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Sunday, 3 November, 2024
होमदेशअध्ययन में दावा-1990-2019 के बीच दुनिया की 1% आबादी के कारण 23% कार्बन उत्सर्जन बढ़ा

अध्ययन में दावा-1990-2019 के बीच दुनिया की 1% आबादी के कारण 23% कार्बन उत्सर्जन बढ़ा

नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के शोधकर्ता के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि देशों के भीतर अमीर और गरीब के बीच कार्बन असमानता काफी बढ़ गई है.

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नई दिल्ली: कार्बन फुटप्रिंट अनुमान और आय असमानता के विश्लेषण पर आधारित एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि 2019 में 48 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए दुनिया की सिर्फ 10 फीसदी आबादी जिम्मेदार थी. इसके अलावा, अध्ययन में यह भी कहा गया है कि 1990 से 2019 के बीच कार्बन उत्सर्जन में लगभग एक चौथाई वृद्धि के लिए उत्सर्जकों के शीर्ष तबके में शुमार करीब एक फीसदी आबादी जिम्मेदार थी, जबकि सबसे कम उत्सर्जन करने वाली आधी आबादी महज 16 प्रतिशत वृद्धि का कारण बनी.

पिछले हफ्ते नेचर सस्टेनेबिलिटी पत्रिका में ‘ग्लोबल कार्बन इनइक्वलिटी ओवर 1990-2019’ शीर्षक से प्रकाशित यह पेपर पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब के फ्रांसीसी अर्थशास्त्री लुकास चांसल ने तैयार किया है.

ग्राफिक: रमनदीप कौर

उच्च प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को ज्यादा मात्रा में धन-संपदा से जोड़ा गया है. विश्व असमानता डेटाबेस में शामिल आय/धन असमानता के आंकड़ों को ग्रीनहाउस गैस फुटप्रिंट्स मॉडल के साथ मिलाकर आकलन करने से पता चलता है कि सभी मनुष्य जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं लेकिन वे ऐसा समान रूप से नहीं करते.

अध्ययन के मुताबिक ‘पर्सनल कार्बन फुटप्रिंट’ प्रत्यक्ष और परोक्ष घरेलू खपत और वित्तीय निवेश के साथ-साथ सरकारी खर्च से होने वाले उत्सर्जन में शामिल है. इसमें पाया गया कि ‘दुनिया की 1% शीर्ष आबादी की तरफ से उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा उनके उपभोग के बजाये उनके निवेश का नतीजा होता है.’

चांसल ने जलवायु पर केंद्रित वेबसाइट कार्बन ब्रीफ को बताया, ‘लोग कार्बन का उपभोग कर सकते हैं लेकिन वे कार्बन उत्पादित करने वाली फर्मों के मालिक (और निवेश करने वाले) भी हो सकते हैं.’ साथ ही जोड़ा कि पेपर ‘एक ऐसा तरीका प्रस्तावित कर रहा है जो हमारे कार्बन फुटप्रिंट के इन तमाम फैक्टर को एक साथ जोड़ सकता है.’

ग्राफिक: रमनदीप कौर

हालांकि, जब दिप्रिंट ने चांसल से उत्सर्जन में निवेश की भूमिका के बारे में सवाल किया तो उन्होंने सावधानी बरतने की सलाह देते हुए कहा, ‘मैं इस पर जोर देता हूं कि सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध डेटा के अभाव को देखते हुए इस मामले में आंकड़ों की व्याख्या काफी सावधानी के साथ करनी चाहिए और ऐसा इसलिए भी किया जाना चाहिए क्योंकि लोग कार्बन फुटप्रिंट्स को मापने के लिए अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल करना चाहते हैं.’

अध्ययन की एक अन्य महत्वपूर्ण खोज यह भी है कि 1990 के दशक में कार्बन असमानता मुख्यत: देशों के बीच अंतर पर केंद्रित थी, जहां ‘एक अमीर देश का नागरिक औसतन दुनिया के बाकी हिस्सों के नागरिकों की तुलना में असमान रूप से अधिक प्रदूषण के लिए जिम्मेदार था.’ लेकिन पिछले कुछ दशकों में स्थिति बदल गई है.

अध्ययन में कहा गया है, ‘देशों के अंदर उत्सर्जन असमानताएं ही अब लगभग दो-तिहाई वैश्विक उत्सर्जन असमानता के लिए जिम्मेदार हैं. कार्बन उत्सर्जन मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असमानता तो काफी व्यापक है ही, विभिन्न देशों के भीतर व्यक्तियों के बीच उत्सर्जन असमानताएं भी बहुत ज्यादा हैं.’

2019 में औसत वैश्विक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 6 टन कार्बन-डाइऑक्साइड इक्वीवलेंट (टीसीओ2ई) तक पहुंच गया था. ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की गणना के लिए ‘कार्बन-डाइऑक्साइड-इक्वीवलेंट’ एक मानक इकाई है.

हालांकि, मध्य शताब्दी तक ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए, जैसी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने सलाह दी है, प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को अब से 2050 के बीच 1.9 टन करने और उसके बाद शून्य पर पहुंचाने की जरूरत है.

पेपर कहता है कि वार्षिक स्तर पर 1.9 टन की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर ‘लंदन और न्यूयॉर्क के बीच इकोनॉमी-क्लास फ्लाइट की एक राउंड-ट्रिप के बराबर है.’

वैज्ञानिकों ने चेताया है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाती है तो जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव ऐसे होंगे जिन्हें फिर बदला नहीं जा सकेगा.


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देशों के बीच और देशों के अंदर कितनी कार्बन असमानता

पेपर में निजी खपत, निवेश और सरकारी खर्च के कारण ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की गणना की गई है.

इसके निष्कर्ष उत्सर्जन की ऐतिहासिक स्थिति (औद्योगिक क्रांति के बाद से उत्सर्जन) पर आधारित नहीं हैं, बल्कि पिछले तीन दशकों की स्थिति पर केंद्रित हैं यानी 1990—जब आईपीसीसी की पहली रिपोर्ट सामने आई थी—से लेकर कोविड-19 महामारी से ठीक पहले तक. पेपर कहता है, इन वर्षों में ‘विश्व आर्थिक विकास का वितरण महत्वपूर्ण बदलावों वाला रहा है, और इसका ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन असमानता के लिहाज से व्यवस्थित ढंग से अध्ययन भी नहीं किया गया है.’

यद्यपि इतिहास पर नजर डालें तो उत्तरी अमेरिका और यूरोप आज ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने वाले सबसे बड़े ग्रीन हाउस उत्सर्जकों में शामिल हैं, लेकिन साथ ही क्षेत्रों के भीतर औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में भी अधिक असमानताएं सामने आई हैं.

पेपर कहता है, ‘1990 की स्थिति के विपरीत व्यक्तिगत उत्सर्जन में वैश्विक असमानता का 63 प्रतिशत अब देशों के बजाय देशों के भीतर कम और उच्च उत्सर्जक के बीच अंतर के कारण है.’

जैसा कि अध्ययन में पाया गया, पूर्वी एशिया में सबसे गरीब 50 प्रतिशत लोग औसतन 2.9 टन प्रति वर्ष उत्सर्जन करते हैं, जबकि मध्यम स्तर वाले 40 प्रतिशत लगभग 8 टन और शीर्ष 10 प्रतिशत लगभग 40 टन कार्बन उत्सर्जित करते हैं.

उत्तरी अमेरिका में निचले स्तर के 50 प्रतिशत लोग 10 टन से कम, मध्यम स्तर वाला 40 प्रतिशत तबका लगभग 22 टन और शीर्ष 10 प्रतिशत लोग लगभग 69 टन का उत्सर्जन करते हैं.

अध्ययन में कहा गया है कि अन्य क्षेत्रों की तुलना में दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में ‘उल्लेखनीय रूप से कम’ उत्सर्जन होता है, जहां निचले दर्जे के 50 फीसदी के बीच कार्बन उत्सर्जन लगभग 1 टन और शीर्ष 10 प्रतिशत के बीच औसतन 11 टन है.

पेपर कहता है कि भारत में निचले 90 प्रतिशत तबके का उत्सर्जन ‘लक्ष्य से नीचे’ है, हालांकि सबसे धनी 10 प्रतिशत लोग ‘पहले ही इससे काफी ज्यादा उत्सर्जन कर रहे हैं.’

पेपर में कहा गया है कि भारत में सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी को पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुरूप अपने उत्सर्जन में 50 प्रतिशत की कमी लानी होगी.

ज्यादा उत्सर्जन करने वालों पर लगाम कसने की जरूरत

चांसल की परिकल्पना है कि उत्तरी अमेरिका और यूरोप में जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित राष्ट्रीय नीतियों ने राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति उत्सर्जन घटाया तो है लेकिन ऐसा असमान रूप से हुआ है. उनके विश्लेषण के मुताबिक, 1990 से 2019 के बीच यूरोप और अमेरिका में सबसे गरीब 50 फीसदी आबादी के उत्सर्जन में 25-30 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि शीर्ष 10 प्रतिशत उत्सर्जक अपेक्षाकृत अप्रभावित रहा. या फिर उसके उत्सर्जन में वृद्धि ही हुई है.

पेपर में सुझाया गया है, ‘निवेश में कार्बन कंटेंट के विशिष्ट मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करने पर ऐसा लगता है कि प्रोग्रेसिव कार्बन टैक्स सिस्टम डीकार्बोनाइजेशन में तेजी लाने में मददगार हो सकता है.’

इसमें आगे कहा गया है कि एक विकल्प उत्सर्जन स्तर बढ़ने के साथ कार्बन टैक्स दरों में वृद्धि करना भी हो सकता है. पेपर के मुताबिक, ‘इसे संभवत: टैक्स इंस्ट्रूमेंट, उपभोक्ताओं के साथ-साथ कार्बन-केंद्रित गतिविधियों में निवेशकों पर फोकस करते हुए हासिल किया जा सकता है.’

यह पेपर कॉप-27 सम्मेलन से पहले आया है, जिसमें जलवायु परिवर्तन की गति धीमी करने के तरीकों पर बातचीत वैश्विक कार्बन असमानताओं पर केंद्रित होने की संभावना है. कॉप सम्मेलन 6-18 नवंबर के बीच मिस्र के शर्म अल शेख में होना है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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