नई दिल्ली: च्यवनप्राश से लेकर होम्योपैथिक दवाओं के संयोजन तक भारत में कोविड-19 के लिए वैक्सीन और उपचार की खोज में असामान्य परीक्षणों की एक बड़ी संख्या देखने को मिल रही है.
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के क्लिनिकल रजिस्ट्री ट्रायल ऑफ इंडिया के अनुसार कोविड-19 से संबंधित 63 अध्ययन क्लीनिकल परीक्षण चरण में हैं.
इस सूची में मलेरिया रोधी दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन, प्रायोगिक एंटीवायरल ड्रग रेमेडिसविर और एचआईवी रोधी दवाओं लोपिनवीर और रिटोनाविर पर अध्ययन शामिल थे.
इन 68 परीक्षणों में से 15 कोविड-19 के लिए निवारक और उपचारात्मक उपचार के रूप में आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक दवाएं हैं. उनमें से कुछ ऐसे हैं जो आपको चौंका देंगे.
क्या च्यवनप्राश कोरोना को रोक सकता है?
इस सवाल का जवाब डाबर को मिलने की उम्मीद है.
च्यवनप्राश आयुर्वेदिक मिश्रण है, इसका कोरोना के लिए एक निवारक उपचार के रूप में परीक्षण किया जा रहा है. च्यवनप्राश चीनी, शहद और विभिन्न जड़ी बूटियों और मसालों का बना हुआ आयुर्वेदिक मिश्रण है.
‘कोरोना महामारी में एक निवारक उपाय के रूप में डाबर च्यवनप्राश’ पर क्लीनिकल अध्ययन शीर्षक के माध्यम से राजस्थान के जयपुर में राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान द्वारा संचालित किया जा रहा है और इसे एफएमसीजी की दिग्गज डाबर द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है.
इस अध्ययन में 600 प्रतिभागी शामिल हैं, जिन्हें दो समूहों में विभाजित किया गया. जबकि एक समूह को 45 दिनों में 500 ग्राम च्यवनप्राश लेने के लिए कहा गया था, दूसरे- एक नियंत्रण समूह को 90 दिनों के लिए एक कप दूध पीने के लिए कहा गया था.
अध्ययन से पता चला है, ‘च्यवनप्राश लेने वालों में कोरोना की घटनाओं और अन्य संक्रमणों का तुलनात्मक मूल्यांकन इसे 3 महीने (90 दिनों) तक नहीं लेने वालों के साथ किया जाएगा.’
डाबर के चिकित्सा मामलों के प्रमुख डॉ अरुण गुप्ता के अनुसार, च्यवनप्राश पर पिछले अध्ययनों ने कुछ बीमारियों को रोकने की अपनी क्षमता साबित की है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘आयुष अधिकारियों (आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा मंत्रालय, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) ने सुझाव दिया है कि च्यवनप्राश को स्वस्थ लोगों को दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें कुछ लाभ हो सकें. इसलिए हम वैज्ञानिक रूप से देखना चाहते हैं कि क्या वास्तव में कुछ लाभदायक है या नहीं.
हालांकि, चूंकि यह स्वस्थ प्रतिभागियों के यादृच्छिक चयन पर आयोजित किया जा रहा है, इसलिए लगता है कि च्यवनप्राश निवारक कारक है या नहीं, यह कोई औसत दर्जे का तरीका है. जब अध्ययन के मुख्य अन्वेषक, डॉ पवन कुमार गुप्ता से यह पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि कोविड-19 की रोकथाम एक ‘अलग परिणाम’ है.
उन्होंने कहा, ‘हम हजारों वर्षों से कह रहे हैं कि यह (च्यवनप्राश) प्रतिरक्षा बढ़ाता है. यह कम से कम फ्लू जैसी बीमारियों को तो रोकता ही है. इसलिए अगर उन्हें (प्रतिभागियों को) मौसमी सर्दी या खांसी नहीं होती है, तो हम इसे अच्छा मानेंगे और यह सबूत होगा.
उपचार के लिए सांस लेने के फायदे
पुदुचेरी में जवाहरलाल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्टग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (जिपमर) के शोधकर्ता ‘कोविड-19 महामारी के दौरान स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के मनोवैज्ञानिक कल्याण पर प्राणायाम और ध्यान के प्रभाव’ का परीक्षण कर रहे हैं.
अध्ययन के सारांश के अनुसार यह उम्मीद की जाती है कि इन पारंपरिक तकनीकों से मनोवैज्ञानिक संकट कम हो सकता है और इसका सामना करने के कौशल में वृद्धि हो सकती है.
200 प्रतिभागियों को दो समूहों में विभाजित किया गया है. जबकि एक समूह को हर दिन कुछ मिनटों के लिए नाड़ी शोधन प्राणायाम और पंचकोषा अभ्यास करने के लिए कहा जाता है, नियंत्रित निरिक्षण समूह को ऐसा करने के लिए नहीं कहा जा रहा है.
अध्ययन सारांश यह भी कहता है, ‘दो सप्ताह की अवधि के अंत में प्रतिभागियों को एक ऑनलाइन प्रश्नावली का जवाब देने के लिए कहा जाएगा जो उनके मनोवैज्ञानिक मापदंडों, नींद की गुणवत्ता और बीमारी से लड़ने की क्षमताओं का आकलन करेगा.’
होम्योपैथिक दृष्टिकोण
आगरा में नेमिनाथ होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज होम्योपैथिक दवाओं के प्रभावों का परीक्षण करने के लिए तीन अध्ययनों पर काम कर रहा है- आर्सेनिक एल्बम, ब्रायोनिया अल्बा, जेल्सीमियम, एंटीमोनियम टार्टारियम, क्रोटेलस हॉरिडस.
जबकि कोरोना रोगियों में से दो अध्ययनों में मानक दवाओं के साथ उपचार किया जा रहा है, तीसरे अध्ययन में संदिग्ध कोरोना रोगियों को शामिल किया गया है, जिनका बस अकेले होम्योपैथी चिकित्सा से उपचार किया जा रहा है.
संदिग्ध रोगियों और स्वास्थ्य कर्मियों के अध्ययन में शामिल प्रमुख अन्वेषक डॉ रितु गुप्ता ने कहा, ‘इन दवाओं का परीक्षण किया गया है और स्वस्थ मनुष्यों पर पहले से ही साबित कर दिया गया है और यह (प्रतिभागियों पर) उनके लक्षणों का मिलान करके प्रशासित किया जा रहा है परिणाम सकारात्मक रहे हैं.’
पिछले महीने, कोरोना के खिलाफ रोगनिरोधी या निवारक दवा के रूप में आर्सेनिक एल्बम -30 की सिफारिश करने के लिए आयुष मंत्रालय की आलोचना की गई थी. होम्योपैथी, एक वैकल्पिक उपचार जिसे 1796 में सैमुअल हैनिमैन नामक जर्मन चिकित्सक द्वारा विकसित किया गया था, एक विवादास्पद उपचार है. दुनिया भर के स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने अक्सर होम्योपैथी के प्रति संदेह व्यक्त किया है और ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने होम्योपैथी के क्षेत्र में अनुसंधान को रोक दिया है.
ग्रे जोन
भारत की सर्वोच्च चिकित्सा अनुसंधान संस्था आईसीएमआर के दिशानिर्देशों के अनुसार, मानव प्रतिभागियों को शामिल करने वाले सभी बायोमेडिकल अनुसंधान को केंद्रीय ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन के साथ पंजीकृत एक नैतिक समिति द्वारा अनुमोदित किया जाना है. ये समितियां देशभर के अधिकांश संस्थानों में मौजूद हैं.
मनिपाल के कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज से जुड़े वैश्विक स्वास्थ्य, जैव-चिकित्सा और स्वास्थ्य नीति के शोधकर्ता डॉ अनंत भान ने कहा कि जब ऐसे उपचारों की समीक्षा करने की बात आती है, हमेशा ‘ग्रे ज़ोन’ होता है क्योंकि आयुष चिकित्सकों को समर्थन नहीं मिलता है, उनका कहना होता है कि प्रक्रिया अलग होनी चाहिए. उन्होंने कहा, ‘लेकिन, यदि आप मानव स्वास्थ्य में इसका उपयोग करने जा रहे हैं, तो आपको कुछ मानकों के माध्यम से उन्हें स्थापित करने की आवश्यकता है. अब आयुष चिकित्सा पद्धति हो गई है, जो मानक प्रोटोकॉल के अनुसार क्लीनिकल परीक्षण डिजाइन का प्रयास कर रही है. लेकिन, कुछ मतभेद हो सकते हैं क्योंकि आयुष चिकित्सा एक अलग तरीके से काम करती है और उनकी अपनी धारणा है’.
विशेषज्ञों ने देश में सीमित शोध पर चिंता व्यक्त की थी. सीटीआरआई के आंकड़ों के मुताबिक, कोविड-19 के क्लीनिकल परीक्षणों की संख्या में 15 अप्रैल के बाद ही उछाल आया था. इस बीच, अमेरिका में महामारी से संबंधित 1,409 अध्ययनों का परीक्षण अभी चल रहा है.
6 मई को आईसीएमआर ने महामारी के दौरान अनुसंधान के लिए नैतिक समीक्षा प्रक्रिया को तेजी से ट्रैक करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए. प्रस्तावना के प्रीफेस में कहा गया है कि इस कोरोना महामारी की स्थिति में चुनौतियों से निपटने के लिए चल रहे शोधों को आगे के चरण में ले जाना होगा.
भान ने कहा, ‘हम जो देखने जा रहे हैं वहां बहुत सारे शोध हो रहे हैं – गुणवत्ता औसत दर्जे की हो सकती है और हमें जो चाहिए वह उच्च गुणवत्ता वाला शोध होना चाहिए.’
भान ने कहा कि हम जो भी नीतिगत निर्णय लेते हैं, उन्हें आदर्श रूप से गुणवत्ता के सबूतों के आधार पर लेना चाहिए.
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