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Sunday, 22 December, 2024
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ग्रामीण भारत में क्यों ज़्यादा चुभ रही महंगाई? खाने पीने की चीजों की बढ़ी कीमतें हैं बड़ी वजह

सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि इस वर्ष के पहले 7 महीनों में भारत के ग्रामीण इलाकों में मुद्रास्फीति की दर शहरी इलाकों की तुलना में कहीं अधिक थी. इसका एक प्रमुख कारण इन दो इलाकों के लिए मुद्रास्फीति की गणना के तरीके में निहित है.

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नई दिल्ली: महंगाई की बढ़ी हुई दर ने इस साल की शुरुआत से ही देश के नीति निर्माताओं को परेशानी में डाल रखा है, और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने पिछले चार महीनों में रेपो रेट (बैंकों को उधार देने की दर) में तीन बार बढ़ोतरी करते हुए इसे 140 आधार अंकों से बढ़ा दिया है, ताकि महंगाई को नियंत्रित किया जा सके. फिर भी महंगाई की दर आरबीआई की छह प्रतिशत की ऊपरी सहनशीलता सीमा से ऊपर बनी हुई है और इस कारण से ब्याज दरों में और अधिक बढ़ोतरी की संभावना है .

इस वर्ष के महंगाई के आंकड़ों पर गहराई के साथ नजर डालने पर एक और रुझान का पता चलता है – वह यह है किशहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में महंगाई की दर अधिक है.

Graphic: Ramandeep Kaur | ThePrint
ग्राफिक: रमनदीप कौर | दिप्रिंट

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की विज्ञप्ति के अनुसार, ग्रामीण भारत में महंगाई की दर इस वर्ष के पहले सात महीनों के दौरान शहरी क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक थी. इसके विपरीत, 2021 में छह महीने के लिए दूरदराज के इन इलाकों में महंगाई की दर देश के शहरी भागों की तुलना में अधिक थी, जबकि साल 2020 के पूरे समय में यह शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक मंद रही थी.

जुलाई में, जब इस बारे में मासिक आंकड़ा आखिरी बार प्रकाशित हुआ था, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महंगाई दर क्रमशः 6.8 प्रतिशत और 6.49 प्रतिशत थी.

क्यों दिख रहा है ऐसा रुझान?

ग्रामीण भारत द्वारा महंगाई की उच्च दर का सामना करने के प्रमुख कारणों में से एक जिस तरह से इन दो क्षेत्रों के लिए आंकड़े की गणना की जाती है उससे भी जुड़ा है.

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स- सीपीआई) – महंगाई का एक संकेतक – मूल रूप में वस्तुओं की थोक मात्रा वाली कीमतों में आये उतार-चढाव को मापता है, जिसे उनके महत्व के आधार पर कुछ वेटेज (अधिभार) दिया जाता है. इस वस्तुओ को आगे चलकर और व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है – भोजन और पेय पदार्थ, कपड़े और जूते, आवास, ईंधन और प्रकाशकी सुविधा, पान, तंबाकू और मादक पदार्थ एवं विविध.

ग्रामीण और शहरी महंगाई दर की गणना के बीच का एक महत्वपूर्ण अंतर वस्तुओं के कुछ समूहों से जुड़े वेटेज में निहित है. ग्रामीण क्षेत्रों में, अकेले खाद्य और पेय पदार्थ वाला वर्ग सीपीआई में शामिल सभी वस्तुओं में से लगभग 54.18 प्रतिशत का वेटेज रखता है. शहरी क्षेत्रों के लिए इसी वर्ग का वेटेज महज 36.29 प्रतिशत है, जो सम्पूर्ण खपत के एक तिहाई हिस्से से थोड़ा ही अधिक है.

इस कम वेटेज का कारण यह है कि आवास से सम्बंधित मूल्य के रुझानों को शहरी क्षेत्रों के लिए प्रयुक्त सीपीआई सूचकांक में शामिल किया गया है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के सूचकांक के लिए नहीं. इसका मतलब यह है कि ग्रामीण उपभोक्ता अपने शहरी समकक्षों की तुलना में खाद्य महंगाई के प्रति अधिक संवेदनशील हैं – और ठीक ऐसा ही हुआ है.

इस साल जुलाई में, उपभोक्ता खाद्य मूल्य सूचकांक (सीएफपीआई) में साल-दर-साल वृद्धि – जो सिर्फ और सिर्फ खाद्य कीमतों में आये बदलाव को ही मापती है – ग्रामीण भारत के लिए 6.80 प्रतिशत और शहरी भारत के लिए 6.69 प्रतिशत थी यानि कि इन दोनों के बीच 11 आधार अंकों का अंतर था.

खाद्यान्न पदार्थों में भी सबसे ज़्यादा भार अनाज को जाता है लगभग 12.35% और यही शहरी इलाकों में 6.59% के भार के साथ आता है. ग्रामीण भारत में दूध और उससे बने पदार्थों को 7.72 और सब्ज़ियों को 7.46 प्रतिशत का भार दिया जाता है. हालांकि अनाज पर सरकार सब्सिडी देती है लेकिन उसके बावजूद इस श्रेणी में महंगाई बढ़ चढ़ के बोल रही है. साल के शुरुआत में अनाज की कीमतों में 3.71% का उछाल देखा गया था, वही जुलाई तक आते-आते यह उछाल 6.59% तक पहुंच गया है. पूरे साल में जनवरी के बाद एक भी बार अनाज की कीमतें 4% से कम में नहीं उछलीं

दूध और उसके पदार्थों की कीमतें भी अनाज की तरह लगभग 6% पर से ऊपर ही चल रही हैं. सब्ज़ियों का हाल तो और भी बुरा है जहां पर जुलाई में कीमतें 10.34% से बढ़ गई हैं. जनवरी में जहां सब्ज़ियों की कीमतों में 1.4% की बढ़त हुई थी – वो मार्च में बढ़ कर 10.57 प्रतिशत हो गई और कभी 10% से नीचे नहीं आई.

इसी साल मार्च में यह अंतराल और बड़ा था क्योंकि तब महंगाई की दर अक्टूबर 2020 के बाद सबसे अधिक थी, और वह इस वजह से था क्योंकि दुनिया के बाकी हिस्सों की ही तरह भारत भी रूस-यूक्रेन युद्ध के थपेड़ों को महसूस कर रहा था. ग्रामीण और शहरी सीएफपीआई के क्रमशः 8.04 और 7.04 प्रतिशत पर रहने के साथ, इनके बीच का अंतर 100 आधार अंक वाला था. उस समय, ग्रामीण इलाकों में खाद्य तेल की कीमत 20.75 प्रतिशत बढ़ी हुई थी, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 15.15 तक प्रतिशत बढ़ी थी.


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क्या यह कोई असामान्य बात है?

महंगाई के आंकड़ों पर एक सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि कम-से-कम पिछले तीन-चार वर्षों से ग्रामीण महंगाई की दर शहरी क्षेत्रों की तुलना में मोटे तौर पर कम ही रही है. लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता. आरबीआई द्वारा दिसंबर 2020 के बुलेटिन में प्रकाशित एक लेख, ‘रूरल-अर्बन इन्फ्लेशन डायनामिक्स इन इंडिया’ के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च महंगाई दर 2018 से पहले आम बात थी.

बिनोद बी. भोई, हिमानी शेखर और इप्सिता पाधी द्वारा लिखे गए लेख के अनुसार, ग्रामीण भारत में औसत वार्षिक महंगाई दर वित्तीय वर्ष 2012-13 से 2017-18 तक शहरी भारत की तुलना में आम तौर पर अधिक ही रही थी.

वित्तीय वर्ष 2018-19 के बाद से शहरी भारत की महंगाई दर तेजी से बढ़ने लगी थी, और यह संभव है कि 2022 की संख्या पहले वाली यथास्थिति की तरफ वापसी को दर्शाती है. भारतीय रिजर्व बैंक के विश्लेषण का सार यह था कि निम्नलिखित पैटर्न या प्रवृत्तियों के संदर्भ में, ग्रामीण और शहरी भारत की महंगाई दर एक दूसरे से काफी ज्यादा भिन्न नहीं होती है.

अभी भी है चिंता का विषय बढ़ती महंगाई

ये आंकड़ें उस तरह की धारणा को समर्थन दे सकती हैं कि ग्रामीण महंगाई के शहरी स्तर से आगे निकल जाने की बात असामान्य नहीं भी हो सकती है, क्योंकि भारत 2017-18 से पहले भी कुछ इसी तरह के आर्थिक प्रक्षेपवक्र (इकनोमिक ट्रेजेक्टरी) का सामना कर चुका है, और हालात हाल के वर्षों में ही उलटे हुए हैं. बहरहाल, विशेषज्ञों का मानना है कि इसके बावजूद भी यह चिंता का विषय तो है.

विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले छह महीनों से कीमतों में वृद्धि 4-6 फीसदी की सहनीय सीमा से ऊपर बनी हुई हैं, और ऐसे समय में जब खाद्य उत्पादन के बारे में अनिश्चितता बनी हुई है, उच्च ग्रामीण महंगाई दर कोई अच्छा संकेत नहीं है.

क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की प्रमुख अर्थशास्त्री दीप्ति देशपांडे ने दिप्रिंट को बताया: ‘ग्रामीण मजदूरी बढ़ती हुई महंगाई के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही है. साल 2022 (जनवरी-जून की अवधि) में, कृषि और ग्रामीण मजदूरी में सालाना आधार पर क्रमशः 4.2 प्रतिशत और 4.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि औसत सीपीआई मुद्रास्फीति 7.1 प्रतिशत के स्तर पर है.’

इस तरह से वास्तविक रूप से वेतन वृद्धि (अर्थात मामूली वेतन वृद्धि से उपभोक्ता मूल्य महंगाई को कम करने के बाद) के नकारात्मक हो जाने के साथ इस वर्ष इन इलाकों की क्रय शक्ति को कमजोर करता है, जो इस वित्त वर्ष में खपत की मांग में पुनरुत्थान को प्रभावित कर सकती है.

इस साल की गर्मियों में आई बहुत अधिक तपन वाली लहर के कारण गेहूं के उत्पादन का अनुमान प्रभावित हो रहा है, और इसकी वजह से भारत को सर्दियों के दौरान इसका आयात करना पड़ सकता है. स्वतंत्र थिंक टैंक सेंटर फॉर मोनीरोटिंग ऑफ़ इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के सीईओ और प्रबंध निदेशक महेश व्यास ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि अनियमित और असमान बारिश ने भी उपभोक्ता भावना को ‘दबा’ दिया है, खासकर ग्रामीण भारत में.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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