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गुरूवार, 15 मई, 2025
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क्या राज्य के बिल को मंजूर करने के लिए समय-सीमा अदालत तय कर सकती है? राष्ट्रपति ने SC से किए 14 सवाल

राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए सवाल में 8 अप्रैल के उस फैसले पर सवाल उठाया गया है, जिसमें राज्यपाल और राष्ट्रपति को राज्य विधानसभा से पास हुए विधेयकों पर तय समय के अंदर फैसला लेने को कहा गया था.

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नई दिल्ली: 8 अप्रैल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से परेशान केंद्र सरकार ने, जिसमें राज्यपालों और भारत के राष्ट्रपति को राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय सीमा तय की गई थी, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के जरिए शीर्ष अदालत से यह जानना चाहा है कि क्या ऐसी समय-सीमाएं न्यायिक रूप से तय की जा सकती हैं.

संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए एक राष्ट्रपतिीय संदर्भ में, राष्ट्रपति मुर्मू ने अदालत से यह स्पष्ट करने को कहा है कि क्या यह फैसला “न्यायिक हस्तक्षेप” के अंतर्गत आएगा, खासकर जब संविधान इस विषय पर चुप है.

राष्ट्रपति ने यह जानना चाहा है: “क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायिक समीक्षा के योग्य है? जब संविधान में समय-सीमा तय नहीं की गई है और राष्ट्रपति द्वारा शक्ति के प्रयोग की प्रक्रिया स्पष्ट नहीं है, तब क्या न्यायालयीय आदेशों के जरिए समय-सीमा और प्रक्रिया निर्धारित की जा सकती है?”

सुप्रीम कोर्ट से अपने फैसले पर पुनर्विचार की मांग करने की बजाय, सरकार ने अनुच्छेद 143(1) का रास्ता चुना है.

संविधान का अनुच्छेद 143(1) राष्ट्रपति को किसी भी कानून या तथ्य से जुड़े सवाल पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने का अधिकार देता है. यह केंद्र सरकार को, राष्ट्रपति के जरिए, संवैधानिक मुद्दों पर स्पष्टता पाने का एक तरीका है.

जिस फैसले को लेकर यह संदेह जताया गया है, उसमें तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 राज्य विधेयकों को मंजूरी न देने को असंवैधानिक करार दिया गया था. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों के दायरे को दोबारा परिभाषित करते हुए अनुच्छेद 200 और 201 के तहत समय-सीमा तय कर दी थी. कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का उपयोग करके यह भी घोषित किया था कि तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित और राज्यपाल के पास लंबित 10 विधेयकों को माना जाएगा कि उन्हें मंजूरी मिल चुकी है.

अनुच्छेद 200 राज्यपाल की उस शक्ति से संबंधित है जिसमें वह किसी राज्य विधेयक को मंजूरी देता है. इसके अनुसार, विधानसभा द्वारा पारित विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर राज्यपाल को “जितनी जल्दी हो सके” मंजूरी देनी होती है या उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेजना होता है, परंतु धन विधेयकों को छोड़कर. यह प्रावधान साफ कहता है कि जब कोई विधेयक पुनर्विचार के बाद फिर से राज्यपाल के पास भेजा जाए तो वह उसे मंजूरी देने से इनकार नहीं कर सकता.

यदि किसी विधेयक का केंद्रीय कानून से टकराव होता है, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकता है. फिर राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 के तहत उस पर हस्ताक्षर करना या उसे रोके रखना होता है.

यह फैसला राज्यपाल और तमिलनाडु सरकार के बीच उस टकराव की पृष्ठभूमि में आया था, जहां कई विधेयक मंजूरी के लिए राज्यपाल के पास लटके हुए थे. यह एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आया, जो इन दोनों संवैधानिक संस्थाओं के बीच चली.

कोर्ट ने राज्यपाल के इस अड़ियल रवैये पर नाराजगी जताई और कहा कि उनका यह व्यवहार राज्य में प्रशासनिक ठहराव की स्थिति पैदा कर सकता है. कोर्ट ने यह भी कहा कि जब राज्य विधानसभा द्वारा विधेयक पुनर्विचार के बाद फिर से भेजे गए, तो राज्यपाल उन्हें दोबारा राष्ट्रपति को नहीं भेज सकते थे.

यह फैसला न्यायपालिका और भारतीय जनता पार्टी-शासित केंद्र सरकार के बीच एक टकराव का कारण बन गया. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कई बार इस फैसले को “न्यायिक अतिक्रमण” कहा.

14 सवाल 

राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए संदर्भ में अदालत से 14 सवालों के जवाब मांगे गए हैं. विभिन्न विपक्ष-शासित राज्यों और उनके राज्यपालों के बीच विवाद से जुड़ी कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं, जिसने इस संदर्भ को आवश्यक बना दिया है. यह संदर्भ इस बात पर भी सवाल उठाता है कि राज्य सरकारें इन मामलों को सुप्रीम कोर्ट में दायर करने के लिए अनुच्छेद 131 की बजाय अनुच्छेद 32 का सहारा क्यों ले रही हैं.

अनुच्छेद 32 एक ऐसा प्रावधान है जिसका उपयोग मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स का रुख किया जाता है, जबकि अनुच्छेद 131 केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विवादों को सुनने के लिए सुप्रीम कोर्ट को मूल क्षेत्राधिकार प्रदान करता है.

राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा तय करने से जुड़े मुद्दे के अलावा, यह संदर्भ संविधान के अनुच्छेद 142 के दायरे को भी समझना चाहता है, जो सुप्रीम कोर्ट को न्याय प्रदान करने के लिए अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करने की अनुमति देता है. यह एक ऐसी शक्ति है जिसे उन मुद्दों पर निर्देश देने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है जो किसी मामले की मुख्य चर्चा का हिस्सा नहीं रहे हों.

संदर्भ में यह पूछा गया है: “क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा किए गए संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग और आदेशों को किसी भी रूप में प्रतिस्थापित किया जा सकता है?” साथ ही यह भी जानना चाहा गया है कि “क्या विधेयक कानून बनने से पहले, किसी भी रूप में, उसकी विषयवस्तु पर न्यायिक निर्णय देना अदालतों के लिए स्वीकार्य है?”

यह संदर्भ एक और टकराव के बिंदु को भी छूता है, जो न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच उस निर्णय के कारण उत्पन्न हुआ था. उस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था कि यदि किसी केंद्रीय कानून और राज्य कानून के बीच टकराव हो, तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांग सकते हैं.

संदर्भ में यह पूछा गया है: “संविधान की उस रूपरेखा के आलोक में जो राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करती है, क्या जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखते हैं या अन्यथा, तब राष्ट्रपति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेना और उसका मत लेना आवश्यक है?”

कुछ अन्य प्रश्न जो अदालत को भेजे गए हैं, उनमें शामिल हैं: “जब किसी विधेयक को भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के सामने पेश किया जाता है, तब राज्यपाल के सामने क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं? क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के समक्ष विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते समय राज्यपाल मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह से बंधे होते हैं?”

राष्ट्रपति का यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट से यह भी पूछता है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय क्या “न्यायिक समीक्षा योग्य” हैं, और वह भी उस स्थिति में जब कानून लागू होने से पहले की अवस्था में हो.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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