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Sunday, 22 December, 2024
होमदेशआर्बिट्रेटर पूल को पूर्व-न्यायाधीशों तक सीमित नहीं होना चाहिए- SC के पूर्व न्यायाधीश हेमंत गुप्ता

आर्बिट्रेटर पूल को पूर्व-न्यायाधीशों तक सीमित नहीं होना चाहिए- SC के पूर्व न्यायाधीश हेमंत गुप्ता

भारत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र के चेयरमैन का मानना है कि मध्यस्थता की प्रक्रिया को संस्थागत बनाने की आवश्यकता है ताकि मध्यस्थता प्रभावी वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्र बन सके.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और इंडिया इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन सेंटर (आईआईएसी) के अध्यक्ष हेमंत गुप्ता ने कहा है कि भारत में मध्यस्थता या आर्बिट्रेशन को नियंत्रित करने वाले कानूनी ढांचे में तदर्थ मध्यस्थता यानी एड-हॉक आर्बिट्रेशन को खत्म करने और इसे संस्थागत मध्यस्थता से बदलने की जरूरत है.

दिप्रिंट के साथ एक विशेष बातचीत में, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि भारत में लोग इस मानसिकता के साथ बड़े हो गए हैं कि यहां केवल “तदर्थ मध्यस्थता जिसमें अदालतें पूर्व न्यायाधीशों को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त करती हैं” का चलन है.

उन्होंने कहा, “यह (तदर्थ मध्यस्थता) समाप्त होनी चाहिए और मध्यस्थों की नियुक्ति पूर्व न्यायाधीशों तक सीमित न रहकर इसमें अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों को भी शामिल करना चाहिए. मध्यस्थता की प्रक्रिया को संस्थागत बनाने की आवश्यकता है ताकि मध्यस्थता विनियमित हो और एक प्रभावी वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्र बन जाए.”

उन्होंने कहा, “संगठित मध्यस्थता भारत की आर्थिक वृद्धि पर सकारात्मक प्रभाव डालेगी और यहां व्यापार करने के इच्छुक वैश्विक निवेशकों में विश्वास भी पैदा करेगी.”

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त होने के दो महीने बाद, न्यायमूर्ति गुप्ता को पिछले साल दिसंबर में आईआईएसी अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था.

IIAC एक केंद्र सरकार समर्थित मध्यस्थता केंद्र है, जिसे भारत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र अधिनियम के तहत स्थापित किया गया था. कानून ने आईआईएसी को राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित किया जिसका लक्ष्य संस्थागत मध्यस्थता के लिए एक स्वतंत्र और स्वायत्त शासन बनाना है.

मध्यस्थता की प्रक्रिया – जिसमें पार्टियों के समझौते से विवाद को एक या अधिक मध्यस्थों को प्रस्तुत किया जाता है जो विवाद पर बाध्यकारी निर्णय लेते हैं – का उद्देश्य वित्तीय अनुबंधों से उत्पन्न होने वाले वाणिज्यिक विवादों का त्वरित समाधान प्रदान करना है.

भारत में मध्यस्थता, आर्बिट्रेशन एंड कॉन्सिलिएशन ऐक्ट, 1996 द्वारा शासित होती है. हालांकि, मध्यस्थता कार्यवाही में लंबी देरी ने कानून के उद्देश्य को विफल कर दिया है.

यद्यपि कानून संस्थागत मध्यस्थता की अनुमति देता है, फिर भी तदर्थ मध्यस्थता अधिक लोकप्रिय हैं, जहां अदालतें पूर्व न्यायाधीशों को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त करती हैं.


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‘डोमेन स्पेशलिस्ट की ज़रूरत’

मौजूदा मध्यस्थता प्रणाली में कमियों पर प्रकाश डालते हुए, न्यायमूर्ति गुप्ता ने इस बात पर जोर दिया कि वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्र के तहत सभी तीन चरणों – मध्यस्थों की नियुक्ति, कार्यवाही का संचालन और मध्यस्थता पुरस्कार को अंतिम रूप देना – में मॉड्यूलेशन की आवश्यकता है.

इसके अलावा, उन्होंने कहा, केवल सिस्टम का संस्थागतकरण ही मध्यस्थता कार्यवाही की शुल्क संरचना को विनियमित कर सकता है, जो उनके विचार में, पिछले कुछ वर्षों में चिंता का विषय बन गया है, जिसमें खर्च कई गुना बढ़ गया है.

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा, “हालांकि मध्यस्थता अधिनियम के तहत चौथी अनुसूची मध्यस्थ को दिए जाने वाले शुल्क के साथ-साथ कार्यवाही समाप्त करने की समयसीमा भी निर्धारित करती है, लेकिन उनका पालन शायद ही कभी किया जाता है.”

उनके मुताबिक समस्या नियुक्ति से ही शुरू हो जाती है. फिलहाल, यह कानून घरेलू विवादों में उच्च न्यायालय को और अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक विवादों के मामले में उच्चतम न्यायालय को मध्यस्थ नियुक्त करने का अधिकार देता है.

पूर्व न्यायाधीश ने बताया कि मध्यस्थ की नियुक्ति में बहुत समय लगता है और कई मामलों में यह अंतिम फैसला लेने के लिए अदालत में अटका रहता है.

उन्होंने याद दिलाया कि जब वह सुप्रीम कोर्ट में थे, तो शीर्ष अदालत ने विभिन्न राज्य उच्च न्यायालयों से डेटा एकत्र किया था, जिससे पता चला कि “मध्यस्थों की नियुक्ति की मांग करने वाले 900 आवेदन महाराष्ट्र में, 800 दिल्ली में और कुछ हद तक पंजाब में भी लंबित थे.”

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा, “अगर मध्यस्थ की नियुक्ति, जो मध्यस्थता कार्यवाही में पहला चरण है, में लंबा समय लगता है, तो जाहिर है, हर चीज में देरी होती है.”

उन्होंने बताया कि नियुक्तियों के संबंध में एक और कठिनाई वह पूल है जहां से मध्यस्थों को चुना जा सकता है. यह सेवानिवृत्त शीर्ष अदालत के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों या जिला न्यायाधीशों तक सीमित है. दुर्लभ मामलों में, एक वकील को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जाता है.

उन्होंने कहा,“दुनिया भर में, न्यायाधीश संभवतः बहुत कम संख्या में मध्यस्थ बनते हैं. ऐसे व्यक्तियों को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जाता है जो विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञ होते हैं,” उन्होंने कहा कि न्यायाधीश उन विवादों को संभालने के लिए सुसज्जित या प्रशिक्षित नहीं हैं जो प्रकृति में तकनीकी हैं, जैसे कि ऊर्जा क्षेत्र में विवाद. “इसलिए, ऐसी मध्यस्थता के लिए डोमेन स्पेशलिस्ट की ज़रूरत होती है.”

तदर्थ मध्यस्थता (ad-hoc Arbitration) के साथ समस्या

न्यायमूर्ति गुप्ता ने जोर देकर कहा कि तदर्थ मध्यस्थताएं अनियमित रहती हैं. हालांकि पार्टियां एक समयसीमा का पालन करने के लिए सहमत होती हैं, लेकिन कई बार मध्यस्थता की कार्यवाही आगे के लिए बढ़ जाती है और अदालतें इसकी अनुमति देती हैं.

कानून के अनुसार, घरेलू मध्यस्थता कार्यवाही में दलीलें छह महीने के भीतर पूरी होनी चाहिए और 12 महीने में फैसला सुनाया जाना चाहिए.

एक और कारण है कि मध्यस्थता अक्सर कानून में उल्लिखित समय सीमा के बाद भी जारी रहती है क्योंकि कानूनी अभ्यास के इस विशेष क्षेत्र के लिए कोई डेडीकेटेड बार नहीं है. पूर्व न्यायाधीश ने कहा, “मध्यस्थता को अंशकालिक काम के रूप में माना जाता है और वकील ज्यादातर अदालती काम खत्म होने के बाद या शनिवार और रविवार को उपस्थित होना पसंद करते हैं.”

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा, इसी तरह, मध्यस्थों के लिए शुल्क राशि पर भी बातचीत की जाती है. उन्होंने कहा, “विवाद में शामिल पक्ष स्वयं ऐसी राशि की पेशकश करते हैं जो अधिनियम में निर्धारित शुल्क से अधिक है.”

इस बात पर कि संस्थागत मध्यस्थता केवल क़ानून की किताब में ही क्यों रह गई है, लेकिन इसे प्रोत्साहित नहीं किया गया है, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि चूंकि कानून बनाया गया था – पहले 1940 में और फिर 1996 में फिर से काम किया गया – लेकिन भारत में कई संस्थान स्थापित नहीं हुए जहां मध्यस्थता को रिफर किया जा सके.

उन्होंने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में जो सामने आए हैं, उन्होंने संस्थानों को मध्यस्थ नियुक्त करने देने के लिए अदालतों को मनाने के लिए सामूहिक प्रयास करने के बजाय अलग-अलग दायरे में काम किया है.

न्यायमूर्ति गुप्ता ने आगे कहा कि अंतर्राष्ट्रीय परंपरा के विपरीत, जहां अधिवक्ता निकायों ने अत्याधुनिक मध्यस्थता केंद्र स्थापित करने का बीड़ा उठाया है, भारत ने कानूनी बिरादरी की तरफ से ऐसा कोई प्रयास नहीं देखा है.

उन्होंने कहा, ”भारत एक मात्र ऐसा देश है जहां (मध्यस्थता पर) किसी संस्था को मध्यस्थ नियुक्त करने की अनुमति नहीं है (क्योंकि अदालत ऐसा करती है).”

न्यायमूर्ति गुप्ता ने हाल के एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को याद किया “जहां सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा न्यायाधीश ने कहा था कि यदि वे (अदालतें) न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकते हैं, तो वे मध्यस्थों की भी नियुक्ति कर सकते हैं.”

उन्होंने कानून में उस प्रावधान को हटाने का, जो अदालत को एक मध्यस्थ को नामित करने की अनुमति देता है, आह्वान करते हुए कहा,“यह मानसिकता बदलनी चाहिए.”

कानूनी ढांचे में “खामियों” के बारे में बात करते हुए, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा, “अंतर-न्यायालय अपीलों को कम करने और मध्यस्थता कार्यवाही में देरी करने के लिए कानून में संशोधन किया जाना चाहिए”.

इसके अलावा, जिन आधारों पर अंतिम फैसले को चुनौती दी जा सकती है, उन्हें स्पष्ट और विशिष्ट बनाने की जरूरत है. वर्तमान में, उन्होंने आरोप लगाया, कानून में अपील के लिए “व्यापक” और “अस्पष्ट” आधार हैं.

उन्होंने कहा, अंतिम मध्यस्थता के बाद दिए गए फैसले को लागू कराने के लिए, “ज्यादातर समय, मध्यस्थता जीतने वाले पक्ष को फैसले के क्रियान्वयन के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि हारने वाला वादी पुरस्कार का सम्मान नहीं करता है. यह एक और क्षेत्र है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है.”

नये नियम

आईआईएसी की भूमिका पर, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि संस्था ने मध्यस्थों का एक व्यापक-आधारित पैनल बनाया है जो 35 से 75 वर्ष के आयु वर्ग में हैं. पैनल पूर्व न्यायाधीशों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि चार्टर्ड अकाउंटेंट, इंजीनियर और अन्य विशेषज्ञ शामिल हैं.

पिछले महीने केंद्र द्वारा अधिसूचित मध्यस्थता नियमों के अनुसार, मध्यस्थ के लिए फी स्ट्रक्चर निर्धारित की गई है. यह संस्था को संदर्भित विवाद में शामिल फाइनेंशियल स्टेक पर आधारित है.

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि शुल्क का भुगतान पहले से नहीं दिया जाएगा. इसके अलावा, कार्यवाही को पूरा करने के लिए एक सख्त समय-सारिणी का पालन किया जाएगा.

साथ ही, उन्होंने कहा, नियम फैसले की आंतरिक समीक्षा की अनुमति देते हैं. न्यायमूर्ति गुप्ता ने स्पष्ट करते हुए कहा, “निर्णय को सार्वजनिक करने से पहले, हमारे रजिस्ट्रार यह सुनिश्चित करने के लिए इसकी समीक्षा करेंगे कि कैलकुलेशन से संबंधित तो त्रुटियां नहीं हैं या मध्यस्थता न्यायाधिकरण ने दोनों पक्षों में से किसी एक द्वारा उठाए गए तर्क से तो डील नहीं किया है.” साथ ही यह भी कहा कि दिए गए फैसले के आधार पर कोई रिव्यू नहीं किया जाएगा.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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