बारपेटा/गुवाहाटी (असम) : एक साल पहले, वह एक प्रमाणित ‘विदेशी’ था या जैसा कि असम में कहते हैं एक ‘बिदेक्शी’, (विदेशी) जिसे एक डिटेंशन कैंप में कष्टदायक जीवन जीने के लिए मजबूर किया गया था. आज जब जोयनाल अबेदिन को ‘भारतीय नागरिक’ होने पर मुहर लगी हैं, उन्हें नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीज़न (एनआरसी) की अंतिम सूची में निकाला नहीं किया गया है.
अबेदिन की कहानी असम के कई अन्य लोगों की तरह है, जिन्हें विदेशी या ‘संदिग्ध’ नागरिक घोषित किया गया है, यह हमारी प्रणाली के खोखलेपन को बेनकाब करता है और बताता है कि कौन वैध भारतीय नागरिक है और कौन नहीं है.
यह दर्शाता है कि एनआरसी की कमियां कितनी गहरी हैं और कैसे जटिल एनआरसी प्रक्रिया ने उन्हें और गहरा किया है.
एनआरसी की अंतिम सूची का उद्देश्य उन लोगों की पहचान करना था, जो 24 मार्च 1971 की कटऑफ तारीख के बाद बांग्लादेश से अवैध रूप से आ गए थे, इस सूची को 31 अगस्त को जारी किया गया था जिसमें लगभग 19 लाख लोग शामिल थे.
2013 के बाद एनआरसी का प्रभाव देखने को मिला है, लेकिन कुछ लोगों को ‘विदेशी’ लेबल देने और उन्हें डिटेंशन कैंपो में भेजने की यह प्रक्रिया असम के लिए कोई नई नहीं है.
बाहरी लोगों के प्रति नाराज़गी का असम का लंबा इतिहास है, राज्य में 6 डिटेंशन कैंप हैं, जो कि गोलपारा, सिलचर, कोकराझार, तेजपुर, जोरहाट और डिब्रूगढ़ में हैं – ये सभी जेलों के अंदर स्थित हैं और जिनकी पहचान ‘विदेशियों’ के रूप में होती हैं उनको यहां रखा जाता है.
इस साल 31 जनवरी तक के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामे में प्रस्तुत किया गया, जिससे पता चला, इन कैंपो में बंदियों की संख्या 938 है. ये बंदी बहुत दर्दनाक परिस्थितियों में रहते हैं और बुनियादी मानवीय ज़रूरतों से भी वंचित रहते हैं.
अबेदिन भी एक ऐसा ही बंदी था, लेकिन आज खुद को बंदिशों से मुक्त पाता है.
इस साल की शुरुआत में दिप्रिंट द्वारा किये गए इंटरव्यू में वह कथित ‘विदेशियों’ में से एक हैं. सभी लोगों ने अपनी दुर्दशा के बारे में दिप्रिंट को बताया था.
एनआरसी को ध्यान में रखते हुए हमने साक्षात्कर्ताओं को ट्रैक किया कि वे और उनके परिवार विवादास्पद एनआरसी सूची जारी होने के बाद कहां हैं. उनमें से कुछ ने कहा कि वे निर्दोष हैं और दूसरों ने खुद का नाम सूची में आने में आश्चर्य प्रकट किया.
विरोधाभास
पिछले साल 28 दिसंबर को बारपेटा ज़िले के कठझार पाठा गांव के निवासी 55 वर्षीय अबेदिन को गुवाहाटी उच्च न्यायालय के आदेश पर गोलपारा के डिटेंशन कैंप से रिहा कर दिया गया था. 14 महीने वहां बिताने से पहले उन्हें अधूरे दस्तावेजों के कारण एक विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा ‘विदेशी’ घोषित किया गया था.
विडंबना यह है कि दिसंबर 2017 के पहले एनआरसी मसौदे में उनका नाम था. एक ‘विदेशी’ का लेबल देने और उन्हें डिटेंशन कैंप में भेजे जाने के बावजूद नाम अंतिम एनआरसी से बाहर नहीं रखा गया.
उनके सभी चार बेटों और तीन बेटियों में से एक का नाम सूची में है- लेकिन, उनकी एक विवाहित बेटी को सूची से बहार रखा गया है.
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दुर्भाग्य की बात है कि अबेदिन की पत्नी हजेरा खातून, जिनकी उम्र 50 वर्ष के आसपास है. उनका नाम सूची में नहीं है. एक गरीब दिहाड़ी मजदूर अबेदिन के परिवार को अपना केस लड़ने के लिए बहुत कुछ छोड़ना पड़ेगा. अब, वे गुस्से में हैं.
उन्होंने कहा, ‘डिटेंशन कैंप से बाहर आने के बाद मुझे महीनों तक नौकरी नहीं मिली. अब मैं गुवाहाटी में रिक्शा खींचने के लिए मजबूर हूं.’
उन्होंने कहा, ‘हम कर्ज में डूबे हुए हैं, मेरी बेटी की पढ़ाई रोकनी पड़ी. मैं इतने ट्रामा से गुज़रा, किसी को भी ऐसे परिस्थिति से नहीं गुज़रना चाहिए और यह सब किसलिए? एनआरसी में अब मेरा नाम है. मैं सबको यही कह रहा हूं- हम विदेशी नहीं हैं.’
अबेदिन के 22 साल के बेटे हबीस अली ने कहा, ‘अधिकारियों ने उन पर संदेह किया. यह केवल संदेह ही था. जब मेरे पिता डिटेंशन सेंटर में थे, तो हम बहुत डर में रहते थे. पहले दो महीने तक हम घर पर नहीं रहते थे, क्योंकि हम बहुत डरते थे कि हमें उठा लिया जायेगा. अब, हमें अपनी मां के साथ उसी चक्र से गुजरना होगा और हमारे पास बिल्कुल भी पैसा नहीं होगा.’
गांव के कुछ युवा लड़कों द्वारा इंटरनेट पर देखने के बाद परिवार को उनकी एनआरसी स्थिति का पता चला. अबेदिन के मामले की वर्तमान स्थिति के बारे में परिवार को कोई जानकारी नहीं है और वह लोग विश्वास करते हैं कि अभी भी उच्च न्यायालय और स्थानीय वकील मामले को देख रहे हैं.
उनका कहना है कि ‘उन पर जो कुछ भी गुजरा है उसकी ‘क्षतिपूर्ति’ सरकार को करनी चाहिए.’
हालांकि, हज़ारा खातून ने इस तथ्य को खारिज कर दिया कि उनके पति की रिहाई की खुशी अल्पकालिक साबित हुई है. ‘मुझे पता है कि डिटेंशन कैंप में जीवन कैसा होता है. मुझे बहुत डर लगता है और पता नहीं क्या करना है. उन्होंने कहा, ‘मेरा नाम अंततः (एनआरसी) में दिखाई देगा?’
अबेदिन ने कहा, ‘मेरा पूरा परिवार मुसीबत से गुजरा है. मैं किसी भी तरह से जीवन जीने में कामयाब रहा, कोई नहीं कर सकता.’
परिवार आशंकित है
कई लोग इस बात को लेकर संघर्ष कर रहे हैं कि एक परिवार के अलग-अलग लोगों की स्थिति (एनआरसी में) कैसे अलग-अलग हो सकती है.
बारपेटा के बोगोरिघुरी गांव की रहने वाली 60 वर्षीय सोफिया खातून भ्रम को लेकर बताती हैं. पिछले साल 12 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले उन्हें असम के छह डिटेंशन कैंप में से एक में एक साल बिताना पड़ा था.
खातून डिटेंशन कैंप में रहने को ‘नरक से भी बदतर’ बताती हैं, उनका नाम एनआरसी में नहीं आया है. हालांकि, उनके पति का नाम एनआरसी में है. उनके चार बच्चों में से एक बेटा और दंपति की अकेली बेटी एनआरसी सूची में है, जबकि दो बेटों का नाम नहीं हैं. परिवार के इस तरह के विभाजन ने उन्हें भौंचक्का कर दिया है.
खातून के बेटे सद्दाम हुसैन से पूछा, ‘मेरी मां एक विदेशी हैं, मेरे पिता एक भारतीय हैं. मेरे भाई और बहन भारतीय हैं. लेकिन, मेरा छोटा भाई और मैं भारतीय नहीं हैं. यह कैसे संभव है. उन्होंने दावों को लेकर अपील किया और तीन बार सुनवाई के लिए गए लेकिन फिर भी उनको मदद नहीं मिल सकी.
उन्होंने कहा, ‘मैंने अपने पिता की विरासत के दस्तावेज दिए, अगर वह एनआरसी के अंदर हैं, तो मुझे भी होना चाहिए, अगर अपनी मां के कारण मैं एनआरसी में नहीं आ पाया हूं है, तो मेरे किसी भी भाई-बहन को भी नहीं होना चाहिए. इसका कोई अर्थ नहीं निकलता. लेकिन जाहिर है यह हमें डरा रहा है.’
खातून का मामला फिलहाल उच्चतम न्यायालय में है. हालांकि, वह इस बात पर विश्वास नहीं कर पा रही हैं कि क्यों उन्हें ‘विदेशी’ के रूप में पहचाना गया है.
उन्होंने कहा, ‘मेरे पांच भाई-बहन हैं. उन सबका नाम एनआरसी सूची में आया है. यह कैसे संभव हो सकता है कि मैं सूची में नहीं हूं? हमारे पास एक ही विरासत है.
दिप्रिंट स्वतंत्र रूप से उनके दावों को सत्यापित नहीं कर सकता है.
सिलचर में, सुलेखा दास का परिवार खुद को इसी स्थिति में पाता है. सिलचर के तालीग्राम में 60 वर्षीय निवासी कोकराझार डिटेंशन कैंप में पिछले साल अप्रैल से हैं और उनके परिवार की रातों की नींद हराम है. उनका भी नाम एनआरसी में नहीं आया है उनके तीन बच्चों में से दो बेटे और एक बेटी में से केवल एक बेटे ने अंतिम एनआरसी सूची में जगह बनाई है.
एनआरसी के अधिकारियों का दावा है कि वे परिवारों को समग्र रूप से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत रूप में देखते हैं और उनके कागज़ात में कोई भी विसंगति, त्रुटि या तकनीकी गलतियां ऐसी स्थितियों को जन्म दे सकती हैं.’
‘कोई भी खुश नहीं है’
असम में जिन्हें मतदाता सूची में संशोधन के दौरान ‘डी-वोटर’ या ‘संदिग्ध मतदाता’ के रूप में पहचाना गया है, उनके भाग्य का फैसला होने से पहले एक विदेशी ट्रिब्यूनल के सामने पेश होने के लिए नोटिस भेजे जाते हैं.
डी-वोटर या संदिग्ध मतदाता की पहचान करने की पहली ऐसी कवायद 1997 में की गई थी, जब 2,20,209 लोगों को इस तरह ही चिन्हित किया गया था.
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बारपेटा के 46 वर्षीय इदरीस अली उनमें से एक हैं. वे कहते हैं कि जब उन्हें 1997 में ‘डी-वोटर’ घोषित किया गया, तो उन्हें कभी नोटिस नहीं भेजा गया और इसलिए उन्होंने कानूनी रूप से इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया. अंतिम एनआरसी सूची में उनका और उनके बच्चों का नाम नहीं आया, लेकिन वह दावा करते हैं कि उनके भाइयों और मां के नाम हैं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘मैंने सोचा था कि एनआरसी मेरी समस्या को हल कर सकता है, लेकिन ऐसा लगता है कि इसने और बदतर बना दिया है ईमानदारी से जब मुझे पहली बार इसके बारे में बताया गया था, तो मुझे यह भी समझ में नहीं आया कि डी-वोटर क्या होता हैं, इसलिए इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया. अगर मेरी मां और भाई नहीं होंगे तो मैं विदेशी क्यों रहूंगा? अब हम वास्तव में नहीं जानते कि क्या करना है.’
39 वर्षीय अली की पत्नी शहतून भी इस सूची में हैं. विवाहित महिलाओं को अपने पिता और दादा के विरासत दस्तावेजों को देने की आवश्यकता है, न कि उनके पतियों की, जिसके कारण यह विसंगति दुर्लभ नहीं है. लेकिन शहतून कहती हैं कि उसे इस बारे में कुछ भी अच्छा महसूस नहीं होता है.
वह कहती हैं ‘मेरा नाम हो सकता है कि सूची में आ जाये, लेकिन मैं कैसे खुश हो सकती हूं. जब मेरे बच्चे और पति एनआरसी सूची से बाहर रह गए हों? यह कैसा देश है जो एक मां से कहता है कि तुम हमारी हो, लेकिन तुम्हारे बच्चे और पति नहीं हैं?’
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