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Friday, 22 November, 2024
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कर्नाटक के हिजाब विवाद के पीछे की राजनीति: कमजोर कांग्रेस, SDPI का उदय और जुझारू BJP

SDPI के चुनावी फायदे, सांप्रदायिक मुद्दों का सामना करने में कांग्रेस की कठिनाइयां, और गणतंत्र दिवस परेड के लिए केरल की नारायण गुरु झांकी ख़ारिज होने से हिजाब के विवाद को हवा मिली है.

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उडुपी: सम्मोहन की लड़ाई में स्कार्फों की सर सर, भगवा बनाम हिजाब, पूरे देश की निगाहें इन पर जमी हुईं. इसकी शुरुआत पिछले दिसंबर उडुपी के एक कॉलेज में छात्रों, पेरेंट्स और प्रबंधन के बीच विवाद से हुई. स्थानीय स्तर पर सुलझ जाने की बजाय, आज ये सबसे ज्वलंत मुद्दा बन चुका है- और दलगत राजनीति का ख़मीर, धर्म, और जातिगत तुष्टिकरण, इसकी लौ को ज़िंदा रखे हुए हैं.

राजनेताओं और विश्लेषकों का मानना है कि बहुत से कारकों ने इस विवाद को ज़िंदा रखा हुआ है- बिलावा समुदाय के नाराज़ सदस्यों का विश्वास फिर से जीतने के लिए, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) द्वारा अपनाई गई रणनीति से लेकर, सांप्रदायिक मामलों पर कांग्रेस की अनुपस्थिति और इस्लामिक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) की राजनीतिक विंग- सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) तक- जो तटीय कर्नाटक की चुनावी राजनीति में शामिल हो गई है.

कॉलेज विकास समितियों में बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) सदस्यों के नेतृत्व की स्थिति में होने और उडुपी गवर्नमेंट वीमंस प्री-यूनिवर्सिटी (पीयू) कॉलेज की, छह प्रदर्शनकारी लड़कियों में से तीन के माता-पिता के एसडीपीआई का सक्रिय सदस्य होने ने, इस राजनीतिक कॉकटेल में और तड़का लगा दिया.

‘ये मामला कॉलेज स्तर पर ही सुलझाया जा सकता था, लेकिन कॉलेज पर बीजेपी और संघ का प्रभाव, उस दावे से सीधा टकरा गया, जो मुस्लिम छात्राएं करने की कोशिश कर रहीं थीं,’ दिप्रिंट से ये कहना था उडुपी ज़िला मुस्लिम ओक्कुटा के एक पूर्व पदाधिकारी का, जो स्थानीय मस्जिदों, जमातों, और इस्लामी संगठन है.

उन्होंने आगे कहा कि छात्राओं को पीएफआई की छात्र विंग, कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) का समर्थन मिल रहा था, ‘जो एसडीपीआई की हालिया चुनावी कामयाबियों के बाद ख़ुद को विजयी महसूस कर रहा था’. उन्होंने आगे कहा, ‘प्रदर्शनकारी छात्राओं में से तीन के पिता एसडीपीआई के सदस्य हैं’.

उन्होंने आगे कहा कि उनके संगठन ने मामले को सुलझाने की भरसक कोशिश की थी, लेकिन एसडीपीआई और बीजेपी दोनों को, इसे हवा देने में राजनीतिक अवसर नज़र आए.


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SDPI का बढ़ता असर

एसडीपीआई का 2010 में चुनाव आयोग में पंजीकरण हुआ था, और उसके बाद से ही ये ज़मीनी स्तर पर अपना असर बढ़ा रही है, और तटीय कर्नाटक तथा पुराने मैसूरू क्षेत्रों में चुनावी लाभ उठाने की तरफ बढ़ रही है. पिछले कुछ वर्षों में इसने ग्राम पंचायत और ज़िला पंचायत स्तर पर सीटें जीती हैं.

और एक अन्य मुस्लिम-संचालित पार्टी, ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लेमीन (एआईएमआईएम) की तरह ही, ख़ासकर चुनाव क़रीब आने के साथ, कांग्रेस ने एसडीपीआई पर भी आरोप लगाया है कि ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने के लिए, उसने बीजेपी के साथ एक मूक समझौता किया है.

एसडीपीआई ने दिसंबर में कर्नाटक के शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में छह सीटें जीतीं थीं. इन छह में से तीन सीटें उडुपी ज़िले के कॉप में थीं और एक-एक दक्षिण कन्नड़ ज़िले के वित्तला और कोटेकर में थीं- ये सब तटीय क्षेत्र हैं जिनमें अच्छी ख़ासी मुस्लिम आबादी है. बाक़ी एक सीट एक दलित उम्मीदवार के हिस्से में आई, जिसे पार्टी ने चिक्कमगलुरू से खड़ा किया था.

उडुपी के मुसलमान नेता ने भी कहा कि पीयू कॉलेज के प्रदर्शनकारी छात्र कॉप, किडियूर, और माल्पे जैसे इलाक़ों से थे, जहां एसडीपीआई ने मुसलमान मतदाताओं के बीच, काफी राजनीतिक प्रभाव बना लिया है.

एक राजनीतिक विश्लेषक ने, जो इसी इलाके से हैं और कर्नाटक के एक मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार भी रह चुके हैं, कहा, ‘जब मुसलमान छात्राओं ने आरोप लगाया कि हिजाब की वजह से उनका कॉलेज उनके साथ दुर्व्यवहार कर रहा है, तो एसडीपीआई ने अल्पसंख्यकों के बीच अपनी लोकप्रियता को और बढ़ाने के लिए, इस मौक़े का फायदा उठा लिया- ख़ासकर उस समय जब तटीय कर्नाटक में कांग्रेसी नेता कमज़ोर स्थिति में थे’.

उन्होंने आगे कहा, ‘क्षेत्र में कांग्रेसी नेता जैसे प्रमोद माधवराज, विनय कुमार सोराके और गोपाल पुजारी इस बात को लेकर चिंतित थे, कि अगर वो मुसलमानों के हितों की बात ज़ोर से उठाएंगे, तो वो हिंदू वोट गंवा सकते हैं’.

उन्होंने कहा कि मवेशी वध, अंतरधार्मिक संबंधों, और धर्मांतरण का हौआ जैसे मुद्दों पर, उभरकर सामने आने वाले हिंदुत्व के प्रभाव और सतर्कता से, सार्वजनिक रूप से टकराने की स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व की अनिच्छा ने, मुसलमानों की निगाह में एक विकल्प के तौर पर उभरने में एसडीपीआई की सहायता की है.

तटीय कर्नाटक के तीन ज़िलों- दक्षिण कन्नड़, उत्तरा कन्नड़, और उडुपी- को अकसर भारत के सांप्रदायिक रूप से अधिक संवेदनशील क्षेत्रों में शुमार किया जाता है. तीनों ज़िलों में मुसलमानों तथा ईसाइयों की एक अच्छी ख़ासी आबादी है.

सामाजिक कार्यकर्त्ता इस क्षेत्र में, जिसे अकसर ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ भी कहा जाता है, अकसर भड़क उठने वाले सांप्रदायिक तनाव के पीछे, कट्टर हिंदू और मुस्लिम संगठनों के उकसावे को ज़िम्मेदार मानते हैं.


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कांग्रेस को हिंदू प्रतिक्रिया का डर

कांग्रेस नेताओं की चिंताएं निराधार नहीं हैं. पिछले कुछ वर्षों में जब जब पार्टी ने, तटीय क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया है, तब तब बीजेपी उसके जवाब में ‘हिंदू गर्व’ की भावनाओं को उभारने में कामयाब रही है.

मसलन, जनवरी 2018 में, तत्कालीन कांग्रेस विधायक रमानाथ राय ने, बंतवाल चुनाव क्षेत्र से लगातार जीत हासिल होने पर, मुस्लिम समुदाय और अल्लाह को इसका श्रेय दिया. इस पर प्रतिक्रिया देते हुए असेम्बली में बीजेपी के तत्कालीन मुख्य सचेतक, और करकाला से विधायक वी सुनील कुमार ने अपने भाषण में लोगों से पूछा कि वो अल्लाह और राम में से किसको चुनना चाहते हैं.

संघ के एक वरिष्ठ नेता ने, जो अब राज्य में एक मंत्री हैं, दिप्रिंट से कहा, ‘उस एक वाक्य ने कुछ महीने बाद होने वाले असेम्बली चुनावों में, दक्षिण कन्नड़ और उडुपी दोनों ज़िलों में हमें सीटें जीता दीं. इस क्षेत्र में सिर्फ एक वाक्य चुनाव का रुख़ मोड़ सकता है, क्योंकि कांग्रेस नेता अपनी तुष्टिकरण की राजनीति से लोगों में रोष पैदा कर देते हैं’.

उत्तरा कन्नड़ की छह सीटों में से, 2018 असेम्बली चुनावों में बीजेपी ने चार सीटें जीतीं थीं, और बाद में उसकी संख्या बढ़कर पांच हो गई, जब शिवराम हेबर कांग्रेस छोड़कर उसके पाले में आ गए. उडुपी ज़िले में बीजेपी ने सभी पांच सीटें जीत लीं, और दक्षिण कन्नड़ में इसने आठ में से सात सीटों पर क़ब्ज़ा कर लिया, और सिर्फ एक सीट कांग्रेस के हिस्से में आई. 2013 में, कांग्रेस ने उडुपी में तीन, दक्षिण कन्नड़ में सात, और उत्तरा कन्नड़ में तीन सीटें जीतीं थीं.

राज्य विधान परिषद में कांग्रेस नेता बीके हरिप्रसाद इस बात से सहमत थे, कि तटीय कर्नाटक में कांग्रेस नेता एक मुश्किल स्थिति में थे.

उन्होंने कहा, ‘मैं इस बात से सहमत हूं कि एनएसयूआई (कांग्रेस की छात्र विंग- नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया) उस क्षेत्र में कमज़ोर है. स्थानीय चुनावी राजनीति की वजह से, हमारे नेता बहुत से मुद्दों पर नर्म रुख़ इख़्तियार करते हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि पार्टी के तौर पर कांग्रेस नर्म हिंदुत्व को आगे बढ़ाती है’.

सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मुद्दों पर एक मज़बूत रुख़ इख़्तियार करने की कांग्रेस की अनिच्छा ने, वो स्थान एसडीपीआई को सैंप दिया, जो अंत में चुनावी फायदा उठा रही है.

सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में, मुसलमानों की भावनाओं को उभारने की अपील ने एसडीपीआई को वही फायदा पहुंचाया है, जो हिंदुओं के बीच बीजेपी को मिलता है. मुस्लिम समुदाय लंबे समय से कांग्रेस के खिलाफ, पर्याप्त प्रतिनिधित्व की कमी की शिकायत करता आ रहा है- एक ऐसी चिंता जिसपर एसडीपीआई एक मुस्लिम पार्टी होने के नाते आसानी से ध्यान दे पाई है.

2013 के कर्नाटक असेम्बली चुनावों में एसडीपीआई ने 23 उम्मीदवार खड़े किए थे. वो एक भी सीट नहीं जीत पाई, लेकिन कुल मिलाकर 3.2 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करने में कामयाब रही. 2018 के चुनावों में पार्टीम ने केवल तीन उम्मीदवार मैदान में उतारे जो सभी हार गए, लेकिन उन्होंने कुल 10.5 प्रतिशत वोट हासिल कर लिए. और ज़मीनी स्तर पर इसकी पहुंच में इज़ाफा ही हुआ है.

जहां बीजेपी ज़ोर देकर कहती है कि कांग्रेस पूरे राज्य में, अपना मुस्लिम वोट बैंक एसडीपीआई के हाथों गंवा रही है, वहीं एसडीपीआई की मूल वैचारिक स्रोत पीएफआई, समुदाय विशेष को अपील की बजाय इस कामयाबी का श्रेय अपने काडर को देती है.

पीएफआई के राष्ट्रीय महासचिव अनीस अहमद ने दिप्रिंट से कहा, ‘ये एक ग़लतफहमी है कि एसडीपीआई सिर्फ मुसलमानों की पार्टी है. बीते सालों में अलग अलग चुनावों में एसडीपीआई के बहुत से उम्मीदवार, हाशिए पर रहने वाले सभी समुदायों से रहे हैं’.

अहमद ने इससे इनकार किया कि पीएफआई की राजनीतिक विंग हिजाब विवाद को हवा दे रही थी. उन्होंने आगे कहा, ‘ये बीजेपी का खेल है जो पीएफआई को दोष दे रही है, और फर्ज़ी नैरेटिव्ज़ गढ़ रही है. हर कोई जानता है कि जब मतदाताओं का ध्रुवीकरण होता है, तो उसका फायदा किसे पहुंचता है.’


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नारायण गुरु झांकी पर बिलावा समुदाय में रोष

मुख्यमंत्री के पूर्व सलाहकार ने कहा कि इधर एसडीपीआई और सीएफआई, हिजाब विवाद के ज़रिए अपनी लोकप्रियता बढ़ाने की कोशिश कर रहीं थीं, उधर बीजेपी को भी एक मौक़ा नज़र आ गया.

जनवरी में रक्षा मंत्रालय ने केरल की ओर से गणतंत्र दिवस परेड के लिए प्रस्तावित झांकी को ख़ारिज कर दिया, जिसमें श्री नारायण गुरू की एक प्रतिमा भी शामिल थी- जो 19वीं और शुरुआती 20 वीं सदी के एक समाज सुधारक थे, जिन्हें न केवल उनके गृहराज्य बल्कि कर्नाटक के बिलावा समुदाय के सदस्यों के बीच भी परम पूजनीय माना जाता है. झांकी के ख़ारिज किए जाने से बिलावा समाज के बीच भारी प्रतिक्रिया हुई.

बिलावा एक बड़ा समुदाय हैं, जो दक्षिण कन्नड़ और उडुपी के कुछ चुनाव क्षेत्रों में आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं, और बीजेपी के लिए एक प्रमुख आधार हैं.

वरिष्ठ विश्लेषक ने कहा, ‘श्री नारायण गुरू की झांकी को ख़ारिज करने के केंद्र सरकार के फैसले की, बिलावा समाज में भारी प्रतिक्रिया देखने को मिली. भारी संख्या में बिलावा समाज के लोग बीजेपी के पैदल सैनिकों का काम करते हैं. बीजेपी की चिंता उस समय और बढ़ गई, जब गणतंत्र दिवस पर वयोवृद्ध कांग्रेस नेता जनार्धन पुजारी द्वारा बुलाई गई एक विरोध रैली में, संघ परिवार के सदस्य भी शरीक हो गए’.

उन्होंने आगे कहा, ‘हिजाब विवाद उठने का इससे अच्छा समय नहीं हो सकता था. ये इतना अच्छा है कि यक़ीन नहीं होता’.

ऐतिहासिक रूप से एक दबा कुचला समुदाय, जिसे ब्राह्मणों के मंदिरों दाख़िल होने नहीं दिया जाता था, और जिसे ताड़ी दोहन के पैतृक पेशे से जोड़ा जाता है, बिलावा लोग बहुत से मायनों में केरल के सजातीय एझावा संप्रदाय की तरह हैं, जिसमें नारायण गुरू का जन्म हुआ था. गुरु द्वारा किए गए सुधार के प्रयासों का, बिलावा समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा, और उन्होंने गोकरनाथेश्वर मंदिर को पवित्र किया, जिसे बिलावा समाज ने 1912 में मेंगलुरू में बनाया था.

इसलिए इलाक़े में नारायण गुरू की एक मज़बूत विरासत है. बिलावा नेताओं के अनुसार, बिलावा समुदाय ने समुद्र तट के साथ साथ केरल के उत्तरी छोर कासरगोड़ से लेकर, कर्नाटक के उडुपी ज़िले में कुंदापुरा तक, 300 से अधिक मंदिर उन्हें समर्पित किए हैं.

केंद्र सरकार के झांकी को ख़ारिज करने के बाद, कांग्रेस नेताओं ने समुदाय में अपनी साख फिर से हासिल करने के लिए, मौक़े का फायदा उठाया और ‘स्वाभिमान नादिगे’- आत्म-सम्मान पैदल यात्रा- का आह्वान कर दिया, जिसे विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल का भी समर्थन हासिल हुआ.

संघ परिवार के एक वरिष्ठ नेता भी, जो अब बासवराज बोम्मई कैबिनेट में एक मंत्री हैं, इससे सहमत थे कि लोगों के ग़ुस्से को महसूस किया जा सकता था. ‘पहले दो दिन, इस मामले में कांग्रेस का हाथ ऊपर रहा, लेकिन जल्द ही हमने समुदाय के नेताओं के साथ बैठकें करके, उनके ग़ुस्से को शांत कर दिया’.

उपचारी उपाय के तौर पर, मेंगलुरू के लेडी हिल सर्किल को पीले रंग में लपेट दिया गया- जिस रंग को नारायण गुरू के मानने वालों के साथ जोड़ा जाता है, जो केरल में शिवगिरी तीर्थ यात्रा से शुरू होता है, और गुरू का एक फोटो स्थापित कर दिया गया. 26 जनवरी को अनौपचारिक रूप से उसका नाम बदलकर ‘नारायण गुरू सर्किल’ रख दिया गया. बिलावा समाज बरसों से मांग करता आ रहा है, कि मैंगलुरू रेलवे स्टेशन का नाम नारायण गुरू, और हवाई अड्डे का नाम 16वीं सदी के प्रसिद्ध नायक कोटी-चेन्नाया के नाम पर रखा जाए.

कांग्रेस नेता हरिप्रसाद ने आरोप लगाया, ‘संघ के ज़मीनी कार्यकर्त्ताओं में एक बड़ी संख्या बिलावा समाज के लोगों की है. बीजेपी की साज़िश रही है कि दबे कुचले समुदायों को अशिक्षित और बेरोज़गार रखा जाए, जिससे कि वो उसके लिए संघ की लड़ाई लड़ते रहें. नारायण गुरु मुद्दे पर जब बिलावा समाज में रोष फैला, तो बीजेपी को इससे बाहर निकलना था. संघ और बीजेपी दोनों हिजाब के खिलाफ प्रदर्शनों को हवा दे रहे हैं, ताकि बिलावा लोगों का ध्यान उस मुद्दे से भटक जाए’.

लेकिन, ऊर्जा मंत्री और उडुपी के करकाला से विधायक, बीजेपी नेता वी सुनील कुमार ने इसका दोष कांग्रेस पर मढ़ दिया. ‘कांग्रेस को चिंता सता रही है कि एसडीपीआई के उदय के साथ, उसका वोट बैंक कमज़ोर पड़ रहा है. पार्टी ने नारायण गुरू झांकी को एक मुद्दा बनाने का प्रयास किया, लेकिन विफल हो गई. बीजेपी या संघ किसी का भी, कॉलेजों में देखे जा रहे विरोध प्रदर्शनों से कोई लेना-देना नहीं है’.

लेकिन कर्नाटक में हिंदूवादी संगठनों के नेताओं द्वारा, कथित रूप से कॉलेज छात्रों को भगवा स्कार्फ बांटने के वीडियोज़ ख़ूब देखे जा रहे हैं.

कुमार ने आगे कहा कि समुदाय को सख़्ती के साथ शरीयत की पाबंदी के लिए प्रोत्साहित करके, एसडीपीआई मुसलमान युवाओं में सुधार को कम कर रही है. उन्होंने कहा, ‘इसी उद्देश्य से वो हिजाब के विवाद को हवा दे रहे हैं’. उन्होंने सवाल उठाया कि ग़रीब मुसलमान परिवारों के छात्र मुक़दमे के लिए क़ानूनी फीस कैसे वहन कर रहे हैं. लेकिन जब उनसे पूछा गया कि क्या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बीजेपी को चुनावी फायदा होता है, तो उन्होंने कहा कि उनके पास इसपर कहने के लिए कुछ नहीं है.

पीएफआई के राष्ट्रीय महासचिव अनीस अहमद ने आरोप लगाया, ‘इस तरह के सांप्रदायिक तनाव भड़कने से सिर्फ बीजेपी को फायदा पहुंचता है’. उन्होंने आगे कहा, ‘चुनाव क़रीब आ रहे हैं और उनके पास लोगों को दिखाने के लिए कुछ नहीं है. बीजेपी चुनावों को एक सांप्रदायिक रंग देना चाहती है. यही कारण है कि वो इसे हवा दे रहे हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘वो मुस्लिम समाज को वहशी की तरह पेश करके, हिंदू समुदाय का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं’. हालांकि उन्होंने स्वीकार किया, कि शहरी स्थानीय निकाय स्तर पर हासिल हुईं चुनावी कामयाबियां, एसडीपीआई के लिए ख़ुराक की तरह थीं, लेकिन ये भी कहा कि कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरने के लिए, पार्टी को अभी एक बहुत लंबा सफर तय करना है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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