नई दिल्ली: कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस महीने कुछ समय पहले दिए गए एक आदेश में कहा है कि प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ओफ्फेंसेस (पोक्सो) एक विशेष कानून है जो सभी पर्सनल लॉ को ख़ारिज करता है.
अदालत एक 27 वर्षीय मुस्लिम शख्स की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसे एक 17 वर्षीय लड़की, जो अब गर्भवती है, से शादी करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.
12 अक्टूबर को जारी एक आदेश में, इस हाई कोर्ट की एकल पीठ के न्यायमूर्ति राजेंद्र बादामीकर ने याचिकाकर्ता की इस दलील को खारिज कर दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ किसी भी ऐसे शख्स को शादी करने की अनुमति देता है जिसने वयःसंधि या युवावस्था (प्यूबर्टी) प्राप्त कर ली हो.
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि चूंकि कोई भी शख्स 15 साल की आयु में प्यूबर्टी प्राप्त कर लेता है, इस लिए इस मामले में नियमो का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है.
मगर उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा, ‘इस तरह की दलीलों को इस तथ्य के मद्देनजर स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि पॉक्सो अधिनियम एक विशेष अधिनियम है जो सभी पर्सनल लॉ को ओवरराइड (ख़ारिज) करता है और पॉक्सो अधिनियम के तहत यौन गतिविधियों में शामिल होने की न्यूनतम आयु 18 वर्ष है.’
हालांकि, अदालत ने याचिकाकर्ता को यह कहते हुए जमानत दे दी कि उसने निचली अदालत के समक्ष सभी प्रासंगिक दस्तावेज जमा कर दिए हैं और उसके द्वारा अभियोजन पक्ष के गवाहों के साथ छेड़छाड़ का कोई सवाल ही नहीं उठता.
अदालत ने कहा, ‘इसके अलावा, पीड़िता के गर्भवती होने के कारण उसे समुचित मदद की आवश्यकता है और याचिकाकर्ता अपनी पत्नी की देखभाल कर सकता है.’
यह घटनाक्रम ऐसे समय में आया है जब देश भर की अदालतें मुस्लिम नाबालिगों के विषय पर विभाजित हैं.
इससे पहले पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने 30 सितंबर के अपने आदेश में 15 साल की एक मुस्लिम लड़की की शादी को वैध ठहराया था.
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क्या थी शिकायत?
इस मामले में याचिकाकर्ता के खिलाफ बाल विवाह निषेध अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ़ चाइल्ड मेर्रिज एक्ट=पीसीएमए) 2006 की धारा 9 और 10 और पोक्सो की धारा 4 और 6 के तहत मामला दर्ज किया गया था.
जहां पीसीएमए की धारा 9 और 10 में बाल विवाह के लिए सजा का प्रावधान करती हैं, वहीं पॉक्सो की धारा 4 और 6 में यौन उत्पीड़न के लिए सजा का प्रावधान है.
इस मामले में प्राथमिकी बेंगलुरु के राममूर्ति नगर स्थित एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा अधिकारी द्वारा की गई शिकायत के आधार पर दर्ज करवाई थी. जुलाई महीने में पीड़िता इसी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में अपनी स्वास्थ्य जांच के लिए गई थी और गर्भवती पाई गई थी.
शिकायत में कहा गया है कि लड़की की शादी तब की गई थी जब वह नाबालिग थी.
यहां संदर्भ के लिए बता दें कि पोक्सो अधिनियम की धारा 19 अस्पतालों में चिकित्सा अधिकारियों सहित किसी भी शख्स के लिए नाबालिग की सहमति की परवाह किए बिना ‘बच्चों’ से जुड़े कथित यौन हमले की किसी भी घटना के बारे में सुचना देना अनिवार्य बनाती है.
इस कानून के अनुसार पुलिस को ऐसे सभी मामलों में संदिग्धों के खिलाफ पॉक्सो एक्ट के तहत प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए.
यह कानून एक बच्चे को ‘18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति’ के रूप में परिभाषित करता है.
इस मामले में गिरफ्तार किये जाने के बाद, याचिकाकर्ता ने बेंगलुरु के एडिशनल सिटी सिविल एंड सेशंस जज समक्ष एक नियमित जमानत याचिका दायर की थी, जिसे खारिज कर दिया गया था .
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष बाल अधिकार आयोग की याचिका
इस महीने की शुरुआत में, देश की सर्वोच्च बाल अधिकार संस्था राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स – एनसीपीसीआर) ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के उस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में एक अपील दायर की है जिसमें कहा गया था कि 16 साल से अधिक उम्र की मुस्लिम लड़की उसकी पसंद के किसी भी व्यक्ति से शादी करने के लिए सक्षम है.
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का यह आदेश जुलाई महीने में आया था जब एक 21 वर्षीय पुरुष और एक 16 वर्षीय लड़की ने इस आधार पर पुलिस सुरक्षा की मांग करते हुए याचिका दायर की कि वे दोनों आपस में प्यार करते हैं और उन्होंने अपने अभिभावकों की मर्जी के विरुद्ध जाकर शादी की थी .
17 अक्टूबर को अदालत के समक्ष दिए गए अपने तर्क में, एनसीपीसीआर ने कहा कि पोक्सो एक धर्मनिरपेक्ष कानून है जो उन प्रथागत कानूनों को ओवरराइड करता है जो नाबालिगों के बीच विवाह की अनुमति देते हैं.
बाल अधिकार निकाय ने यह भी कहा कि (पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का) यह आदेश न केवल पॉक्सो, बल्कि पीसीएमए की भी अवहेलना करते हुए पारित किया गया था.
एनसीपीसीआर ने सोमवार को यह भी निवेदित किया कि उच्च न्यायालय का यह आदेश सुप्रीम कोर्ट के 2017 के उस फैसले का उल्लंघन है, जो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 375 के अपवाद 2 – वह प्रावधान जो एक विवाहित व्यक्ति को अपनी पत्नी के साथ जोर-जबरदस्ती से यौन संबंध बनाने पर बलात्कार के आरोपों का सामना करने से बचाता है – की व्याख्या करता है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कम उम्र के विवाह में शामिल भागीदारों से जुड़े मामले में बलात्कार के अपराधीकरण करने के लिए इस धारा की व्याख्या की गई थी.
बाल अधिकार निकाय की ओर से इस मामले में बहस करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और अधिवक्ता स्वरूपमा चतुर्वेदी ने कहा कि एनसीपीसीआर द्वारा केवल एक ही सवाल उठाया गया है कि क्या माननीय उच्च न्यायालय कोई ऐसा आदेश जारी कर सकता है जो दंडात्मक प्रावधानों का उल्लंघन करता हो.
सुप्रीम कोर्ट इस मामले की अगली सुनवाई 7 नवंबर को करेगा.
नाबालिगों की शादी और रिश्तों पर परस्पर विरोधी विचार
देश भर की विभिन्न अदालतों ने नाबालिगों और पर्सनल लॉ से जुड़े विवाहों और यौन संबंधों पर परस्पर विरोधी विचार रखे हैं.
कर्नाटक उच्च न्यायालय (2013) और गुजरात उच्च न्यायालय (2014) ने माना है कि नाबालिग मुस्लिम लड़कियों के मामलों में, साल 2006 का पीसीएमए कानून सभी पर्सनल लॉ पर हावी होगा. मगर, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने साल 2018 में इसके विपरीत फैसला सुनाया था.
इस अदालत ने कहा था कि मुस्लिम कानून में वयःसंधि (प्यूबर्टी) और वयस्कता एक समान मानी गयी है, और ‘कोई भी लड़का या लड़की जो प्यूबर्टी प्राप्त कर चुका है, उसे अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति से शादी करने की स्वतंत्रता है और अभिभावक को इसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है’.
एक ही अदालत के भीतर भी इस मामले में विरोधाभास रहा है. साल 2014 के एक आदेश में, गुजरात उच्च न्यायालय ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत एक नाबालिग मुस्लिम लड़की की शादी को मान्यता दे दी थी.
न्यायमूर्ति पीबी पारदीवाला ने अपने फैसले में कहा था, ‘मुसलमानों के पर्सनल लॉ के मुताबिक, लड़की जैसे ही वयःसंधि को प्राप्त करती है या 15 साल की उम्र पूरी कर लेती है, या इनमें से जो भी पहले हो, वह अपने माता-पिता की सहमति के बिना शादी करने के लिए सक्षम हो जाती है.’
लेकिन 2015 में, उसी अदालत के एक अन्य पीठ ने फैसला सुनाया कि पीसीएमए एक ‘विशेष अधिनियम’ है और मुस्लिम पर्सनल लॉ, हिंदू विवाह अधिनियम, या किसी भी पर्सनल लॉ के प्रावधानों को ख़ारिज करता है.
इस बीच, सितंबर 2021 में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पोक्सो के तहत आरोपित किए गए एक व्यक्ति को इस फैसले के साथ बरी कर दिया था कि ‘स्वैच्छिक यौन संबंध’ पर यह कानून लागू नहीं होता है
उसी वर्ष, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसी तरह की एक प्राथमिकी को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इससे पति, पत्नी और बच्चे का जीवन ‘बर्बाद’ हो जाएगा.
इस साल फरवरी में दिए गए अपने एक फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था कि पोक्सो का उद्देश्य किशोरवय के प्रेम पर मुकदमा चलाना नहीं था.
इस साल जून में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी इसी तरह की एक प्राथमिकी को रद्द कर दिया था.
अदालत ने तब कहा था, ‘हम उनके भविष्य पर विचार करते गए इस प्राथमिकी को रद्द करने के अनुरोध को स्वीकार करने के इच्छुक हैं. यदि अभियोजन अभी भी बना रहता है, तो यह उनके शांतिपूर्ण जीवन के रास्ते में आ जाएगा.’
दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष दायर एक अन्य याचिका में, एक महिला ने अदालत से अपनी किशोरवय बेटी की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने की मांग की थी क्योंकि अस्पतालों ने पुलिस को सूचित किए बिना चिकित्सा प्रक्रिया को पूरा करने से इनकार कर दिया था.
इस महिला ने अपनी याचिका में कहा, ये संबंध आपसी सहमति से थे और वह ‘आने वाले सामाजिक कलंक और उत्पीड़न’ से बचना चाहती है.
अदालतों ने बार-बार इस बात पर भी चिंता जताई है कि नाबालिगों के साथ-साथ बाल विवाह की अनुमति देने वाले स्थानीय रीति-रिवाजों से जुड़े आपसी संबंधों के मामले में पोक्सो के प्रावधानों को लागू करना कितना मुश्किल है.
16 साल की उम्र के बाद आपसी सहमति से बने यौन संबंधों, शारीरिक संपर्क, या संबंधित कृत्यों को पोक्सो के दायरे से बाहर करने के बारे में भी सुझाव दिए जाते रहे हैं.
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