नई दिल्ली: भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ 11 जुलाई को दो दर्जन से अधिक याचिकाओं पर सुनवाई करेंगे, जिसमें जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की कानूनी वैधता को चुनौती देने की मांग की गई है, जिसने जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया था और 5 अगस्त 2019 के राष्ट्रपति के आदेश ने संविधान के अनुच्छेद 370 (जिसने तत्कालीन राज्य को विशेष दर्जा दिया) को रद्द कर दिया था.
सोमवार शाम सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड की गई एक अधिसूचना के अनुसार, संविधान पीठ 11 जुलाई को निर्देश पारित करेगी. इसका मतलब यह है कि पीठ पक्षों के लिए लिखित दलीलें दाखिल करने, यदि कोई हो और अपनी दलीलें पूरी करने के लिए समय सीमा तय कर सकती है.
नोटिस के अनुसार, पीठ में सीजेआई के बाद शीर्ष चार वरिष्ठतम न्यायाधीश – जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बी.आर. गवई और सूर्यकांत भी शामिल होंगे.
सोमवार का नोटिस याचिकाकर्ताओं द्वारा सीजेआई से मामले को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करने के अनुरोध के कई उल्लेखों के बाद आया है.
जस्टिस कौल, गवई और सूर्यकांत भी मूल संविधान पीठ के सदस्य थे, जिसका गठन अक्टूबर 2019 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने किया था, जिन्होंने 28 अगस्त 2019 को संदर्भ दिया था.
न्यायमूर्ति एन.वी. रमण – जो नवंबर 2022 में सीजेआई के रूप में सेवानिवृत्त हुए – उन्होंने पीठ का नेतृत्व किया, जबकि न्यायमूर्ति आर.एस. रेड्डी इसमें पांचवें न्यायाधीश थे.
याचिकाओं पर आखिरी बार मार्च 2020 में सुनवाई हुई थी, जब संविधान पीठ ने मामले को सात या नौ न्यायाधीशों की बड़ी पीठ के पास भेजने से इनकार कर दिया था.
कोविड-19 महामारी की शुरुआत के कारण मामले की सुनवाई नहीं हो सकी, जिससे अदालती सुनवाई बाधित हुई, हालांकि शीर्ष अदालत ऑनलाइन मोड में काम करती रही.
सुप्रीम कोर्ट के सूत्रों ने कहा, ऐसा मामले में याचिकाकर्ताओं की संख्या और याचिकाओं के साथ संलग्न भारी दस्तावेज़ के कारण था.
उक्त सूत्र ने दिप्रिंट से कहा, “तब हमारे सिस्टम ने हमें एक मामले में इतने सारे वकीलों को ऑनलाइन उपस्थित होने की अनुमति नहीं दी थी. इसके अलावा, उस समय उपयोग में आने वाली तकनीक भी ऐसी भारी केस फाइलों के डिजिटलीकरण का समर्थन नहीं करती थी.”
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मामले का इतिहास
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 पर पहले ही कार्रवाई की जा चुकी है. आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचित होने के बाद परिवर्तन 31 अक्टूबर 2019 को लागू हुए.
1 अक्टूबर 2020 को जस्टिस रमण की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा था, “सुप्रीम कोर्ट हमेशा घड़ी को पीछे घुमा सकता है.”
2 मार्च 2020 को, उसी पीठ ने याचिकाओं को बड़ी पीठ के पास भेजने से इनकार कर दिया था, जैसा कि याचिकाकर्ताओं ने आग्रह किया था.
याचिकाकर्ताओं ने इस आधार पर एक बड़ी पीठ के संदर्भ की मांग की थी कि शीर्ष अदालत के पहले के दो फैसलों – संपत प्रकाश द्वारा 1959 में दिया गया और प्रेम नाथ कौल द्वारा 1970 में सुनाए गए फैसले – में अनुच्छेद 370 की स्थिति के बारे में अलग-अलग विचार थे.
हालांकि, SC ने केंद्र सरकार की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि दोनों फैसलों के बीच कोई विरोधाभास नहीं है.
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि, संपत प्रकाश मामले में शीर्ष अदालत ने माना था कि अनुच्छेद 370 तभी प्रभावी होगा जब राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा द्वारा की गई सिफारिश पर उस आशय का निर्देश जारी करेंगे.
प्रेम नाथ कौल के फैसले में याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था, शीर्ष अदालत ने कहा कि कश्मीर के शासक की पूर्ण शक्तियां अनुच्छेद 370 द्वारा सीमित नहीं थीं. इस मामले में यह माना गया कि अनुच्छेद 370 के अस्थायी प्रावधान इस धारणा पर आधारित थे कि भारत और जम्मू-कश्मीर के बीच अंतिम संबंध अंततः जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा द्वारा निर्धारित किया जाएगा.
हालांकि, इस विवाद का विरोध करते हुए, केंद्र सरकार ने तर्क दिया था कि दोनों फैसले अलग-अलग मुद्दों पर दिए गए थे और एक-दूसरे से संबंधित नहीं थे. केंद्र सरकार ने कहा था कि अनुच्छेद 370 द्वारा सक्षम जम्मू-कश्मीर की संप्रभुता अस्थायी थी.
याचिकाकर्ताओं की याचिका खारिज करते हुए पीठ ने कहा था कि दोनों फैसलों की उनके तथ्यों और संदर्भ से अलग, शून्य में व्याख्या नहीं की जा सकती. इसमें कहा गया है कि मामलों में की गई टिप्पणियों को “उन्हें एक विशेष अर्थ देने के लिए चुनिंदा रूप से नहीं चुना जा सकता”.
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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