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Sunday, 22 December, 2024
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असम आंदोलन का केंद्र रहे मंगलदोई में साफ दिखता है कि एनआरसी क्यों है भारी अराजकता की वजह

मंगलदोई में, जहां कि 1978 में पहली बार एनआरसी में संशोधन की मांग उठी थी, शायद ही कोई परिवार नागरिकता साबित करने की इस प्रक्रिया में अविभाजित बच गया हो.

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मंगलदोई, असम: असम के दरांग जिले के मंगलदोई में ही चार दशक पहले राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को अद्यतन करने के बीज पड़े थे. इसलिए एनआरसी की अंतिम सूची के प्रकाशन के दो दिन बाद इस जटिल प्रक्रिया से जुड़ी गड़बड़ियों, इसकी पूर्णता और इसके त्रासद परिणामों को जानने के लिए मंगलदोई से उपयुक्त और कोई स्थान शायद ही होता.

31 अगस्त को प्रकाशित एनआरसी की अंतिम सूची में 19 लाख लोगों के नाम नहीं हैं. ड्राफ्ट सूची में 40 लाख लोगों के नाम नहीं थे. इस तरह अंतिम सूची में एनआरसी से बाहर रहे लोगों की संख्या ड्राफ्ट सूची के मुकाबले लगभग आधी ही रह गई, पर इससे संबंधित जटिलताएं दोगुनी हो गई मालूम पड़ती हैं. सूची को लेकर बने अराजकता, अनिश्चितता, संदेह और बेचैनी के माहौल के मद्देनज़र कहा जा सकता है कि एनआरसी में संशोधन की प्रक्रिया से कुछ खास हासिल नहीं हुआ है.

वैसे तो एनआरसी को अद्यतन करने की वास्तविक प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद 2015 में शुरू हुई, पर इसकी मांग मंगलदोई लोकसभा क्षेत्र में 1978 में हुए उपचुनाव के दौरान ही ज़ोर पकड़ने लगी थी. उपचुनाव तत्कालीन सांसद हीरालाल पटवारी के निधन के कारण कराया गया था.

तब पंजीकृत मतदाताओं की संख्या अचानक काफी बढ़ जाने के बाद ये संदेह व्यक्त किया जाने लगा था कि ऐसा बांग्लादेशी प्रवासियों के कारण हुआ होगा. इसी मुद्दे पर आगे चल कर 1979 में असम आंदोलन शुरू हुआ जो छह वर्षों के बाद इस आश्वासन के साथ समाप्त हुआ कि 1951 के एनआरसी को अद्यतन किया जाएगा.

ठीक 40 वर्षों के बाद, मंगलदोई में साफ दिखता है कि इस विवादास्पद प्रक्रिया किस कदर अव्यवस्था का शिकार हो गई, और क्यों आगे की राह अस्पष्ट नज़र आती है.

मंगलदोई में नॉटरी दफ्तर के बाहर खड़े लोग | फोटो : रूही तिवारी

अराजकता का आलम

एनआरसी का सबसे स्पष्ट परिणाम परिवारों में विभाजन के रूप में सामने आया है, और ऐसा खास कर धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों में देखने को मिला है. मंगलदोई की यात्रा के दौरान दिप्रिंट ने पाया कि अल्पसंख्यक समुदाय के लगभर हरेक परिवार को इस स्थिति से गुजरना पड़ रहा है.

अब्दुल बारेक़ ने बताया, ‘मैं 1994 से ही सरकारी शिक्षक हूं. मैं यहां के एक प्रतिष्ठित परिवार से आता हूं. मेरे बड़े चाचा स्वतंत्रता सेनानी थे. इस सड़क को उन्हीं का नाम दिया गया है. पर मेरा नाम एनआरसी में नहीं है.’ बारेक़ के लिए स्थिति विचित्र इस कारण से भी हो गई है कि उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों के नाम सूची में शामिल हैं.


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वह कहते हैं, ‘सबसे हास्यास्पद बात ये है कि मेरे माता-पिता, मेरे अधिकतर भाई-बहनों, बच्चों, भतीते-भतीजियों के नाम लिस्ट में हैं. सिर्फ मैं और मेरी छोटी बहन एनआरसी में आने से रह गए. हालांकि सभी ने एक जैसे लीगेसी (पैत्रिकता संबंधी) दस्तावेज़ जमा कराए थे.’

पर ये कहानी सिर्फ बारेक़ की ही नहीं है. एनआरसी प्रक्रिया के भुक्तभोगियों की सूची खासी लंबी मालूम पड़ती है.
मोवामारी गांव के अब्दुल सलाम उम्र के पांचवें दशक में हैं. उन्होंने कहा, ‘मैं और मेरे भाई ने एक जैसे लीगेसी दस्तावेज़ जमा कराए थे; हम एक ही घर में रहते हैं. फिर भी, उसका नाम तो रजिस्टर में है, पर मेरा नहीं है. ऐसा कैसे हो सकता है? स्पष्ट है कि कुछ ना कुछ गलत है. ये हमारा जन्मस्थान है.’

श्यामपुर के ग्रामीणों की भी ऐसी ही कहानी है. नाराज़ अब्दुल करीम कहते हैं, ‘मेरे बच्चों के नाम तो शामिल हैं, पर मेरा नाम नहीं. ऐसा कैसे संभव है कि वे तो भारतीय नागरिक हैं, पर मैं नहीं हूं? जबकि बच्चों के लीगेसी दस्तावेज़ मैंने ही दिए हैं.’

जिन लोगों का नाम अंतिम ड्राफ्ट सूची में नहीं था उनमें से अधिकतर ने आधिकारिक रूप से अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी. उसके बाद सुनवाइयां हुईं, जिन रिश्तेदारों के नाम शामिल किए गए थे उनकी गवाही ली गई और अतिरिक्त दस्तावेज मांगे गए. पर इतना सब करने पर भी उनके नाम शामिल नहीं हुए.

एनआरसी अधिकारी ऐसे मामलों के पीछे लोगों के दस्तावेज़ों में हिज्जे की गलतियों और वास्तविक नाम की जगह उपनाम दर्ज होने जैसी त्रुटियों को दोष देते हैं.

अपना नाम प्रकाशित नहीं किए जाने की शर्त पर एक अधिकारी ने कहा, ‘हो सकता है लीगेसी दस्तावेज़ एक समान हों. पर एक भाई जहां दस्तावेज़ सही से जमा कराता है, जबकि दूसरे के दस्तावेज़ में वर्तनी, जन्मतिथि, असल नाम की जगह उपनाम जैसी त्रुटियां हैं, तो ऐसे मामलों में समस्या खड़ी हो जाती है. साथ ही, हमें ऐसे मामले भी देखने को मिले जब सूची में शामिल होने के लिए लोगों ने भाई-बहनों और रिश्तेदारों के बारे में झूठी जानकारियां दी थीं.’

‘मंगलदोई का, और मुसलमान होने का खामियाज़ा’

जहां कुछ लोग इन विसंगतियों की वजह ‘संबंधित अधिकारी के विवेक और व्यक्तिगत समझ’ को बताते हैं, वहीं कई लोग इसके गंभीर मायने निकालते हैं. मंगलदोई गांव के मुहम्मद फज़ल ने कहा, ‘यही वो जगह है जहां आंदोलन शुरू हुआ था. चिंताओं को वाजिब ठहराने के लिए उनके पास आंकड़ों में घपलेबाज़ी के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह गया था. और इसी कारण उन्होंने आधे परिवार को अंदर और आधे को बाहर दिखाने की मनमानी करने का फैसला किया.’

श्यामपुर गांव के अब्दुल करीम दस्तावेज़ दिखाते हुए | फोटो : रूही तिवारी/दिप्रिंट

इस राय से इत्तेफाक रखने वाले बहुत से लोग हैं और उनका ये भी कहना है कि ये ‘अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और अवैध प्रवासियों के नंबर बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने में उनका इस्तेमाल करने’ का एक तरीका है. ऑल असम मुस्लिम स्टुडेंट्स यूनियन (आमसू) के कार्यकारी अध्यक्ष ऐनुद्दीन शेख कहते हैं, ‘आप आंकड़ों पर गौर करें, सूची से बाहर रखे गए लोगों में सर्वाधिक दरांग ज़िले के अल्पसंख्यक बहुल इलाकों से हैं.’


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‘मंगलदोई अंचल में करीब 30 फीसदी लोगों को रजिस्टर में जगह नहीं दी गई है. पर पैटर्न वही है — एक ही परिवार के कुछ सदस्य सूची में हैं, जबकि बाकी बाहर हैं. इससे अराजकता फैल गई है.’

आगे है लंबी राह

आगे की राह अधिकांश लोगों को कठिन नज़र आती है. सूची से बाहर रखे गए लोगों को एक लंबी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना होगा, जिसकी शुरुआत विदेशी न्यायाधिकरण में अपील से होती है. इससे जुड़ी असुविधाओं का सामना करने के अलावा बहुतों के लिए इस प्रक्रिया का वित्तीय बोझ भी भारी साबित होगा.

खेतासर के 25 वर्षीय ताहर अली सवाल करते हैं, ‘हममें से कोई भी पैसेवाला नहीं है. हम वकीलों की फीस कहां से चुकाएंगे?’ उन्होंने इसके लिए आवाजाही में लगने वाले खर्च और समय की बात भी उठाई और कहा कि इस कारण बहुतों के काम-धंधे भी बाधित होंगे. बहुत ही कमज़ोर तबके के कई लोगों ने कहा कि वे कुछ नहीं करने जा रहे ‘जब तक कि सरकार उन्हें निकाल कर बाहर नहीं फेंक देती.’

अभी तो मंगलदोई – जो कि एक तरह से एनआरसी में संशोधन प्रक्रिया के लिए जिम्मेदार है – यही साबित करता है कि क्यों इस प्रक्रिया ने घबराहट, भ्रम और संदेह पैदा करने के अलावा और कुछ भी नहीं किया है.

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