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Thursday, 25 April, 2024
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सिविल सर्विसेज़ के इंटरव्यू में जातिगत उपनाम, धार्मिक प्रतीक उजागर नहीं करना चाहिए- रिपोर्ट

पिछले सात दशकों में अनुसूचित जातियों की उन्नति पर, रिपोर्ट तैयार करने का काम, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की ओर से दिया गया था.

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नई दिल्ली: सरकार द्वारा कमीशन की गई एक मसौदा रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि सिविल सेवाओं तथा दूसरी केंद्रीय अथवा राज्य-स्तरीय परीक्षाओं में उम्मीदवार के जाति उपनाम या उसकी धार्मिक या सामाजिक पृष्ठभूमि का विवरण नहीं दिया जाना चाहिए, चूंकि उससे भेदभाव की संभावना बढ़ जाती है.

रिपोर्ट में, जो दिप्रिंट ने देखी है, कहा गया है कि केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर, सिविल सेवाओं तथा दूसरी सेवाओं में खुली प्रतियोगिता के ज़रिए चुनाव की प्रक्रिया में, व्यक्तित्व परीक्षण/साक्षात्कार की स्टेज पर, भेदभाव की संभावना ज़्यादा रहती है.

पिछले सात दशकों में अनुसूचित जातियों की उन्नति पर, रिपोर्ट तैयार करने का काम, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की ओर से दिया गया था. दलितों के बीच व्यवसायिक उद्यमों को बढ़ावा देने वाली संस्था, दलित भारतीय वाणिज्य और उद्योग चैंबर (डीआईसीसीआई) ने ये रिपोर्ट तैयार करके, इसी महीने सरकार के हवाले की है.

इस रिपोर्ट में निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की पैरवी की गई, ताकि ‘समाज के उन्नत तबकों के बराबर, रोज़गार सुरक्षा मिल सके’.

डीआईसीसीआई के संस्थापक-अध्यक्ष मिलिंद कांबले ने दिप्रिंट से कहा कि उनकी टीम ने ‘एससी और एसटी के विकास पर शोध किया है और अपनी सिफारिशें दी हैं और आगे का रास्ता सुझाया है’.

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‘प्रथा हर दृष्टिकोण से अच्छी’

रिपोर्ट में कहा गया कि भेदभाव रोकने के लिए, उम्मीदवारों के नाम तथा अन्य निजी विवरण, जिसमें उत्तर-पुस्तिका पर धार्मिक प्रतीक शामिल हैं, पर लगे प्रतिबंध को विस्तार देकर, सभी भर्तियों में इंटरव्यू या व्यक्तित्व परीक्षण को, इसके दायरे में लाया जाना चाहिए.

‘ये प्रथा हर दृष्टिकोण से अच्छी है, चूंकि इससे उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में, किसी भी सामाजिक-धार्मिक भेदभाव की रोकथाम हो जाती है. सभी छोटी या बड़ी भर्तियों के साक्षात्कार/व्यक्तित्व परीक्षण, इस प्रथा के दायरे में लाए जाने चाहिए, चाहे वो यूपीएससी के ज़रिए हों, एसपीएससीज़ से हों या कोई दूसरे भर्ती बोर्ड्स से हों’.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘इसलिए ज़रूरी है कि विभिन्न चयन एजेंसियों के इंटरव्यू बोर्ड्स को उम्मीदवारों की सामाजिक और धार्मिक पृष्ठभूमि की जानकारी नहीं दी जानी चाहिए, जिससे निष्पक्ष मूल्यांकन सुनिश्चित किया जा सके और उन्हें केवल इंटरव्यू प्रदर्शन के आधार पर नंबर दिए जाएं. इससे सुनिश्चित होगा कि सरकारी नौकरियों के लिए, प्रतिस्पर्धा कर रही सभी श्रेणियों से निष्पक्षता के साथ योग्य उम्मीदवारों का चयन होगा’.

उसमें ये भी कहा गया कि केंद्रीय लोक सेवा आयोग, ‘उन उम्मीदवारों की धार्मिक और व्यापक सामाजिक श्रेणी का विवरण लेता है, जो विभिन्न सेवाओं/पदों के लिए अपने आवेदन भरते हैं’.

उसमें तर्क दिया गया, ‘ऐसी सीधी जानकारी के आभाव में, उम्मीदवारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अंदाज़ा, काफी हद तक उनके नामों से लगाया जाता है, जैसे नायर, अय्यर, आयंगर, नायडू, मेनन, बंधोपाध्याय, गुप्ता, चतुर्वेदी, पटेल, पांडा आदि’.


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‘सामाजिक न्याय मंत्रालय को अपना नज़रिया बदलना चाहिए’

दिप्रिंट से बात करते हुए कांबले ने कहा कि उन्होंने सरकार को कुछ प्रगतिशील सुझाव दिए हैं.

‘सामाजिक न्याय मंत्रालय को अपना नज़रिया बदलना चाहिए, चूंकि 1970 के दशक में बनाई गई नीतियों का नए आर्थिक सुधारों के साथ तालमेत बिठाने की ज़रूरत है’.

उन्होंने आगे कहा, ‘हमें डैशबोर्ड जैसा कोई मज़बूत रिपोर्टिंग सिस्टम बनाने की ज़रूरत है, ताकि स्कीमों की प्रभावी ढंग से निगरानी की जा सके. एक मज़बूत विजिलेंस सिस्टम बनाने की ज़रूरत है, ताकि कोई भी व्यक्ति, विशेष घटक आयोजन और आदिवासी उप-योजना के ज़रिए, आवंटित धनराशि का दुरुपयोग न कर सके. हर वर्ष का आवंटन, या तो उपयोग होना चाहिए, या उसे आगे बढ़ा दिया जाना चाहिए. उसे समाप्त नहीं करना चाहिए, और ना ही दूसरे काम में लगाया जाना चाहिए’.

उन्होंने कहा, ‘हर साल एक अच्छा बजटीय आवंटन होता है. होता ये है कि कि एक अवधारणा बन जाती है कि एससी/एसटी कल्याण के लिए इतना कुछ हो रहा है. लेकिन अंतिम तालिका में बहुत कम का उपयोग होता है. इस तरह एक गलत अवधारणा बन जाती है. उससे बचने के लिए एक मज़बूत निगरानी प्रणाली बनाने की ज़रूरत है’.

‘SCs के बीच कोई क्रीमी लेयर नहीं’

रिपोर्ट में इस पर भी रोशनी डाली गई कि ‘अनुसूचित जातियों के बीच कोई क्रीमी लेयर नहीं है’.

रिपोर्ट में कहा गया कि सार्वजनिक क्षेत्र में, अनुसूचित जाति के ‘ग्रुप-ए’ और ‘ग्रुप-बी’ श्रेणियों में, लगभग 3,38,606 रोज़गार हैं.

इसमें कहा गया है, ‘विधायिकाओं में उनका कुल प्रतिनिधित्व, करीब 1,000 व्यक्तियों का है. ये अनुसूचित जातियों की क्रीमी लेयर है. 20 करोड़ से अधिक की आबादी में, ये संख्या बहुत मामूली है’.

इसमें आगे ये भी कहा गया है कि क्रीमी लेयर की अवधारणा एक आर्थिक पहलू है, जो ‘सामाजिक समस्या के अंदर बेमेल तरीके से पैदा हो गई है’.

‘सेवाओं के अंदर आरक्षण की असली समस्या है, इसके प्रतिनिधि चरित्र को बनाए रखना और उसे सीधा रखना, लेकिन साथ ही इसे बेरोज़गारी और उन्मूलन के, सीधे समाधान को तौर पर न देखना’.

उसमें कहा गया है, ‘रोज़गार और गरीबी का समाधान, भूमि और व्यवसायिक उद्यमों में समावेशी संस्थागत परिवर्तनों के ज़रिए किया जाना है लेकिन इसके लिए आरक्षण और प्रतिनिधित्व के सिस्टम से छेड़छाड़ करने की ज़रूरत नहीं है’.

उसमें आगे कहा गया, ‘समुदाय की तात्कालिक ज़रूरत अदृश्य क्रीमी लेयर को फिल्टर नहीं बल्कि उनकी बौद्धिक पूंजी को बनाना है, जो विश्वविद्यालयों, न्यायपालिकाओं, पत्रकारिता, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान और संगठित निजी क्षेत्र में, टीचर के पदों में रिक्तियों को भर सके’.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि जाति से बाहर शादी करने वाले जोड़ों को सरकार की ओर से दिया जा रहा प्रोत्साहन, न तो उचित है न पर्याप्त है.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘बहुत सी अंतर्जातीय शादियां, दोनों पक्षों के मां-बाप की वित्तीय सहायता गंवाने, रूढ़िवादी सामाजिक प्रतिरोध के डर से, प्रस्ताव के स्तर पर ही रद्द हो जाती हैं. इसलिए वित्तीय प्रोत्साहन के साथ, एक पूरी कानूनी सहायता प्रणाली और उचित आर्थिक कार्यक्रम भी होने चाहिए’.

रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि एससी के लिए आरक्षित रिक्तियों को एक विशेष भर्ती अभियान के ज़रिए भरा जाना चाहिए.

उसमें आगे कहा गया, ‘चूंकि अनुसूचित जातियों में कोई क्रीमी लेयर नहीं है, इसलिए एससी के बीच किसी और मंशा से, अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण, तथा क्रीमी लेयर बनाने जैसे विचार नहीं घुसाने चाहिए’.

रिपोर्ट में सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के, कंज़्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे (सीपीएचएस) डेटाबेस का भी हवाला दिया गया है. उसने बताया कि अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अश्विनी देशपांडे, और जर्मनी की हेडलबर्ग यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर राजेश रामचंद्रन ने इस डेटा का विश्लेषण किया है.

उनके नतीजों में कहा गया कि अनुसूचित जातियां ‘सबसे अंत में हायर की जाती हैं और सबसे पहले हटाई जाती हैं’.

‘महामारी के दौरान सभी सामाजिक समूहों के बीच, अनुसूचित जातियां सबसे बुरी तरह प्रभावित थीं, जिसके बाद अनुसूचित जनजातियों और ओबीसीज़ का इसी क्रम में नंबर था. जहां ऊंची जातियों में रोज़गार का नुकसान 7 प्रतिशत था, वहीं एससी के लिए ये 20 प्रतिशत, एसटी के लिए 15 प्रतिशत, और ओबीसी के लिए 14 प्रतिशत था’.

‘अगर निजी क्षेत्र के रोज़गार में आरक्षण की व्यवस्था लागू होती, तो इस तरह का अंतर प्रभाव, शायद कम हो सकता था, हालांकि इससे पूरी तरह बचा नहीं जा सकता था. यही कारण है कि पिछड़े वर्ग, निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं’.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘इससे काफी स्पष्ट हो जाता है कि आरक्षण सिर्फ रोज़गार का एक साधन ही नहीं है. इसका मकसद है कि बिना किसी पक्षपात के उन्नत वर्गों के बराबर ही रोज़गार सुरक्षा दी जाए, चूंकि ये पक्षपात इन वर्गों की ज़िंदगियां तबाह करता चला आ रहा है. ये एक तरीका है जिसमें योग्यता को पहचाना जाता है लेकिन जिसमें अक्षमता के लिए कोई जगह नहीं होती’.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि सरकार को राष्ट्रीय और स्थानीय दलित मीडिया चौनलों को प्रायोजित करने पर विचार करना चाहिए, चूंकि सख्त ज़रूरत है कि निष्पक्ष मीडिया चैनलों के ज़रिए समाज को एससी की समस्याओं से अवगत कराया जाए.

इसमें श्रम कानूनों की तरह, एक विशेष कानून बनाने की भी बात की गई, जो ‘एससी रोज़गार की अत्याधिक असुरक्षा को देखते हुए’, निजी क्षेत्र में उनकी नौकरियों और रोज़गार सुरक्षा को नियमित कर सके.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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