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Friday, 22 November, 2024
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बाल शोषण या ‘टीन रोमांस’- अदालतों ने POCSO के मामलों में 9 बार सुनाए अलग-अलग आदेश

मेघालय हाई कोर्ट ने ‘सहमति देने वाली नाबालिग’ के साथ शादी होने की वजह से एक आदमी के खिलाफ मामला खारिज कर दिया. लेकिन यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम के तहत मामलों में अदालतों के हालिया निर्णय एक समान नहीं रहे हैं.

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नई दिल्ली: मेघालय हाई कोर्ट ने बीते बुधवार को 16 वर्षीय एक लड़की से शादी कर चुके होने की वजह से एक व्यक्ति के खिलाफ यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम, 2012 के तहत दर्ज मामला खारिज कर दिया और कहा कि एक ‘अच्छी तरह बनी पारिवारिक इकाई’ को अलग करना ‘अन्याय’ होगा.

जस्टिस डब्ल्यू डिंगदोह की एकल-जज पीठ ने मामले में ‘असाधारण तथ्यों और परिस्थितियों’ को देखते हुए आपराधिक आरोपों को रद्द करने के लिए अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल किया.

पति की तरफ से मामला रद्द करने के लिए दायर याचिका पर आया यह आदेश उन हालिया फैसलों में एक है, जहां अदालतों ने ‘शादियां बचाने’ के प्रयास में पोक्सो केस खत्म करने के लिए हस्तक्षेप किया.

इस मामले में लड़की और आरोपी के बीच एक साल तक प्रेम संबंध चला और फिर लड़की के परिवार की इजाजत से उन्होंने 2019 में शादी कर ली. शादी के वक्त लड़की की उम्र करीब 16 साल थी.

नवंबर 2019 में एक स्थानीय अस्पताल की तरफ से लड़की के गर्भवती होने की पुष्टि किए जाने के बाद पति के खिलाफ पोक्सो कानून के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी. चूंकि नाबालिग के साथ शारीरिक संबंध बनाने को ‘कानूनन बलात्कार’ माना जाता है, इसलिए अस्पताल ने जोर देकर कहा कि प्राथमिकी दर्ज की जाए. और लड़की की मां की तरफ से शिकायत के आधार पर ऐसा किया गया.

अपने फैसले में मेघालय हाई कोर्ट ने अन्य हाई कोर्ट के फैसलों को आधार बनाया, जिनमें नाबालिगों की सहमति से जुड़े ऐसे ही कुछ मामलों में पोक्सो के तहत दर्ज आरोपों को रद्द कर दिया गया था.

मेघालय हाई कोर्ट ने खुद भी इस साल मार्च में इसी आधार पर एक पोक्सो केस रद्द किया था. इस मामले में, कोर्ट ने कहा कि पोक्सो कानून बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से जुड़े मामलों को निपटाने के लिए बनाया गया विशेष कानून है क्योंकि अन्य कानूनों के तहत उनके निपटारे के उपयुक्त प्रावधान नहीं हैं.

इस मामले में खास तरह के तथ्यों और परिस्थितियों के मद्देनजर कोर्ट ने कहा कि मुकदमे की अनुमति देने से ‘एक खुशहाल पारिवारिक संबंध तो टूटेगा ही, पत्नी पर शारीरिक रूप से या वित्तीय तौर पर बिना किसी सहारे के बच्चे की देखभाल का जिम्मा भी आ सकता है, क्योंकि कानूनी फैसले के परिणामस्वरूप पति को जेल हो सकती है.’

वरिष्ठ अधिवक्ता विभा मखीजा ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि हाई कोर्ट ऐसी शिकायतों को रद्द करने के लिए अपने विशेष अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकती हैं.

मखीजा ने आगे कहा कि चूंकि पोक्सो के तहत अपराध ‘माफी-योग्य नहीं’ है, इसलिए हाई कोर्ट असाधारण परिस्थितियों में आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत निहित अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करती हैं.

उन्होंने कहा, ‘हर मामला अलग तरह का होता है और कोई भी फैसला उसकी खास तरह की परिस्थितियों और तथ्यों को ध्यान में रखकर सुनाया जाना चाहिए. पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने से जुड़े आपराधिक मामले में मुकदमों का स्तर अलग ही तरह का होता है. इनमें हाई कोर्ट के रिकॉर्ड में ऐसे तथ्य शामिल होते हैं जो स्पष्ट तौर पर यह दर्शाते हैं कि आपराधिक कार्यवाही का नतीजा अधिक अन्यायपूर्ण होगा और इस तरह के मामलों में प्राथमिकी रद्द करने का निर्णय ही बेहतर हो सकता है.’

हालांकि, ऐसे आदेश भी आए हैं जहां अदालतों ने उन पुरुषों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे को रद्द करने से इनकार कर दिया है जो नाबालिग लड़कियों के साथ सहमति से संबंध बनाते हैं और उनसे शादी भी करते हैं.


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क्या कहता है कानून

कानून की बात करें तो किसी नाबालिग की सहमति बेमानी है, यानी चाहे वह लड़की हो या लड़का माना यही जाता है कि वह इस प्रकार यौन कृत्यों के लिए ‘सहमति’ नहीं दे सकती/सकता है.

2013 में संसद ने ‘सहमति की उम्र’ को 16 से बढ़ाकर 18 करने के लिए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम की धारा 375 में संशोधन किया था. हालांकि, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 375 के अपवाद 2 ने ‘किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी— जो 15 वर्ष से अधिक आयु की हो— के साथ’ यौन संबंध बनाने को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था.

इसने एक विषम स्थिति पैदा कर दी जिसमें किसी बाल विवाह, जिसमें नाबालिग लड़की की उम्र 15 से 18 वर्ष के बीच थी, में यौन संबंध बनाने की वस्तुतः ‘अनुमति’ थी.

हालांकि, 2017 में इंडिपेंडेंट थॉट बनाम भारत संघ मामले में एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 375 को अपवाद 2 से अलग रखा और विवाह में भी सहमति की उम्र बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी थी.


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अन्य हाई कोर्ट ने ‘शादियों को कैसे बचाया’

सितंबर 2021 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने यह कहते हुए एक व्यक्ति को पोक्सो के तहत आरोपों से मुक्त कर दिया था कि ‘स्वैच्छिक यौन संबंध’ कानून के तहत अपराध नहीं हैं. कोर्ट ने माना कि ‘पेनेट्रेशन’ आरोपी का ‘एकतरफा कृत्य’ होने पर ही पोक्सो परिभाषा के तहत आता है, अगर यौन संबंध परस्पर सहमति से बनें तो केवल पुरुष को ही दोषी ठहराने की जरूरत नहीं है.

इस साल फरवरी में, दिल्ली हाई कोर्ट ने इसी तरह की एक प्राथमिकी इस आधार पर खारिज कर दी कि पति, पत्नी और बच्चे का जीवन ‘बर्बाद’ हो जाएगा. इसी तरह बॉम्बे हाई कोर्ट ने जून में आरोपी और पीड़िता के ‘भविष्य’ और ‘शांतिपूर्ण जीवन’ का ख्याल रखते हुए एक प्राथमिकी रद्द कर दी.

यही नहीं, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फरवरी में अपने एक फैसले में कहा कि पोक्सो का उद्देश्य ‘टीन रोमांस’ के मामलों में मुकदमा चलाने का नहीं है.

वरिष्ठ वकील गीता लूथरा मानती हैं कि दुनियाभर में चल रहे ट्रेंड्स को देखते हुए सहमति की उम्र को घटाने को लेकर कानून में बदलाव होने चाहिए.

दिप्रिंट से उन्होंने कहा, ‘जवान बच्चे जल्दी मैच्योर हो जाते हैं- सहमति की उम्र, बलात्कार की उम्र, ड्राइविंग की उम्र को दुनियाभर में घटाकर 16 कर दिया गया है. ये समय है कि हम अपने कानून विकल्पों पर फिर से विचार करें और समाज के बदलती जरूरतों के हिसाब से उसका आंकलन करें.’

उन्होंने कहा, ‘जब तक अपराध, अपराध बना रहेगा, लड़का और लड़की एक दूसरे से प्यार करते रहेंगे. कानून को ये देखना होगा कि उसे सहमति और भीषण मामलों में कैसे व्यवहार करना चाहिए.’


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आदेशों में विसंगति

हालांकि, ऐसे मामलों में अदालती आदेशों में काफी विसंगति भी सामने आई है और देशभर के हाई कोर्ट ने ऐसे मामलों में फैसला सुनाते समय एक-दूसरे से काफी अलग रुख अपनाया है.

इस साल के शुरू में सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह के एक मामले में आरोपी को जमानत देने के हाई कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया था.

जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस सूर्यकांत ने माना था कि जब ‘प्रथम दृष्टया’ ऐसा प्रतीत होता है कि पीड़िता अपराध के समय नाबालिग थी, तो ‘प्रेम संबंध’ के आधार पर जमानत देने का विचार अप्रासंगिक हो जाता है.

इसी तरह के तथ्यों और परिस्थितियों के साथ दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस अनूप मेंदीरत्ता ने एक मामले में फैसला सुनाया. उनके सामने सहमति से शारीरिक संबंध बनाए जाने का एक मामला था, जिसमें एक बच्चे का जन्म भी हो चुका था.

आरोपी को जमानत देने से इनकार करते हुए उन्होंने अपने फैसले में कहा कि नाबालिग की सहमति कानून के तहत ‘महत्वहीन और निर्रथक’ है. केवल शादी करने और संबंधों की वजह से गर्भावस्था से न तो आरोपी का अपराध कम हो जाता है और न ही इसे जायज ठहराया जा सकता है.

उन्होंने आगे कहा कि ‘नाबालिग की सहमति’ के दावे को सामान्य बात नहीं माना जा सकता क्योंकि बलात्कार केवल पीड़िता के खिलाफ अपराध नहीं होता बल्कि व्यापक स्तर पर समाज के खिलाफ भी एक अपराध है.

उन्होंने कहा, ‘18 साल से कम उम्र में लड़की की शादी हो जाने पर उसे कई प्रतिकूल चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.’

इसी तर्ज पर गुजरात हाई कोर्ट के एक फैसले में कहा गया है कि नाबालिग लड़की के साथ भागना एक अपराध है और बाद में शादी करने से पोक्सो कानून के तहत अपराध ‘खत्म’ नहीं हो जाता है.

अदालतों ने माना है कि पोक्सो के बारे में युवाओं में जागरूकता की कमी है, जिससे बच्चों का यौन शोषण रोकने के लिए लाए गए इस विशेष कानून के तहत मामले दर्ज होना बढ़ा है.

अपराध के बावजूद, सहमति से सहवास करने वाले युवाओं की बढ़ती संख्या से चिंतित, न्यायाधीशों ने नाबालिगों को कम उम्र की शादी के खतरों के प्रति आगाह करने और विशेष कानून के प्रावधानों के दुरुपयोग से बचने के लिए स्कूलों में नाबालिगों को शिक्षित करने पर जोर दिया है.

(अक्षत जैन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के छात्र हैं और दिप्रिंट में इंटर्न हैं)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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