गया : बिहार में गया ज़िले के पटवा टोली में 50 वर्षीय जितेंद्र प्रसाद के तीन मंज़िला मकान की छत पर, कफ़न के केसरी रंग के थान सूखने के लिए डाले हुए हैं. बाक़ी के फ्लोर्स पर कच्चा माल रखा है और नौ पावरलूम मशीनें लगी हुई हैं, जो कफ़न तैयार करती हैं.
प्रसाद अनिच्छा से स्वीकार करते हैं कि कारोबार बहुत फल फूल रहा है. न सिर्फ उनके सभी नौ पावरलूम दिन में 18 घंटे चल रहे हैं, बल्कि उन्हें ऐसी कुछ और मशीनें किराए पर लेनी पड़ी हैं.
प्रसाद ने दिप्रिंट को बताया, ‘पिछले महीने मुझे नौ और करघे किराए पर लेने पड़े, क्योंकि कफन की मांग बहुत बढ़ गई थी. ये सामान्य बिक्री से तीन गुना अधिक है’. उन्होंने आगे कहा, ‘पिछले महीने हमारे ऊपर काम का बहुत बोझ रहा है. शुरू में हमारे श्रमिक कोविड के डर से भाग गए थे, लेकिन अब हमें उन्हें बुलाना पड़ा है, क्योंकि काम बहुत बढ़ गया है’.
लेकिन ये कोई सामान्य कारोबार नहीं है- ये केसरी वस्त्र जिसे इन इलाक़ों में कफन कहा जाता है, अंतिम संस्कार के लिए शवों को लपेटने के काम में लाया जाता है.
कोविड की वर्तमान लहर में, ये कफन अब उस तबाही का प्रतीक बन गए हैं, जो महामारी ने उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण इलाक़ों में मचाई है. गंगा के किनारों से उथली सामूहिक क़ब्रों की तस्वीरें सामने आईं हैं, जिनमें कफन में लिपटे शव देखे जा सकते हैं.
गंगा के किनारों नज़र आते ये कफन, अगर ग्रामीण इलाक़ों में आई महामारी की तबाही की तस्वीर दिखाते हैं, तो पटवा टोली के बुनकर इसका एक और सबूत दे देते हैं.
प्रसाद के अनुसार, केवल पिछले एक महीने में, वो 40,000 से अधिक कफन बेच चुके हैं.
प्रसाद ने बताया, ‘गर्मियों के महीनों में हम औसतन 25,000 कफन बेचते हैं. पिछले साल पहले लॉकडाउन के कारण, उसमें 40 प्रतिशत की गिरावट आई थी, लेकिन दूसरी लहर में स्थिति अलग है’.
प्रसाद के अनुसार, जिनका परिवार पिछले 20 वर्षों से कफन बुन रहा है, उनका 80 प्रतिशत माल बिहार में बिकता है, और बाक़ी 20 प्रतिशत पश्चिम बंगाल और झारखंड भेजा जाता है.
लेकिन ये 50 वर्षीय बुनकर इस बात को मानते हैं कि मांग की इस उछाल को पूरा करने में, कभी-कभी नैतिक पहलुओं से भी गुथना पड़ता है. ख़ासकर 28 अप्रैल के बाद से, जब उनके 80 वर्षीय पिता भी वायरस की भेंट चढ़ गए. उन्होंने कहा कि उन्होंने दो हफ्ते के लिए, अपनी मशीनें बंद कर दीं थीं.
उन्होंने कहा, ‘लेकिन इतना ज़्यादा डिमांड था कि फिर काम चालू करना पड़ा. खराब तो लगता ही है, लेकिन हम नहीं बनाएंगे तो कौन बनाएगा?’
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क़स्बे में गहमा-गहमी
गया ज़िले में मानपुर ब्लॉक का पटवा टोली, अपने कपड़े के लिए जाना जाता है. यहां के 150 परिवार मुख्यत: पटवा समुदाय के सदस्य हैं, जो पारंपरिक रूप से बुनकर हैं.
ये छोटा सा क़स्बा एक और चीज़ के लिए जाना जाता है- यहां के बहुत से बच्चे आईआईटी ग्रेजुएट्स हैं.
दिप्रिंट ने 26 मई को जब वहां का दौरा किया, तो पटवा टोली की तंग गलियों में हर तरफ करघों की धमक और धूल भरी हुई थी.
यहां के निवासियों का कहना है कि उन्हें ख़ुद भी कोविड की चिंता है- दूसरी लहर में पटवा टोली में 100 से अधिक लोगों के टेस्ट पॉज़िटिव निकले हैं, जबकि 15 लोगों की मौत हुई है- लेकिन ख़ासकर महामारी के दौरान उनकी जीविका का यही एक साधन है.
यहां पर प्रसाद जैसे 20 बुनकर हैं, जो कफन तैयार करने के काम में लगे हैं.
सबसे बड़े बुनकरों में से एक हैं पारस नाथ, जिनके पास 35 पावरलूम मशीनें हैं.
नाथ ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं एक दिन में 400 कफन तैयार करता हूं और आजकल मेरा पूरा माल हर रोज़ बिक जाता है. पहले हमें कफन के स्टॉक रखने पड़ते थे, क्योंकि गर्मियों में कम मौतें होती थीं’.
प्रसाद और नाथ के बनाए हुए कफन, क्रमश: 10 और 30 रुपए में बेचे जाते हैं.
एक अन्य बुनकर दुर्गेश्वर प्रसाद ने, जो कफन के साथ गमछा भी बनाते हैं, दिप्रिंट को बताया कि कफन बेचने की वजह से उन्हें अपने कारोबार को बनाए रखने में सहायता मिली है.
उन्होंने कहा, ‘अगर मशीन की आवाज़ नहीं आएगी, तो हमें नींद नहीं आती. यही हमारा रोज़गार है. पिछले साल से मंदा पड़ा था लेकिन अब जाकर कम से कम कफन बेचने से हमारा पेट तो भर रहा है’.
उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन ऐसा भी महामारी नहीं आना चाहिए, लेकिन हमें डिमांड भी पूरी करनी है कि मौत में तो कम से कम इज़्ज़त दे सकें’.
अन्य हितधारकों ने भी मांग बढ़ने की पुष्टि की. हाजीपुर के एक खुदरा विक्रेता प्रेम भगत ने, जो पटवा टोली से माल ख़रीदते हैं, दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने पिछले डेढ़ महीने में, 40,000 से अधिक कफन ऑर्डर किए थे.
उन्होंने कहा, ‘ये कोई सामान्य साल नहीं है, इतनी मांग पहले कभी नहीं रही. गांव-गांव से थोक भाव से मांग हो रही है. ये पिछली लहर से उलट है, जब हमारा कारोबार प्रभावित हुआ था’.
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