नोएडा: संदीप यादव, 32 वर्षीय प्रवासी मजदूर अपने गृह राज्य बिहार में हो रहे चुनाव में शामिल नहीं होंगे. नोएडा में 10 फीट बाई 10 फीट के अपने कमरे में बैठे संदीप दिप्रिंट से हुई बातचीत में कहते हैं, ‘मैं इतना असहाय महसूस करता हूं कि मैं किसी भी पार्टी को वोट नहीं देना चाहता.’ संदीप यहां अपनी पत्नी और तीन बेटियों के साथ रह रहे हैं.
संदीप और उनका परिवार उन कई प्रवासी मजदूरों में से एक हैं, जो नोएडा के सेक्टर 122 में परथाला मार्केट में रहते हैं, सड़क के उस पार ऊंची बिल्डिंगों में बने हुए आलीशान अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स हैं. एक ऐसी स्काइलाइन जो एनसीआर सबअरब्स में दिखाई देती है.
मई के महीने में राष्ट्रव्यापी प्रवासी मजदूरों के पलायन के दौरान बिहार में अपने घर पहुंचे संदीप के जेहन में कोविड-19 लॉकडाउन के घाव अभी भी ताजा हैं. संदीप और रेखा, जो उस समय गर्भवती थीं, ने घर तक की तीन चौथाई यात्रा यानि की 900 किलोमीटर की दूरी ट्रक में पूरी की थी.
मई के पहले पखवाड़े में अपने गांव तक आखिरी मील नापने के लिए गोपालगंज के ट्रांजिट सेंटर पर बसों का इंतजार कर रहे हजारों मज़दूरों के बीच फंसे रेखा और संदीप को हमने पहली बार देखा था.
रेखा को ट्रांजिट सेंटर पर प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी. स्थानीय प्रशासन की मदद से उन्हें सदर अस्पताल ले जाया गया जहां रेखा ने अपनी पांचवीं बेटी को जन्म दिया. यादव एक महीने पहले ही दिल्ली एनसीआर लौट आए हैं. उनके आने के तीन सप्ताह बाद ही उनकी पत्नी और तीन बेटियां भी दिल्ली आ गईं. दो बेटियों को गांव में दादा-दादी के साथ छोड़ आई हैं.
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‘माहौल राजनीतिक है’
संदीप शाम को लगने वाले बाजार में मसाले की दुकान लगाने की तैयारी कर रहे थे जब गांव से किसी का फोन आया. 5,600 मतदाताओं का गांव, बलहा सुपौल विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जहां आगामी 7 नवंबर को तीसरे चरण में मतदान होना है.
संदीप ने फोन रखने के बाद दिप्रिंट को बताया, ‘उधर माहौल राजनीतिक हो गया है. लेकिन मैंने चुनाव में वोट न देने का फैसला किया है. हालांकि मेरे पिताजी वोट डालने जाएंगे. पिछली बार मैंने 2010 के विधानसभा चुनाव में ही वोट दिया था. अभी चुनाव में वोट डालने के लिए रहने का मतलब था कि अपनी रोजी-रोटी जुगाड़ने वाले एक महीने को बर्बाद करना. मैं दोबारा तब वोट डालने जाऊंगा जब वहां सरकार एक कारखाना खोल देगी.’
एक ओर सुपौल विधानसभा सीट से एनडीए के उम्मीदवार हैं जेडीए के नेता विजेंद्र प्रसाद यादव. विजेंद्र प्रसाद यादव इस सीट से साल 1990 से ही लगातार जीत रहे हैं. दूसरी ओर महागठबंधन ने कांग्रेस के मिन्नत रहमानी को अपना उम्मीदवार बनाया है.
सुपौल की सरकारी वेबसाइट बताती है कि 181 ग्राम पंचायतों वाले इस जिले में 556 गांव हैं. ये जिला मिथिलांचल का एक हिस्सा है और मत्स्य क्षेत्र के नाम से जाना जाता रहा है. इसके अलावा सुपौल के इतिहास का वर्णन किया गया है.
लेकिन यादव अपने जिले के इस पुराने अतीत में कोई प्रासंगिकता नहीं पाते हैं. वो कहते हैं, ‘ये सब बातें चुनाव के दौरान भी इमोशन जगाती हैं. लेकिन चुनाव खत्म होने के बाद इन बातों का क्या मतलब है.’
बलहा गांव सुपौल के मुख्य शहर से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. संदीप के पास गांव की ज्यादातर यादें वहां की बेरोजगारी और गरीबी से जुड़ी हैं. वो बताते हैं, ‘मैंने 2005 के आसपास गांव छोड़ा था लेकिन अभी मैं साल में एक बार जाता हूं तो वही हालात हैं. स्थानीय अखबारों में ये अक्सर नल-जल योजना से पानी नहीं मिलने की खबर में छाया रहता है.’
बिहार में रोज़गार के अवसरों की कमी विधानसभा चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभरी है. कोविड लॉकडाउन ने अजनबी शहरों में फंसे बिहार के लाखों प्रवासी श्रमिकों को घर आने के लिए मजबूर किया. इसके लिए उन्होंने कई कठिन यात्राएं तय कीं.
राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, लॉकडाउन के दौरान, श्रमिक गाड़ियों के लॉन्च के बाद से लगभग 23.6 लाख प्रवासी मज़दूर बिहार के 32 जिलों में लौट आए थे.
जिसकी वजह से लोकल नौकरियों की मांग तेज होती गई ताकि बिहार के लोगों को दूसरे राज्यों में जाने की जरूरत न पड़े. जेडीयू और साथ में मिलकर लड़ रही भाजपा व राजद ने इस मांग का जवाब लाखों नौकरियां पैदा करने वाले चुनावी वादे के तौर पर दिया है. लेकिन बहला गांव के मुखिया दिनेश पासी, दिप्रिंट से हुई टेलिफॉनिक बातचीत पर कहते हैं, ‘प्रवासी मज़दूरों में गुस्सा ‘अभी भी अधिक है.’
वो जोड़ते हैं, ‘कारख़ानों के बारे में तो भूल जाओ, ज्यादातर साल हम बाढ़ के कारण खेतों तक में काम नहीं कर पाते हैं.’
पासी के अनुसार, ‘कोविड से पहले ही गांव की लगभग 60 फीसदी आबादी नौकरी और मज़दूरी के लिए दूसरे राज्यों में चली गई थी. लेकिन जब राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हुई तो उनमें से ज्यादातर लोग वापस लौट आए थे. लेकिन अब जो लोग लौटे थे उनमें से भी 20 फीसदी वापस उन्हीं राज्यों में चले गए हैं.’
वो आगे जोड़ते हैं, ‘संदीप इस बेबसी को महसूस करने वाले अकेले नहीं हैं. हर एक मज़दूर को अपने परिवारों का पेट भी पालना पड़ता है. कई महीनों तक घर बैठे रहने का जोखिम वो नहीं उठा सकते.’
संदीप की तरह ही वोट देने के लिए नही रुकने वाले एक अन्य प्रवासी मजदूर कहते हैं, ‘चुनाव एक मेले की तरह है. आप बस इसके मूड को पसंद करते हैं और खुद महत्वपूर्ण महसूस करते हैं. मैं संदीप से सहमत हूं, लाचारी की भावना स्थायी है. वहां ईंट-भट्ठों पर काम करने के अलावा हमारे पास रोज़गार का कोई साधन नहीं है.’
‘नीतीश कुमार को माफ नहीं कर सकते’
महामारी के शुरुआती दिनों में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को बिहार के प्रवासी मज़दूरों और छात्रों को वापस लाने के लिए अनिच्छुक के तौर पर देखा गया था. जबकि दूसरे राज्यों ने अपने लोगों को वापस लाने के इंतजाम किए थे. वो समय ऐसा था जो अभी भी संदीप को परेशान करता है.
‘हम लॉकडाउन के उन भयानक दिनों को तो नहीं भूल सकते. जब नीतीश कुमार ने हमें अपने हाल पर जीने-मरने के लिए छोड़ दिया था. उन्होंने कहा था कि जो मजदूर जहां है वहीं ही रहे. जबकि दूसरे राज्यों ने अपने लोगों को वापस लाने के इंतजाम किए. हमारी जेबों में चवन्नी नहीं थी और घर में राशन. यहां नून-रोटी खाकर मरने से बेहतर था जैसे-तैसे घर जाकर नून-रोटी खाएं. हम उन्हें कैसे भूल सकते हैं और माफ कर सकते हैं.’
उस दौरान की यात्रा को याद करते हुए संदीप बताते हैं कि उन्होंने लाखों लोगों को पैदल या ट्रकों पर जाते देखा था. वो कहते हैं, ‘कम से कम 90 फीसदी प्रवासी नाराज थे और उन्होंने नीतीश को वोट नहीं देने की कसम खाई थी. इस यात्रा के दौरान कई लोगों की तो मौत भी हो गई थी. लेकिन सरकारों और पार्टियों के लिए वो या तो वोटबैंक होते हैं या फिर आंकड़े.’
नीतीश से नाराज संदीप आरजेडी के 10 लाख नौकरियों के वादे को लेकर बहुत उत्साहित तो नहीं हैं. वो कहते हैं, ‘पहले नीतिश कुमार कह रहे थे कि कहां से आएंगी नौकरियां और अब नीतीश कुमार कह रहे हैं कि वे तेजस्वी यादव ने जो वादा किया है, उससे अधिक नौकरियां देंगे.’
वो आगे जोड़ते हैं, ‘मैं भी देखूं कि मेरे क्षेत्र में कारखाना कौन स्थापित करता है. फिर मैं भी अगले विधानसभा चुनाव में जाऊंगा और मतदान करूंगा.’
‘आरजेड़ी जीते या फिर जेड़ीयू, नेता लोग अमीर आदमी का ही काम करते हैं. वो गरीब का कोई वादा पूरा नहीं करते.’ संदीप अपनी बात खत्म करते हैं.
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