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Sunday, 3 November, 2024
होमदेशब्रिटिश काल के निर्माण से लेकर 2023 की बाढ़ तक- दिल्ली का पुराना यमुना पुल बदलते भारत का गवाह रहा है

ब्रिटिश काल के निर्माण से लेकर 2023 की बाढ़ तक- दिल्ली का पुराना यमुना पुल बदलते भारत का गवाह रहा है

आम बोलचाल में 'लोहे का पुल' के नाम से जाना जाने वाला लौह ट्रस पुल 1863 में दिल्ली और कलकत्ता के बीच रेलमार्ग लिंक के हिस्से के रूप में बनाया गया था. अब यह यमुना के पानी में डूबा हुआ है और बाढ़ कम होने का इंतजार कर रहा है.

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नई दिल्ली: विशाल यमुना नदी के ऊपर बने पुराने लोहे का ट्रस पुल पिछले 150 साल से दिल्ली के बाहरी इलाकों जैसे- शाहदरा और उससे आगे राष्ट्रीय राजधानी के बाहरी इलाके को जोड़ रहा है. लेकिन, आजकल यह अब बाढ़ के पानी में डूबा हुआ है. तीन दिन हो गए हैं जब से यमुना अपने पूरे रौद्र रूप में खतरनाक तरीके से बढ़ गई है और कई पॉश इलाके जैसे- सिविल लाइन्स सहित दिल्ली के अन्य हिस्सों में घुस गई है.

पुराना यमुना पुल, जिसे स्थानीय तौर पर लोहे का पुल या रेलवे की भाषा में ब्रिज नंबर 249 के नाम से जाना जाता है, बाढ़ का पानी कम होने का इंतजार कर रहा है.

1863 में दिल्ली और तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के बीच रेलमार्ग लिंक के हिस्से के रूप में ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी द्वारा निर्मित, पुराने यमुना ब्रिज को एक वास्तुशिल्प चमत्कार माना जाता था. भारतीय रेलवे के अधिकारियों के अनुसार, 2,640 फीट के पुल में 12 स्पैन हैं, जिसमें प्रत्येक की ऊंचाई 202.5 फीट है. यह उत्तर भारत में अपनी तरह का पहला पुल है, जो इसे देश के सबसे पुराने पुलों में से एक होने का भी दावा करता है.

यह पहली बार नहीं है कि जब पुल खुद को यमुना के पानी में डूबा हुआ पाया गया है. बिहार के 67 वर्षीय चौबे सिंह के अनुसार, जिनके अनुसार वह दशकों से पुल की रखवाली कर रहे हैं, कहते हैं कि पुल ने इससे पहले 1956, 1967, 1971, 1975, 1978 के भयंकर बाढ़ का सामना किया है. विक्टोरियन युग के पुल, जो भारत के अतीत और उसके वर्तमान के बीच एक संबंध के रूप में खड़ा है, की रखवाली चौबे सिंह वर्षों से करते आ रहे हैं.

एक समय दिल्ली और कलकत्ता के बीच एकमात्र लिंक यह पुल ही था. इस पुल के नीचे की ओर पैदल मार्ग है जो आज भी काम कर रहा है. रेलवे अधिकारियों के अनुसार, हर दिन औसतन 90 ट्रेनों इस पुल से गुजरती है.

लाल किले के पीछे खड़े होकर, इस पुल ने भारत के आधुनिक इतिहास के कई महत्वपूर्ण अध्याय देखे हैं, जैसे ब्रिटिश शासन, भारत का स्वतंत्रता आंदोलन, एक नए देश का जन्म और अंततः, 1978 में दिल्ली में आखिरी बड़ी बाढ़. इस बाढ़ में यमुना का पानी बढ़कर 207.49 मीटर हो गया था.

पुल के निर्माण की देखरेख ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी के उत्तर-पश्चिम प्रांत के मुख्य अभियंता जॉर्ज सिबली ने की थी, जिन्हें प्रयागराज (पूर्व में इलाहाबाद) में नैनी ब्रिज और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन बनाने का श्रेय भी दिया जाता है. जॉर्ज हडलस्टोन, इंडिया रेलवे के पूर्वी भाग के पूर्व अधीक्षक, अपनी पुस्तक ईस्ट इंडियन रेलवे का इतिहास में यह लिखते हैं. यह पुस्तक 1902 में प्रकाशित हुई थी.

यह पुल का फायदा सिर्फ रेलवे ने ही नहीं उठाया, जिसने इस पुल का जमकर उपयोग किया. पुल के नीचे के पैदल मार्ग का उपयोग नदी पार करने के लिए किया जाता रहा है. इसके निर्माण से पहले यात्रियों को एक पोंटून पुल का उपयोग करना पड़ता था. पोंटून पुल उस पुल को कहते हैं जिसमें नदी या नहर को पार करने में मदद के लिए नावों को एक साथ बांधकर पुल बनाया जाता है. मानसून में, जब यमुना का पानी बढ़ जाता था, इसका उपयोग करना काफी मुश्किल साबित होता था.

दिल्ली के इतिहास में विशेषज्ञता रखने वाले एक इतिहासकार स्वप्ना लिडल ने दिप्रिंट को बताया, “1860 के दशक तक जब यमुना पर कोई पुल नहीं बना था, तब तक यमुना पर केवल नावों का पुल था और वह भी मौसमी था. यह मानसून में हटा दिया जाता जाता था, नहीं तो बह जाता था.” 

उन्होंने आगे कहा: “मानसून के दौरान, कोई केवल नौका से ही नदी पार कर सकता था. 1864 में दिल्ली के लिए पहली रेलवे लाइन के निर्माण के बाद भी, लोगों को शहर में आने के लिए शाहदरा में उतरना पड़ता था और नावों के पुल से यात्रा करनी पड़ती थी.”

हडलस्टोन के अनुसार, अल्बर्ट एडवर्ड, तत्कालीन प्रिंस ऑफ वेल्स और रानी विक्टोरिया के सबसे बड़े बेटे, अक्टूबर 1875 में अपनी भारत यात्रा पर पुल का उपयोग करके दिल्ली आए थे.

पुल का उल्लेख करें और आसपास रहने वाले लोग यादों के बारे में जाने तो यह काफी तद तक आपस में जुड़े हुए हैं. इसमें एक तरबूज़ों की कहानी भी है, जिसे क्षेत्र के कई पुराने लोगों ने दोहराया है.

दिल्ली के इतिहासकार सोहेल हाशमी ने कहा, “यमुना एक उथली नदी है. पुल के आसपास किसान रहते होंगे, जो नदी की रेतीली रेत पर खरबूजे की खेती करते होंगे.” 

उन्होंने कहा, यह उस समय की बात है जब इलाके में झुग्गियां बस गईं थी और नदी का पानी प्रदूषित होने लगा था.

हाशमी ने कहा,“गर्मी बढ़ने पर हम नावें लेते थे और उन किसानों से ताज़ा तरबूज, खरबूजा और कद्दू खरीदने जाते थे. यह एक परंपरा थी. पूरा पड़ोस साथ जाता था.”

समय के साथ, पुराना यमुना पुल सिक्का गोताखोरों के लिए एक पसंदीदा स्थान बन गया, जो नदी में श्रद्धालुओं की एक पीढ़ी द्वारा किए गए मामूली प्रसाद को प्राप्त करने के लिए नदी में कूदते हैं.

Rising water levels of the Yamuna near the Old Yamuna Bridge | Suraj Bisht | ThePrint
पुराने यमुना ब्रिज के पैदल पथ का दृश्य, जो अभी बंद है | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

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अतीत से गहरा नाता

हडलस्टोन के अनुसार, 1864 में किसी समय हावड़ा और दिल्ली के बीच पुराने यमुना ब्रिज का उपयोग करके पहली ट्रेन चलाई गई थी.

हडलस्टोन ने अपनी पुस्तक में पुल को “महान पुलों में से अंतिम” कहते हुए कहा, “कलकत्ता और दिल्ली के बीच की रेखा में न केवल उच्चतम स्तर के राजनीतिक फायदे हैं बल्कि यह व्यावसायिक गतिविधियों के रूप में भी सफल साबित होगी.”

एक बार बनने के बाद, इस पुल ने ब्रिटिश प्रेस का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया. इसके बारे में प्रशंसा करने वालों में बॉम्बे में जन्मे ब्रिटिश पत्रकार रुडयार्ड किपलिंग भी शामिल थे, जिन्हें प्रसिद्ध द जंगल बुक और किम के लेखक के रूप में जाना जाता है.

हडलस्टोन के अनुसार, किपलिंग ने अपनी शार्ट स्टोरी द ब्रिज-बिल्डर्स – जो 1893 में इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज़ के क्रिसमस अंक में प्रकाशित हुई थी – में दावा किया है कि भारत में रेलवे पुलों ने दर्शाया है कि कैसे यूरोपीय लोगों ने उपनिवेशित समाजों पर “तकनीकी प्रसार” थोपा था.

लेकिन हाशमी के अनुसार, इस संबंध का एक और महत्वपूर्ण मकसद था – 1857 के “विद्रोह” के बाद, जिसे अब भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध माना जाता है, अंग्रेजों ने अपनी राजधानी को कलकत्ता में स्थानांतरित करने का फैसला किया. हालांकि वह दिल्ली को भारत के लिए नियोजित रेलवे नेटवर्क से तोड़ना चाहते थे.  

लेकिन जब दिल्ली और पंजाब में व्यापारियों ने इसके खिलाफ अपील की, तो अंग्रेजों ने इसे आगे के विद्रोह को रोकने के लिए सैनिकों को भेजने के एक साधन के रूप में देखा, और मान गए. हालांकि, द्वेष के कारण, उन्होंने यमुना पुल को इस तरह बनाया कि लाल किले की दीवार का हिस्सा तोड़ना पड़ा जो 1857 के विद्रोह का प्रतीक था. 

हाशमी ने दिप्रिंट को बताया, “यह दिल्ली को विद्रोह के लिए सजा देने के लिए किया गया था. कई लोगों ने इसके लिए अंग्रेजों से गुजारिश की लेकिन अंग्रेज दृढ़ थे. और इस तरह पुराना लोहे का पुल अस्तित्व में आया.”

एक पुल अभी भी खड़ा है

2018 में, भारतीय रेलवे के उत्तरी डिवीजन ने 700 टन लोहे का इस्तेमाल कर पुराने यमुना पुल का नवीनीकरण किया. दिप्रिंट ने जिन रेलवे अधिकारियों से बात की, उनके अनुसार ऐसा पुल में ‘जंग’ लगने के कारण किया गया था. अधिकारियों के मुताबिक पुल 50 साल पुराना हो गया था.

2003 से ही भारतीय रेलवे नदी पर एक समानांतर पुल का निर्माण कर रहा है, लेकिन यह काम अभी भी जारी है. अधिकारियों ने अब कथित तौर पर इस साल सितंबर तक की समय सीमा दी है.

दिल्ली विकास प्राधिकरण के पूर्व आयुक्त (योजना) ए.के. के अनुसार जैन के अनुसार, पुराने पुल में कई छोटी मोटी मरम्मत हुई है, लेकिन अभी तक कोई बड़ा बदलाव नहीं किया गया है. 

जैन ने कहा, “लोहे के पुल का जीवनकाल केवल 100 वर्ष है. लेकिन यह पुल उससे भी ज्यादा पुराना हो गया है और 150 साल पार कर चुका है. पुल के लिए लोहा 19वीं सदी में यूनाइटेड किंगडम से लाया गया था.”

पुल रखरखाव पर 2018 की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट में, भारतीय रेलवे ने बताया कि “ब्रिटिश शासन के दौरान निर्मित कुछ रेलवे पुल अच्छी स्थिति में हैं, लेकिन आजादी के बाद निर्मित या पुनर्निर्मित रेलवे पुल निम्न गुणवत्ता वाले हैं और उन्हें लगातार मरम्मत की आवश्यकता होती है”.

सेवानिवृत्त पत्रकार विवेक शुक्ला के लिए यह पुल उनके बचपन और युवावस्था का प्रतिनिधित्व करता है. उन्हें खासतौर पर 1978 की बाढ़ याद है, जब वह अपने दोस्तों के साथ वहां गए थे.

उन्होंने कहा, “तब पुल स्थानीय लोगों के लिए राहत का स्थान था, जहां वे जाकर नदी को देख सकते थे.”

लेकिन पुल के दूसरे उपयोग भी हैं. 19 जून, 2016 को द हिंदू में प्रकाशित एक लेख में, दिल्ली के दिवंगत इतिहासकार आर.वी. स्मिथ एक पिता और पुत्र के बारे में बात करते हैं जो 1950 के दशक में ब्रिज गार्ड के रूप में काम करते थे. उन्होंने लिखा कि अपने गार्ड की ड्यूटी के अलावा दोनों के पास एक और काम था- वे विशेष रूप से सर्दियों और मानसून के दौरान यमुना में जल स्तर को सावधानीपूर्वक रिकॉर्ड करते और उसे दर्ज करते थे.

यह एक प्रथा है जिसका आज तक पालन किया जाता है- अपनी जर्जर लकड़ी की कुर्सी पर बैठकर, ब्रिज गार्ड चौबे सिंह नदी में जल स्तर की निगरानी कर रहे हैं और नियमित रूप से स्थानीय अधिकारियों को रिपोर्ट कर रहे हैं.

वह दिप्रिंट को बताते हैं, “एक बार की बात है, पुल यमुना में डूबा हुआ था. भयंकर बाढ़ आई थी. सभी को लगा कि पुल नष्ट हो जायेगा. लेकिन जैसे-जैसे पानी कम हुआ, पुल मजबूती से खड़ा रहा.” 

यह विचार 40 वर्षीय ट्रैवल एजेंट साहिल अरोड़ा का है, जो पिछले हफ्ते दिल्ली के आईटीओ में यमुना के बाढ़ के पानी की गूंज देखने आए थे.

अरोड़ा ने दिप्रिंट से कहा, “कई लोग मर गए लेकिन पुल आज भी खड़ा है. पुल को कुछ नहीं होगा. इसे अंग्रेजों ने बनाया था.”

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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