवा, टीके और इलाज को वैज्ञानिक आधार पर प्रामाणिक साबित करने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्तर का मानक माना जाता है.
यद्यपि, इसे व्यापक रूप से प्रभावी माना जा रहा है. शुरुआती डाटा से पता चलता है कि बीमारी के शुरुआती चरण में इस्तेमाल से इसके नतीजे आशाजनक रहे हैं. भारत में अधिकांश हिस्सों समेत दुनियाभर के अस्पतालों में अंतिम उपाय के तौर पर मरीजों पर प्लाज्मा थेरेपी का नियमित इस्तेमाल किया जा रहा है.
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कोविड में प्लाज्मा के इस्तेमाल पर अध्ययन
प्लाज्मा पर सबसे बड़ा अध्ययन मेयो क्लीनिक की तरफ से किया गया था जिसका मुख्यालय रोचेस्टर में है और इसे जैव अनुसंधान संबंधी अमेरिकी एजेंसी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने प्रायोजित किया था. इसने अप्रैल से जून के बीच 35,322 मरीजों को नामांकित किया और गंभीर कोविड-19 वाले मरीजों की मृत्यु दर पर इस इलाज के असर का अध्ययन करने की कोशिश की.
अध्ययन में पाया गया कि जिन लोगों में डायग्नोसिस के तीन दिनों के भीतर प्लाज्मा ट्रांसफ्यूजन किया गया उनमें से 8.7 प्रतिशत की मृत्यु सात दिनों के अंदर हो गई जबकि डायग्नोसिस के चार दिन बाद इसे पाने वालों के बीच सात दिन में मृत्यु दर 11.9 प्रतिशत थी. 30 दिनों बाद दूसरे समूह के 26.7 फीसदी की तुलना में पहले समूह में 21.6 फीसदी लोगों की मौत हुई.
आईजीजी एंटीबॉडी की अलग-अलग सांद्रता (कंसन्ट्रेशन) के इस्तेमाल पर अध्ययन में पाया गया कि जिन लोगों में इसकी सांद्रता उच्चतम थी उनमें सात दिन में मृत्यु दर 8.9 प्रतिशत थी, मध्यम स्तर वाले रेसीपिटेंट में यह दर 11.6 प्रतिशत रही और सबसे कम आईजीजी रेसीपिटेंट में यह 13.7 फीसदी तक पहुंच गई. मरीजों में इस तरह के पैटर्न को डोज-रिस्पांस रिलेशनशिप कहा जाता है.
हालांकि, यह अध्ययन काफी आशाजनक लग रहा था लेकिन रैंडमाइज्ड या नियंत्रित नहीं था. प्लाज्मा ट्रांसफ्यूजन के प्रभावों की तुलना के लिए अन्य मरीज नहीं थे जिससे यह पता लगाया जा सके कि क्या प्लाज्मा थेरेपी नहीं लेने वाले लोगों में मृत्यु दर अलग थी. कोई प्लेसीबो समूह भी नहीं था और सिर्फ उन्हीं का इलाज किया गया थो जो अध्ययन के लिए नामांकित थे.
अध्ययन में गंभीर रूप से बीमार मरीजों की संख्या अधिक थी. करीब 52 फीसदी आईसीयू में थे और 28 फीसदी वेंटिलेटर पर थे. अध्ययन में शामिल प्रतिभागियों में से लगभग 60 प्रतिशत पुरुष थे.
विशेषज्ञों ने उल्लेख किया कि इसके लेखक जल्द प्लाज्मा थेरेपी पाने वाले मरीजों में मृत्यु दर घटने संबंधी अपने आकलन की व्याख्या को लेकर काफी सतर्क थे, अध्ययन की अभी तक न तो विशेषज्ञ स्तर पर समीक्षा हुई है और न ही इसे किसी मेडिकल जर्नल में प्रकाशित किया गया है.
एफडीए ने भी रैंडम परीक्षणों के अभाव का जिक्र करते हुए अपने अधिकृत बयान में कहा, ‘कोविड-19 से उबरे मरीजों के प्लाज्मा का इस्तेमाल उपलब्ध मौजूदा प्रमाणों के आधार पर इलाज के नए मानक स्थापित नहीं करता है.’
वही, भारत में एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया का कहना है कि मृत्यु दर घटने जैसे प्रत्यक्ष लाभ का कोई प्रमाण नहीं है जैसा प्लाज्मा थेरेपी पर परीक्षणों में देखा गया है.
कुछ छोटे-मोटे अध्ययनों में भी इसी तरह के परिणाम दिखे हैं जहां डायग्नोसिस के तीन दिनों के भीतर एंटीबॉडी युक्त प्लाज्मा पाने वाले लोग लंबे समय तक जीवित रहे लेकिन अब तक निश्चित तौर पर यह साबित करने वाला कोई रैंडमाइज्ड नियंत्रित परीक्षण नहीं किया गया है जिससे पता चले कि सकारात्मक नतीजे वास्तव में प्लाज्मा थेरेपी की वजह से आए थे या फिर बेहतर स्वास्थ्य देखभाल की वजह से.
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रिसर्च एक बेहद जटिल प्रक्रिया
वैज्ञानिकों को अब यह चिंता सता रही है कि आपातकालीन इलाज की मंजूरी से लोग रैंडमाइज्ड नियंत्रित परीक्षण के लिए नामांकन कराने की बजाए जल्द एक ड्रग टीट्रमेंट का सहारा लेना चाहेंगे क्योंकि उन्हें लगेगा कि कहीं प्लेसीबो का इस्तेमाल न किया जाए.
रैंडमाइजेशन यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि ट्रीटमेंट पा रहा समूह और वह समूह जिसे प्लेसीबो मिल रहा है, लगभग एक समान हैं. इससे मृत्यु दर या ठीक होने में असर डालने वाले अन्य कारकों का पता लगाना सुनिश्चित हो पाता है.
प्लाज्मा थेरेपी पर अध्ययन अपने आप में चुनौतियों भरा होता है क्योंकि परिणाम रक्त में एंटीबॉडी की सांद्रता पर निर्भर करते हैं- जिसे कई बार मानकीकृत नहीं किया जा सकता. कई बार शोधकर्ता लागत और प्रक्रियागत कारणों से यह पता लगाने में सक्षम नहीं होते कि प्लाज्मा में सशक्त न्यूट्रिलाइजिंग एंटीबॉडी हैं या नहीं.
इसके अलावा, मानवीय संवेदनाओं के लिहाज से इस इलाज की अनुमति पहले ही मिल जाने की वजह से डॉक्टर और अस्पताल नतीजे या डाटा तैयार करने या संग्रहित करने की एक उचित प्रक्रिया अपनाए बिना ही प्लाज्मा थेरेपी प्रेस्क्राइब कर रहे हैं.
इस बारे में भी पर्याप्त डाटा उपलब्ध नहीं है कि क्या प्लाज्मा थेरेपी बीमारी को और बिगाड़ सकती है जैसा कि इबोला जैसी बीमारियों के दौरान कुछ मरीजों में देखा गया था.
I had Ebola and was treated with convalescent plasma. It was before we had good data on it. And it actually made me worse.
Convalescent plasma has an incredible history & works for many diseases.
But it didn’t for Ebola. And might not for Covid.
Only good science can tell us. https://t.co/5yBuXmD9q6
— Craig Spencer MD MPH (@Craig_A_Spencer) August 23, 2020
मेयो क्लिनिक जैसे अध्ययनों की अपनी कमियां हैं जहां यह निर्धारित करना मुश्किल है कि वास्तव में इस नतीजे का कारण क्या था. उदाहरण के लिए, यह निर्धारित करना कि जिन लोगों को प्लाज्मा थेरेपी मिली क्या वह ऐसे चिकित्सा केंद्रों में भर्ती थे जिनके पास स्वास्थ्य देखभाल का बेहतर बुनियादी ढांचा था और इस वजह से उनके ठीक होने की संभावना अधिक थी.
हालांकि, ब्रिटेन के रिकवरी ट्रायल समेत कई रैंडमाइज्ड नियंत्रित परीक्षण अभी चल रहे हैं. इन ठोस परीक्षणों के नतीजे इस वर्ष के अंत तक आने के आसार हैं.
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