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Monday, 6 May, 2024
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अहमदाबाद सिविल अस्पताल एक ‘कालकोठरी’, डॉक्टरों से सीधे बात करेंगे: गुजरात हाईकोर्ट

गुजरात हाईकोर्ट ने कहा है कि अगर राज्य सरकार का जवाब संतोषजनक न हुआ, तो वो सिविल अस्पताल के डॉक्टरों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस करेगा.

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नई दिल्ली: गुजरात हाईकोर्ट ने अहमदाबाद सिविल अस्पताल की ‘दयनीय’ हालत पर, गुजरात सरकार को कड़ी फटकार लगाई है और अस्पताल को ‘कालकोठरी या उससे भी बदतर’ क़रार दिया है. ये अस्पताल प्रदेश में सरकार की एक प्रमुख कोविड-19 सुविधा केंद्र है.

शुक्रवार को एक जनहित याचिका का स्वत: संज्ञान लेते हुए न्यायमूर्ति जेबी पार्दीवाला और न्यायमूर्ति ईलेश जे वोरा ने अतिरिक्त मुख्य सचिव पंकज कुमार, सचिव मिलिंद तोरवाणे और प्रमुख सचिव, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण जयंती रवि को कड़ी फटकार लगाई, जिन्हें सिविल अस्पताल का चार्ज दिया गया था.

कोर्ट ने नोट किया कि बीस मई तक गुजरात की कुल 625 मौतों में से, 570 मौतें अकेले अहमदाबाद शहर में दर्ज हुईं थीं. इन 570 मौतों में से, 351 मौतें सिविल अस्पताल में हुईं थीं.

हाईकोर्ट ने कहा, ‘कुल मौतों में 62 प्रतिशत योगदान सिविल अस्पताल का है.’ फिर कोर्ट ने पूछा कि क्या गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री नितिन पटेल और मुख्य सचिव अनिल मुकिम को ‘कुछ अंदाज़ा’ है कि मरीज़ और स्टाफ़ किन मुश्किलों से दोचार हैं.

कोर्ट ने ये भी पूछा कि क्या सरकार, ‘इस कठोर सच्चाई से वाक़िफ़ थी कि वेंटिलेटर्स की कमी के चलते सिविल अस्पताल में मरीज़ मर रहे हैं.’

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अदालत की ओर से राज्य सरकार को कई निर्देश जारी किए गए और उसने अधिकारियों से कहा कि ‘कुछ पॉज़िटिव फीडबेक’ के साथ बेंच के सामने वापस आएं. अदालत ने चेतावनी दी कि अगर राज्य सरकार का जवाब संतोषजनक न हुआ, तो वो सिविल अस्पताल में डॉक्टरों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस करेगा.

इसके अलावा कोर्ट ने राज्य सरकार से अनुरोध किया कि महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में ‘भरोसेमंद’ एनजीओज़, वॉलंटियर्स और धर्मार्थ संस्थाओं की सहायता लेना शुरू करे.

कोर्ट ने प्रवासी मज़दूरों की समस्या का भी संज्ञान लिया और रेलवे अधिकारियों को हिदायत दी कि या तो एक ओर का किराया छोड़ दें या फिर राज्य सरकार उसे वहन करे.

मामले की अगली सुनवाई 29 मई को होगी. साथ ही राज्य सरकार को निर्देश दिया गया कि वो बेंच की ओर से दिए गए निर्देशों और सुझावों के आधार पर, एक ‘विस्तृत रिपोर्ट’ तैयार करके 28 मई तक पेश करे.

निजी अस्पतालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई

हाईकोर्ट ने उन निजी अस्पतालों को भी फटकार लगाई, जिन्होंने कोविड-19 के मरीज़ों को भर्ती करने से मना कर दिया था, जबकि इसे लेकर राज्य सरकार के साथ उनका समझौता भी हुआ था.

अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि ऐसे निजी या कॉर्पोरेट अस्पतालों के खिलाफ क़ानूनी कार्रवाई शुरू करे, ‘जो कोविड-19 मरीज़ों के इलाज के लिए किए गए समझौते का पालन करने के लिए तैयार अथवा इच्छुक नहीं हैं, साथ ही वो भी, जो सहयोग करने की ख़ातिर, एमओयू में शामिल होने के लिए, सहमत अथवा इच्छुक नहीं हैं.’

बेंच ने राज्य सरकार से कहा कि इन सब अस्पतालों के खिलाफ़, भारतीय दंड संहिता की धारा 188 (सरकारी कर्मचारी का आदेश न मानना), और आपदा प्रबंधन अधिनियम के प्रावधानों के तहत मुक़दमा क़ायम किया जाए.

कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा कि वो शहर के अंदर और आसपास के तमाम मल्टी-स्पेशिएलिटी व कॉर्पोरेट अस्पतालों के 50 प्रतिशत बिस्तर ले ले, जिससे कि कोविड-19 के मरीज़ों को, बेहतर इलाज और वेंटिलेटर सपोर्ट मिल सके.

ये देखते हुए कि निजी अस्पतालों के रेट्स ‘थोड़े अधिक’ होते हैं, राज्य सरकार से ये भी कहा गया, कि कोविड-19 मरीज़ों के इलाज के लिए, उनसे रेट्स को लेकर बातचीत की जाए.

आयुष्मान भारत स्कीम का ध्यान करते हुए, कोर्ट ने सरकार को ये भी आदेश दिया कि निजी अस्पतालों को भी, स्कीम के दायरे में लाने का प्रयास करे, ‘इस बात का ध्यान रखते हुए, कि इसमें कोई नाजायज़ मुनाफ़ा या भ्रष्टाचार न हो.’

कोर्ट ने कहा, ‘हम नहीं चाहते कि सरकार ऐसे निजी या कॉर्पोरेट अस्पतालों के सामने हाथ जोड़कर विनती करे.’

कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसे निजी अस्पतालों के लिए ‘बहुत शर्मनाक’ होगा अगर वो ‘ऐसे समय में इस ज़िम्मेदारी से बचेंगे, जब देश और उसके लोगों को, उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.’

कोर्ट का कहना था, ‘कम से कम ऐसे समय जब पुरुष, महिलाएं और बच्चे अकेले मर रहे हैं, हम अपेक्षा करते हैं कि निजी अस्पताल ज़िंदगी देने वाले बनेंगे, मौत के दूत नहीं. हम अपेक्षा करते थे कि वो अपने शहर के लोगों के लिए, दयालुता के साथ अपने दरवाज़े खोलेंगे और संकट के इस समय में, मुनासिब दामों पर अच्छे से अच्छा इलाज मुहैया कराएंगे.’

बेंच ने टाइटैनिक फिल्म का भी हवाला दिया और कहा कि ‘अव्यवस्था, अनिश्चितता, और बेहद तनाव भरे इस अभूतपूर्व समय में’, हमें उस कारपेथिया जहाज़ की तरह होना चाहिए, जिसने 750 यात्रियों को बचाया था, उस मनहूस आरएमएस टाइटैनिक से, जो 1912 में उत्तरी अटलांटिक महासागर में डूब गया था.

कोर्ट के निर्देश तब आए जब राज्य सरकार ने उसे बताया, कि कई निजी अस्पतालों ने नगर निगम द्वारा जारी आदेश नहीं माना और समझौता करने के बावुजूद, कोविड-19 के मरीज़ों का इलाज नहीं किया, जिसकी वजह से 19 मई को, ऐसे 19 अस्पतालों को नोटिस जारी किया गया था.

नगर निगम की ओर से अहमदाबाद में कोविड-19 के इलाज के लिए, अस्पतालों की एक लिस्ट जारी की गई. इस लिस्ट में 40 से अधिक अस्पताल थे, लेकिन कोर्ट ने नोट किया कि कुछ अस्पतालों ने कोविड-19 के मरीजों का इलाज शुरू भी नहीं किया था, ये कहते हुए कि वो ग़ैर-कोरोनावायरस मरीज़ों का इलाज कर रहे थे.

कोर्ट ने ये भी पूछा कि अहमदाबाद के कुछ इलाक़ों में स्थित अपोलो, ज़ाइडस और एशिया कोलम्बिया जैसे 8 अस्पताल इस लिस्ट में क्यों नहीं थे. कोर्ट ने जानना चाहा कि क्या इनसे बातचीत की पहल की गई थी.

कोर्ट ने कहा,’इन अस्पतालों के प्रबंधनों को अपने आप ही आगे बढ़कर, संकट के इस समय में कोविड-19 के मरीज़ों का इलाज करना चाहिए था.’

इसके बाद कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार को इन अस्पतालों के साथ बातचीत शुरू करनी चाहिए, क्योंकि ये अस्पताल हज़ारों मरीज़ भर्ती करने में सक्षम हैं.

कोर्ट ने आगे कहा ‘ऐसे हालात में, ऊपर बताए गए ये आठों अस्पताल, न सिर्फ नैतिक रूप से ज़िम्मेदार हैं, बल्कि क़ानूनी रूप से भी बाध्य हैं, कि कोविड-19 के मरीज़ों के इलाज के लिए, 60 प्रतिशत बिस्तर आवंटित करें.’

कोविड-19 कंट्रोल सेंटर बने, स्वास्थ्य कर्मियों के टेस्ट हों

कुछ और निर्देशों में, कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि ‘युद्ध स्तर’ पर एक कंप्यूटराइज़्ड कोविड-19 कंट्रोल सेंटर बनाया जाए, जिसमें हर मेडिकल सुविधा से मिल रही रियल टाइम सूचना का मिलान किया जा सके.

ये केंद्र जनता की पहुंच में होना चाहिए, ताकि लोग किसी भी सहायता के लिए उससे सम्पर्क कर सकें और भर्ती के लिए उन्हें एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भागना न पड़े.

कोर्ट ने सरकार को ये भी सुनिश्चित करने का निर्देश दिया, कि वो तमाम निजी क्लीनिक्स, अस्पताल और नर्सिंग होम्स, जिन्हें लॉकडाउन के दौरान उनके मालिकों ने बंद कर दिया था, अब काम करना शुरू कर दें, जिससे कि ग़ैर-कोरोनावायरस मरीज़ों को मेडिकल सुविधाएं मिल सकें.

निजी अस्पतालों से कहा गया है कि मरीज़ों से पेशगी फीस की मांग न करें और ये रक़म बाद में वसूल लें, अगर मरीज़ के पैन कार्ड डिटेल्स से पता चले, कि वो पैसा चुकाने में सक्षम है.

प्रदेश सरकार को हिदायत दी गई है, कि वो तुरंत टेस्टिंग किट्स की ख़रीद करे, जिससे कि निजी अस्पतालों की लैब्स सरकारी दरों पर कोविड-19 की जांच कर सकें.

सरकार से ये भी कहा गया है कि अच्छी क्वालिटी के एन-95 मास्क, सैनिटाइज़र्स, स्टराइल और ग़ैर-स्टराइल ग्लव्ज़, पीपीई किट्स, वेंचुरी व हाई-फ्लो ऑक्सीजन मास्क, वेंटिलेटर ट्यूबिंग्ज़, फिल्टर्स और इसी तरह की चीज़ें, सभी कोविड-19 सुविधाओं में अपने ख़र्च पर उपलब्ध कराए.

इसके अलावा, समय समय पर सभी स्वास्थ्य कर्मियों का टेस्ट किया जाना है. कोर्ट ने कहा, ‘समाज तभी सुरक्षित है, जब ये सुरक्षित हैं.’

एक डॉक्टर का ‘गुमनाम पत्र’

अदालत ने सिविल अस्पताल के एक रेज़िडेंट डॉक्टर के ‘गुमनाम पत्र’ का भी संज्ञान लिया, जिसमें अस्पताल में फैली ‘बद-इंतज़ामी’ पर रोशनी डाली गई थी. अपने पत्र में डॉक्टर ने दावा किया, कि इस महीने के शुरू में उसकी कोविड-19 रिपोर्ट पॉज़िटिव आई थी, लेकिन कुछ दिन आईसोलेशन में रहने के बाद, रिपोर्ट निगेटिव आ गई.

उसने आरोप लगाया कि उसकी और कुछ अन्य की रिपोर्ट पॉज़िटिव आने के बाद भी, उनके सम्पर्कों का पता नहीं लगाया गया, और उसकी बजाय अपने टेस्ट कराने के लिए इनकी ‘आलोचना’ की गई.

पत्र में अस्पताल के कामकाज और कोविड-19 के प्रबंध की, कुछ दूसरी ख़ामियों का भी ज़िक्र किया गया. उसमें कहा गया कि अगर स्थिति ऐसे ही रही तो, ‘यहां काम करने वाले डॉक्टर्स, कोविड-19 के सुपर स्प्रैडर्स बन जाएंगे.’

इसलिए कोर्ट ने रेज़िडेंट डॉक्टर्स के काम के हालात में सुधार, वेंटिलेटर्स और ऑक्सीजन बेड्स की संख्या बढ़ाने, और सीनियर अधिकारियों की जवाबदेही तय करने का निर्देश दिया, जो सिविल अस्पताल की ‘हेल्थकेयर सुधारने में नाकाम रहे हैं.’

कोर्ट ने सिविल अस्पताल के एक मेडिकल ऑफिसर की तैयार की गई रिपोर्ट का भी हवाला दिया, जिसमें अहमदाबाद के कोविड-19 अस्पतालों में पेश आ रही दिक़्क़तों की सूची दी गई है, और इन शिकायतों को दूर करने के सुझाव भी पेश किए गए हैं.

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वो इस रिपोर्ट में किए गए दावों की सच्चाई से वाक़िफ़ नहीं है, लेकिन इन दिक़्क़तों की जांच के लिए, उसने तीन डॉक्टरों की एक समिति गठित कर दी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने लिए यहां क्लिक करें)

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