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Wednesday, 8 May, 2024
होमदेशक्या कोई तीसरा पक्ष बिलकिस बानो मामले में दोषियों की रिहाई को चुनौती दे सकता है? SC ने सुनी दलीलें

क्या कोई तीसरा पक्ष बिलकिस बानो मामले में दोषियों की रिहाई को चुनौती दे सकता है? SC ने सुनी दलीलें

जिन याचिकाकर्ताओं ने सजा माफी को चुनौती दी है उनमें सीपीआई (एम) नेता सुभाषिनी अली और टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा शामिल हैं. दोषियों के वकीलों का कहना है कि 'आपराधिक मामलों' में तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जा सकती.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को इस बात को लेकर बहस करने पर विचार किया कि क्या 2002 के गुजरात दंगों में बिलकिस बानो के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले में 11 दोषियों की समय से पहले रिहाई को तीसरे पक्ष द्वारा चुनौती दी जा सकती है.

बिलकिस बानो के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के दोषियों को पिछले साल अगस्त में रिहा कर दिया गया था, जब गुजरात सरकार के एक पैनल ने उनकी उम्रकैद की सजा में छूट के उनके आवेदन को मंजूरी दे दी थी.

अदालत सीपीआई (एम) नेता सुभाषिनी अली, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, प्रोफेसर रूपलेखा वर्मा, पत्रकार रेवती लौल, पूर्व आईपीएस अधिकारी मीरान चड्ढा बोरवंकर और नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन सहित कई याचिकाकर्ताओं द्वारा गुजरात सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है.

बिलकिस बानो ने भी सजा माफी के आदेश को पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. उन्होंने शीर्ष अदालत के 13 मई 2022 के फैसले को भी चुनौती दी है, जिसमें गुजरात सरकार को कैदियों की छूट और समय से पहले रिहाई की 1992 की नीति (जो सजा के समय प्रभावी थी) के आधार पर दोषियों की रिहाई पर विचार करने के लिए कहा गया था.

दोषियों के वकीलों ने विशेष रूप से इन जनहित याचिकाओं पर अदालत द्वारा विचार करने को लेकर आपत्ति जताई है. उन्होंने यह तर्क दिया कि कोई तीसरा पक्ष आपराधिक कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है.

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मामले की सुनवाई बुधवार को न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां ने की.

सुनवाई के दौरान अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एस.वी. राजू ने कहा कि माफी “सजा में कमी के अलावा कुछ नहीं” है. इसके बाद उन्होंने कहा, “किसी वाक्य पर जनहित याचिका नहीं हो सकती.”

जवाब में, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि यह एक “प्रशासनिक आदेश” था. हालांकि, राजू ने इसपर भी पलटवार करते हुए कहा, “लेकिन माफ़ी सज़ा में कमी है. जहां तक सज़ा की बात है, कोई तीसरा पक्ष कभी भी अपनी बात नहीं कह सकता.”

उन्होंने अदालत को बताया कि उनकी दलीलें जनहित याचिकाओं की आड़ में आपराधिक मामलों में किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दिए जाने, जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग और जनहित याचिका याचिकाकर्ताओं के “एक इंटरलोअर और एक व्यस्त व्यक्ति के अलावा कुछ नहीं” होने के इर्द-गिर्द घूमती हैं.

दोषियों में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा ने भी इसी तरह की दलीलें दीं.

उन्होंने ऐसी कार्यवाहियों में भाग लेने के पीड़ितों के अधिकारों पर कई निर्णयों का हवाला दिया और कहा कि आपराधिक कार्यवाही में भाग लेने का पीड़ितों का अधिकार क़ानून द्वारा नियंत्रित है.

लूथरा ने भी कहा कि आपराधिक मामलों में किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है.

उन्होंने कहा कि किसी भी आपराधिक कार्यवाही या किसी भी आपराधिक कार्यवाही से उत्पन्न दूसरी कार्रवाई के मामले में कोई तीसरा पक्ष हस्तक्षेप नहीं कर सकता.

सुनवाई गुरुवार को भी जारी रहेगी.

‘बाढ़ आ जाएगी’

दोषियों में से एक की ओर से बहस करते हुए वकील ऋषि मल्होत्रा ​​ने मामले में तीसरे पक्ष द्वारा दायर जनहित याचिकाओं पर भी आपत्ति जताई. उन्होंने यह भी कहा कि कई लोगों द्वारा अपनी सजा की सजा को चुनौती देने वाली मनोरंजक जनहित याचिकाएं एक “पेंडोरा बॉक्स” खोलेंगी और एक खतरनाक मिसाल कायम करेंगी.

हालांकि, जवाब में, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, “दोषी ठहराए जाने और सजा को कोई चुनौती नहीं है. यहां वे दोषियों को छोड़ने को लेकर दिए गए प्रशासनिक आदेश को चुनौती दे रहे हैं. यह सच है कि दोषसिद्धि को किसी तीसरे पक्ष द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती. लेकिन यह मामला अलग है. हम प्रशासनिक कानून के दायरे में हैं.”

जब मल्होत्रा ​​ने कहा कि ये जनहित याचिकाएं सार्वजनिक अधिकारों के उल्लंघन नहीं करती है, तो न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि जनहित याचिकाएं याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से नहीं निपटती हैं.

उन्होंने कहा, “यह सार्वजनिक हित में है, निजी हित में नहीं.”

उन्होंने आगे कहा, “आखिरकार, यह कोई आपराधिक मामला नहीं है. यह एक प्रशासनिक आदेश है. प्रशासनिक आदेश को कौन चुनौती दे सकता है, आप उस परीक्षण को लागू करें.”

जस्टिस नागरत्ना ने एक उदाहरण भी दिया, “एक निजी कंपनी को सरकार द्वारा एक उद्योग के लिए लाइसेंस दिया जाता है. अगर कंपनी की वजह से कुछ ग्रामीणों की भूमि प्रभावित होगी या बाढ़ के कारण डूब जायेगी. अब अगर गांव वाले नहीं, बल्कि कोई अन्य व्यक्ति चुनौती दे तो क्या यह कहकर उसे बाहर कर दिया जाएगा कि जब बात पर्यावरण की हो तो आपके निजी हित प्रभावित नहीं होंगे?”


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सजा का आदेश

बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसके परिवार के कई सदस्यों को गुजरात के रंधिकपुर गांव में भीड़ ने मार डाला, जब वे मार्च 2002 में गोधरा के बाद हुए दंगों से भाग रहे थे. उनकी तीन वर्षीय बेटी सालेहा का सिर पत्थर से कुचल दिया गया था. बानो उस समय 19 साल की थी और पांच महीने की गर्भवती थी.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मामले की जांच सीबीआई द्वारा की गई थी.

2008 में, मुंबई की एक ट्रायल कोर्ट- जिसे बानो के एक आवेदन पर 2004 में गुजरात के बाहर ट्रांसफर कर दिया गया था- ने 13 आरोपियों को दोषी ठहराया था और उनमें से 11 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.

मई 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा था. अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को बानो को 50 लाख रुपये मुआवजा, नौकरी और आवास देने का भी आदेश दिया था.

दोषियों को छोड़ा कैसे गया

दोषियों में से एक, राधेश्याम भगवानदास शाह उर्फ ​​लाला वकील ने पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें गुजरात सरकार को समय से पहले रिहाई के उनके आवेदन पर विचार करने का निर्देश देने की मांग की गई थी. उन्होंने बताया कि 1 अप्रैल 2022 तक वह पहले ही 15 साल और 4 महीने जेल में बिता चुके थे.

जवाब में, गुजरात सरकार ने अदालत को बताया कि चूंकि इस मामले की सुनवाई महाराष्ट्र में हुई थी, इसलिए समय से पहले रिहाई के लिए उनकी याचिका महाराष्ट्र सरकार के समक्ष दायर की जानी चाहिए. हालांकि, पिछले साल 13 मई को पारित एक फैसले में, न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने फैसला सुनाया कि अपराध गुजरात में किया गया था और चूंकि, मुकदमा गुजरात में किया गया था, तो यह गुजरात सरकार का काम है कि दोषियों के आवेदन पर विचार करे.

अदालत ने यह भी बताया कि दोषियों के आवेदन पर राज्य सरकार की 1992 की कैदियों की माफी और समय से पहले रिहाई की नीति के तहत विचार किया जाएगा. ऐसा इसलिए था क्योंकि सजा की तारीख पर यही नीति प्रभावी थी, न कि 2014 में जारी संशोधित संस्करण के तहत.

इसके बाद इसने गुजरात सरकार को लागू छूट नीति के चलते दो महीने की अवधि के भीतर समय से पहले रिहाई के लिए शाह के आवेदन पर विचार करने का निर्देश दिया.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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