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Friday, 26 April, 2024
होमदेशJP की नई जीवनी में छूट गया एक अहम सवाल का जवाब- क्या उन्होंने जनसंघ को मुख्यधारा में जगह दिलाई

JP की नई जीवनी में छूट गया एक अहम सवाल का जवाब- क्या उन्होंने जनसंघ को मुख्यधारा में जगह दिलाई

जयप्रकाश नारायण की हाल ही में प्रकाशित की गई जीवनी पर होने वाले चर्चा में, पैनलिस्टों का विचार यह था कि इस प्रतिष्ठित नेता का सम्पूर्ण क्रांति का सपना आज भी जीवित है.

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जयप्रकाश नारायण की हाल ही में प्रकाशित जीवनी पर आयोजित एक पैनल आधारित चर्चा के दौरान, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी का कहना था कि उनके आंदोलन में जनसंघ की भूमिका और आरएसएस और अन्य नेताओं के जेपी के जीवन और उनके आंदोलन पर पड़ने वाले प्रभाव पर चर्चा करना महत्वपूर्ण है.

‘द ड्रीम ऑफ रेवॉल्यूशन: ए बायोग्राफी ऑफ जयप्रकाश नारायण’ नामक यह पुस्तक बिमल प्रसाद और सुजाता प्रसाद द्वारा मिलकर लिखी गई है. इन दो लेखकों के अलावा इस परिचर्चा में इतिहासकार और जीवनी लेखक प्रोफेसर राजमोहन गांधी, फोटो जर्नलिस्ट (छाया पत्रकार) रघु राय, लेखक नारायणी बसु और पत्रकार एवं कार्यक्रम संचालक सुहास बोरकर ने भी भाग लिया.

थानवी ने कहा, ‘इसमें जनसंघ और आरएसएस के लोगों के बारे में भी चर्चा होनी चाहिए थी कि कैसे उस समय के युवा जनसंघ नेता- चाहे वह सुशील मोदी हों या रविशंकर प्रसाद – बड़ी आसानी से इस आंदोलन से जुड़ सके थे. इसने कहीं-न-कहीं जेपी की छवि को चोट पहुंचाई है. जिस तरह से आरएसएस के नेता अपने आप को इस तरह के आंदोलनों से जोड़ लेते हैं, चाहे वह तब जेपी के आंदोलन दौरान हो या हाल के दिनों में हुए अन्ना आंदोलन के, यह वाकई चर्चा का विषय है.‘

चर्चा में भाग लेते हुए वरिष्ठ पत्रकार अजीत झा ने कहा, ‘जेपी, महान क्रांतिकारी सपने देखने वाले भारत के अब तक के सबसे अच्छे संभावित प्रधानमंत्री जो उन्हें कभी मिला न सका’ और दर्शकों में मौजूद लगभग सभी लोगों ने उनकी बात से सहमति में सिर हिलाया.

सह-लेखक सुजाता प्रसाद के अनुसार, 230 पृष्ठ की पुस्तक में उनके दिवंगत पिता बिमल प्रसाद का डीएनए समाया है, जो नेपाल में पूर्व भारतीय राजदूत और जेपी के अत्यंत करीबी व्तक्ति थे. उनकी मृत्यु से पहले वे इस महान स्वतंत्रता सेनानी के संपूर्ण लेखों के संपादन पर काम कर रहे थे. सुजाता ने कहा कि उन्होंने पहले अपने पिता की शैली में इस किताब को लिखने की कोशिश की लेकिन जल्द उन्होंने यह प्रयास छोड़ दिया क्योंकि उनकी लेखन शैली बहुत अलग थी, और इसे अपनी लेखन शैली में समाप्त किया. सुजाता प्रसाद के पिता का 2015 में निधन हो गया था, जिसके बाद उन्होंने इस किताब पर काम करना शुरू किया.’

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सुजाता प्रसाद ने कहा, ‘मेरे पिता ने पूरी तरह से जेपी के विचारों पर आधारित जीवन जिया. वे जेपी के सम्पूर्ण लेखों के 10 खंडों के संपादन पर काम कर रहे थे, यह कुछ ऐसा था जिसमें उनकी सारी चेतना निवास करती थी. मेरे पास भी अपने किशोरवय के दिनों से संजोई जेपी की यादें हैं.’

अमेरिका से वर्चुअल माध्यम द्वारा इस चर्चा में भाग लेने वाले राजमोहन गांधी के अनुसार, इस किताब से जेपी का व्यक्तित्व झांकता सा लगता है. उन्होंने सुजाता की लेखन शैली को एकदम ‘ताजा’ बताते हुए कहा, ‘मैं इस बेहतरीन पुस्तक का स्वागत करता हूं, जो 230 से भी कम पृष्ठों में एक असाधारण व्यक्ति, एक तीक्ष्ण विचारक, एक शांत और प्रेरक वक्ता और एक साहसी क्रांतिकारी की कहानी कहती है. उन्होंने रॉयल इंडियन नेवी में फरवरी 1946 में हुई बगावत से संबधित इस पुस्तक में शामिल एक तथ्यात्मक त्रुटि की ओर भी इशारा किया.

आउटलुक पत्रिका के वरिष्ठ संपादक अजीत कुमार झा, जो चर्चा में स्वयं मौजूद थे, जेपी के जीवन पर वामपंथी विचारकों द्वारा की गई आलोचनाओं की बौछार से असहमत थे. उन्होंने कहा, ’उनकी इन आलोचनाओं में से एक यह भी है कि यह जेपी ही थे जिन्होंने जनसंघ को मुख्यधारा की राजनीति में जगह दिलाई. अगर यह सच है, तो फिर भाजपा (पूर्व में जनसंघ) को 1984 के भारतीय संसद में सिर्फ दो सीटों तक सीमित नहीं होना पड़ता. यह बिहार में जेपी आंदोलन शुरू होने के लगभग 10 साल बाद की बात है. सीपीएम और यहां तक कि भाकपा (माले) बिहार के कुछ तबके भी जेपी के समर्थक थे. यह भारत में पहली बार था जब कोई भी व्यक्ति भारत में एक व्यापक इंद्रधनुषीय गठबंधन देख सकता था- उस समय वामपंथी, जनसंघ और समाजवादी सभी एक साथ थे.’


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जेपी की अंतिम अवस्था पर बंटी हुई राय

इस किताब में जेपी की दुखद मौत का भी जिक्र है. इस जीवनी में सुजाता प्रसाद लिखती हैं, ‘अपने स्वाभिमान के हर चिह्न को छीन लिए जाने का बाद जयप्रकाश एक काफी दुखद मृत्यु को प्राप्त हुए.’ वे आगे लिखती हैं, ‘उनका (जेपी का) क्रांति का सपना, जिसने कभी एक अत्यंत शक्तिशाली सरकार को घुटनों के बल ला दिया था, दुर्भाग्य से बस एक सपना ही रह गया.’ हालांकि, कई पैनलिस्ट इस पुस्तक में अंकित इस ‘निराशावादी अंत’ से असहमत थे.

अजीत झा ने कहा, ‘ऐतिहासिक रूप से आपको इस किताब का लंबी अवधि के नजरिए से आकलन करना चाहिए..अगर हम बिहार की राजनीति को देखें, तो यहां पिछले 30 वर्षों में जो कुछ भो हुआ वह जेपी के कारण ही हुआ है..चाहे वह लालू हों, नीतीश हों, रविशंकर प्रसाद या फिर सुशील मोदी हो. ..ये सब जेपी के ही अनुयायी थे… आज कांग्रेस इस राज्य से पूरी तरह गायब हो गई है. यह वास्तव में जेपी आंदोलन का ही परिणाम है…और इस मायने में यह सपना अभी भी जीवित है.’

राजमोहन गांधी ने भी ऐसा ही कुछ कहा. उनके अनुसार ‘जिस तरह से जेपी हमें छोड़ कर गए, उसमें मैं वीरता देखता हूं, उनके बड़े सपने वही हैं जिनके वे प्रतीक हैं’.

जेपी के साथ अपने निजी अनुभव और लाठीचार्ज की अपनी सुप्रसिद्ध तस्वीर को याद करते हुए फोटो जर्नलिस्ट रघु राय भावुक हो उठे. उन्होंने कहा, ‘कहां हैं वे महान पुरुष जिन्हें हम आज भी याद करते हैं और जिनके लिए हम दिल खोलकर रोते हैं?’

राय ने इस महान नेता के साथ अपने जुड़ाव को याद किया और जेपी के दयालु और सौम्य व्यक्तित्व, पत्रकारों के प्रति उनके प्रेम और उनके मर्यादापूर्ण व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला, जिसके कारण वे घोर वैचारिक मतभेदों के बावजूद आपातकाल के दिनों में भी इंदिरा गांधी के बारे में पूरे सम्मान के साथ बात करते थे.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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