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Sunday, 22 December, 2024
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भुखमरी से ‘धान के कटोरे’ तक : कैसे ओडिशा के कालाहांडी-बलांगीर-कोरापुट गलियारे में हुए बदलाव

लगभग दो दशक पहले तक, ओड़िसा का केबीके कॉरिडोर देश के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक माना जाता था. आज विकास में व्याप्त असमानता के बावजूद यह इलाका तेजी से प्रगति की ओर कदम बढ़ा रहा है.

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कालाहांडी: ओडिशा के कालाहांडी जिले के मुख्य शहर भवानीपटना के बाहरी इलाके में स्थित अपने दो हेक्टेयर के फलते-फूलते खेत को निहारते समय राम नाथ बाग अभी भी पूरी तरह से विश्वास नहीं कर पाते. इस 39 वर्षीय किसान का कहना है कि आज से 15 से 20 साल पहले वह बस अपने गुजर-बसर लायक चावल की खेती कर पाते थे, लेकिन हाल के वर्षों में उनकी उपज दोगुनी हो गई है.

अपनी अवस्था में आये इस बदलाव का श्रेय पास के इंद्रावती बांध से मिलने वाली बेहतर सिंचाई सुविधा के साथ-साथ उच्च गुणवत्ता वाले उर्वरकों (खाद) को देते हुए, बाग एक गर्व से दमकते चेहरे के साथ दिप्रिंट को बताते हैं ‘वर्तमान में हम कम-से-कम 19-20 क्विंटल चावल का उत्पादन करते हैं… यह उपज दो दशक पहले की फसल की तुलना में दोगुनी है. पहले, हम बस किसी तरह अपना काम चला पाते थे, लेकिन अब हम कभी-कभी इससे कमाई भी कर लेते हैं.’

यहां अभी फसल की कटाई का समय है और बाग के खेत के बगल में ही एक और बड़ा धान का खेत है जहां एक थ्रेशर (धान काटने की मशीन) जोर-शोर से काम पर लगा हुआ है. एक दशक या उससे भी पहले, इस क्षेत्र में ऐसा नजारा देखना लगभग असंभव रहा होगा.

ओडिशा का कालाहांडी-बलांगीर-कोरापुट (केबीके) गलियारा – जिसमें कोरापुट, मलकानगिरी, नबरंगपुर, रायगडा, बलांगीर, सोनपुर, कालाहांडी और नुआपाड़ा के आठ जिले शामिल हैं – कभी भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक के रूप में जाना जाता था. मुख्य रूप से ग्रामीण और आदिवासी बहुल इस क्षेत्र में भुखमरी और कुपोषण के कारण कई मौतें देखी जाती थीं और आबादी का एक बड़ा वर्ग घोर गरीबी में जी रहा था.

मगर, समूचे केबीके कॉरिडोर की किस्मत अब बदल सी रही है, और राज्य सरकार द्वारा जारी साल 2020 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस क्षेत्र में फ़ूड सरप्लस (स्थानीय जरुरत से अधिक खाद्यान्न उत्पादन) दर्ज किया गया है. कालाहांडी अब ओडिशा में चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक जिला है, जबकि बलांगीर कपास का सबसे बड़ा उत्पादक है.

कालाहांडी की जिला ग्रामीण विकास एजेंसी के परियोजना निदेशक सोमेश उपाध्याय ने दिप्रिंट को बताया कि ‘भुखमरी से होने वाली मौतें और घोर गरीबी की अवस्था अब अतीत की बातें हैं’; और यह भी कि यह जिला अब अपने कृषिधन के लिए जाना जाता है.

हालांकि, बेहतर सिंचाई और किसान केंद्रित नीतियों के कारण इस क्षेत्र में स्पष्ट तौर पर काफी सुधार हुए हैं, लेकिन चीजों को धरातल के स्तर पर देखने से यह भी स्पष्ट नजर आता है कि हर जिले को समान रूप से लाभ नहीं हुआ है.


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बड़े पैमाने पर प्रगति

योजना आयोग (जिसका नाम बदलकर अब नीति आयोग कर दिया गया है) द्वारा दी गई साल 2005 की एक रिपोर्ट ने केबीके क्षेत्र के पिछड़ेपन के लिए तीन मुख्य कारकों को जिम्मेदार ठहराया था :- सूखा और बाढ़ की संभावना से ग्रस्त एक पथरीला भूभाग; स्थानीय जनजातीय समुदायों में कम साक्षरता दर और अत्यधिक गरीबी; तथा कुपोषण, स्थानीय तौर पर फैला हुआ (एंडेमिक) मलेरिया और अन्य स्थानीय बीमारियों के कारण खराब स्वास्थ्य सम्बन्धी हालात.

हालांकि, इस विकट स्थिति अब काफी नाटकीय रूप से बदलाव आया है. राज्य सरकार के योजना और अभिसरण (कॉन्वेर्जेंस) विभाग और संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम (यूनाइटेड नेशंस वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम) द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई साल 2020 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘बारगढ़, गंजम और कालाहांडी जिले इस राज्य के लिए खाद्यान्न का कटोरा हैं’.

उपाध्याय के अनुसार, इंद्रावती बांध से जुडी हुई सिंचाई परियोजनाएं, जो साल 1996 में पूरी हुई थीं, ‘गेम-चेंजर’ (कायापलट करने वाली) साबित हुई हैं. साथ ही बीजू केबीके योजना (वर्तमान मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के दिवंगत पिता और राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक के नाम पर चलायी जा रही राज्य सरकार की योजना) जो इस क्षेत्र को विकसित करने के लिए अतिरिक्त धन प्रदान करती है, जैसे जन उत्थान से सम्बंधित प्रयासों का भी इसमें योगदान रहा है.

इस बारे में और विस्तार से बताते हुए कालाहांडी के जिला मजिस्ट्रेट गवली पराग हर्षद कहते हैं कि हालांकि इंद्रावती बांध 1990 के दशक में ही बनाया गया था, लेकिन इसके द्वारा आसपास के खेतों तक ठीक से सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने में लगभग दो दशक लग गए. इस साल जनवरी में, राज्य सरकार ने आधिकारिक तौर पर ऊपरी इंद्रावती लिफ्ट नहर (अपर इंद्रावती लिफ्ट कैनाल) का भी शुभारंभ किया, जो कालाहांडी हाइलैंड्स (ऊंचाई वाले इलाकों) तक पानी पहुंचाने का काम करती है.

कालाहांडी में कई किसान अब आधुनिक उपकरणों और वाहनों का उपयोग करते हैं | फोटो: मनीषा मंडल/ दिप्रिंट

हर्षद यह भी कहते हैं कि प्रशासन अब किसानों को मछली पालन और केले की खेती जैसी नकदी फसलों की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है क्योंकि धान की खेती काफी अधिक पानी की खपत करने वाली और महंगी फसल है. हर्षद कहते हैं, ‘जितने अधिक लोग धान की खेती के चक्र से बाहर निकलते हैं, उतना ही उनके लिए अच्छा है. धान की खरीद भी एक बड़ी समस्या है. अभी हमारा मुख्य ध्यान किसानों के लिए एक स्थिर आजीविका का स्रोत सुनिश्चित करना है. ‘

कालाहांडी के पड़ोसी जिले बलांगीर के जिला मजिस्ट्रेट चंचल राणा कहते हैं कि ‘प्रवास की ज्यादा संभावना वाले ब्लॉकों की पहचान करने और उनकी समस्या का सामाधान करने के बाद एक ‘बड़ा परिवर्तन’ संभव हुआ है. राणा कहते हैं कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत, बलांगीर के साथ-साथ नुआपाड़ा जिलों में ऐसे ब्लॉकों में मज़बूरी में होने वाले प्रवास का मुकाबला करने के लिए 300 दिनों का गारंटीकृत रोजगार प्रदान किया जाता है. मनरेगा में आमतौर पर 100 दिनों के रोजगार के लिए मजदूरी की गारंटी शामिल होती है, लेकिन राज्य सरकार अपनी तरफ से 200 अतिरिक्त दिनों के लिए लगने वाली लागत को वहन करती है.

राणा के अनुसार, एक और उत्साहवर्धक योजना है ओडिशा आजीविका मिशन के तहत चलने वाली ‘मिशन शक्ति’ योजना, जो महिलाओं को आजीविका उपार्जन पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्वयं सहायता समूह बनाने के लिए प्रोत्साहित करती है.

राणा का यह भी कहना है कि यह जिला (बोलांगीर) अब अपनी खुद की सिंचाई परियोजनाओं को विकसित कर रहा है. वे कहते हैं,’हम लोअर इंद्र प्रोजेक्ट विकसित करेंगे, जिससे करीब 50,000-55,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होगी. इसके अलावा, हम उन क्षेत्रों में बाढ़ द्वारा सिंचाई के रास्ते भी तलाश रहे हैं जहां पानी की ज्यादा खपत वाली फसलें हैं. ‘.

राणा बताते हैं कि ‘हमने अपनी क्लस्टर बोरवेल (सामूहिक नलकूप) परियोजना भी शुरू की है. इसमें पांच किसान एक साथ मिल कर बोरवेल खरीद सकते हैं, जो हम उन्हें सब्सिडी वाले दामों पर देते हैं. हम उन क्षेत्रों के लिए तालाब वाले खेतों (फार्म पोंड्स) की भी खोज कर रहे हैं जहां सिंचाई संभव नहीं है. साथ ही उनका कहना है ये फार्म पोंड्स सौर ऊर्जा से चलने वाले पंपों से लैस होंगे. हालांकि, वह यह भी स्वीकार करते हैं कि कई किसान अभी भी निराशाजनक परिस्थितियों में रह रहे हैं.


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असमान सुधार

भवानीपटना से सिर्फ 50 किमी दूर, कालाहांडी के बाहरी इलाके और बलांगीर जिले की सीमा पर, केसिंगा गांव स्थित है. यहां धान के खेत उतने अधिक उपज वाले नहीं हैं, और आमतौर पर किसान खुद के खाने लायक उत्पादन ही कर पा रहें हैं.

बलांगीर के लुचकीबहल गांव में रहने वाले एक किसान मोमोना बनवाली थांडी, जो अपने बेटे के साथ जमीन के एक टुकड़े के मालिक है, अपने द्वारा अभी-अभी काटी गयी फसल को मुट्ठी में लेकर उसका मुआयना करने के बाद इस बात पर अफसोस जताते हैं कि इस मौसम की धान की फसल बारिश की कमी के कारण खराब हो गई है.

थंडी कहते हैं, ‘हमारे लिए पानी ही मुख्य समस्या है. हम इसमें से कुछ भी बेच नहीं सकते हैं … यह केवल हमारे खाने भर के लिए ही है.’ हालांकि वे भी यह स्वीकार करते हैं कि कुछ दशक पहले की तुलना में खाद्य उत्पादन अब काफी बेहतर हो गया है.

पानी अभी भी किसानों के लिए चिंता का सबसे बड़ा स्रोत है और लोगों की सामान्य शिकायत यह है कि सिंचाई सुविधा नाकाफी है, जिसका अर्थ है कि अधिकांश किसान अभी भी बारिश पर ही निर्भर हैं. केंद्रीय कालाहांडी के विपरीत, जहां ज्यादातर लोग सिर्फ और सिर्फ खेती में हीं लगे हुए हैं, बलांगीर और उसके आसपास के किसान अभी भी खुद के गुजारे के लिए बढ़ई और मजदूरों के रूप में दूसरा काम भी करते रहते हैं.

कालाहांडी में भी अभी सुधार की काफी गुंजाइश है. कई किसानों का कहना है कि हालांकि वे लाभ तो कमा लेते हैं, लेकिन यह आमदनी मुख्य रूप से धान की खेती के लिए आवश्यक उर्वरक और उपकरण खरीदने में चली जाती है.

कालाहांडी के एक धान उत्पादक किसान बसंतो कुमार दीप कहते हैं, ‘हम इनके लिए सरकार से कर्ज चाहते हैं ताकि हमारी जेब में ज्यादा नकदी बनी रहे.’

बलांगीर में कई किसान अभी भी निर्वाह खेती करते हैं | फोटो: मनीषा मंडल/दिप्रिंट

कमियों को पूरा करने के प्रयास जारी: रागी की खेती, आयरन टेबलेट बने समाधान के हिस्से

कालाहांडी और बलांगीर के स्थानीय अधिकारियों का कहना है कि किसानों के लिए एक स्थिर आय सुनिश्चित करने और उन्हें रागी, केला, और टमाटर जैसी नकदी फसलों की ओर रुख करने या फिर मछली पालन जैसे नए उद्यमों के बारे में जानकारी प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित करते हुए, उन्हें पानी की अत्यधिक खपत वाली धान की खेती से दूर करने के प्रयास चल रहे हैं.

जिला अधिकारी राणा का कहना है कि रागी की खेती विशेष रूप से आशाजनक बदलाव है. राणा कहते हैं, ‘जिले के [नक्सल] उग्रवाद की संभावना वाले क्षेत्रों में, हमने बड़े पैमाने पर रागी की खेती भी शुरू कर दी है. क्योंकि इसमें पानी की मुश्किल से ही आवश्यकता होती है और यह काफी कम रखरखाव वाली फसल है,’ उन्होंने यह भी बताया कि डेयरी किसानों को भी ब्याज मुक्त ऋण दिया जा रहा है.

इस क्षेत्र में एक और समस्या यह है कि बहुप्रचारित फ़ूड सरप्लस के बावजूद यहां का पोषण सूचकांक अभी भी आधार रेखा से नीचे हैं. खाद्य सुरक्षा और पोषण पर ऊपर उद्धृत की गयी राज्य सरकार की रिपोर्ट के अनुसार केबीके क्षेत्र (सभी आठ जिलों) में अभी भी स्टंटिंग (बौनापन) और कुपोषण की उच्च दर देखी जाती है. एनीमिया (खून की कमी) की दर भी काफी ज्यादा है और पांच साल से कम उम्र की आबादी का 67.4 प्रतिशत भाग एनीमिक है. अधिकांश लोग वसा, प्रोटीन और ऊर्जा की अनुशंसित दैनिक मात्रा (रेकमेंडेड डेली अलाउंस -आरडीए) से भी कम खपत कर रहे हैं.

कालाहांडी और बलांगीर दोनों के जिलाधिकारियों का कहना है कि वे पोषण संबंधी कमियों की समस्या को दूर करने की दिशा में काम कर रहे हैं. उनका कहना है कि अब एनीमिया से लड़ने के लिए आयरन की गोलियां बांटने का प्रयास किया जा रहा है. डी-वर्मिंग (कृमि-रोधी या पेट के कीड़े को मारने वाली) टैबलेट भी वितरित किए जा रहे हैं, क्योंकि पैरासाइटस (परजीवियों) को खराब पोषण के लिए जिम्मेदार मुख्य कारणों में से एक के रूप में पाया गया है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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