बेंगलुरु: कर्नाटक के सीमावर्ती शहर बेलागवी में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, जिसने स्थानीय पार्टी नेताओं को कई खेमों में बांट दिया है. इन सारी मुश्किलों की जड़ में पार्टी में प्रभावशाली जरकीहोली परिवार का बढ़ता दबदबा, हाल ही में संपन्न हुए विधान परिषद चुनावों के परिणाम और राज्य मंत्रिमंडल में एक सम्मानजनक स्थान के लिए हो रही लड़ाई है.
विधान परिषद चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद से एक महीने से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी कर्नाटक में भाजपा नेता अभी भी बेलागवी से पार्टी की हार के बारे में दबी जुबान में बात करते रहते हैं. इस जिले से 13 विधायक और दो सांसद होने के बावजूद भाजपा के उम्मीदवार ने अपनी मौजूदा सीट गंवा दी थी.
इन चुनावों में, भाजपा ने विधान परिषद की 25 में से 11 सीटें हासिल कीं और इस सदन में स्पष्ट बहुमत से एक सीट पीछे रह गई थी. बेलगावी से जिन दोहरी सदस्यता वाली सीटों के लिए मतदान हुआ, उनमें से एक पर कांग्रेस ने जीत हासिल की, जबकि दूसरी सीट पर एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत हासिल की. यह निर्दलीय उम्मीदवार थे जरकीहोली भाइयों में सबसे छोटे लखन जरकीहोली, जिन्होंने भाजपा द्वारा टिकट से वंचित किए जाने के बाद निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा था.
परिवारवाद/वंशवाद की राजनीति को खारिज करने वाली और वैचारिक प्रतिबद्धता के पक्ष में खड़े होने वाली पार्टी होने के भाजपा के दावों में अगर थोड़ी भी सच्चाई है तो जरकीहोली परिवार इसका एक विरोधाभास है. पार्टी में कई लोगों की नापसंदगी के बावजूद बेलगावी में इसकी जारकीहोलियों पर सावधानीपूर्वक निर्भर बनी हुई है.
कौन हैं जरकीहोली बंधु ?
विधायकों से भरा जरकीहोली परिवार काफी समृद्ध है और बेलगावी जिले में अपार राजनीतिक शक्ति का मालिक माना जाता है – ठीक उसी तरह जैसे रेड्डी बंधुओं (गली जनार्दन रेड्डी, जी. करुणाकर रेड्डी, जी. सोमशेखर रेड्डी और बी. श्रीरामुलु) धन और राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल कर कर्नाटक में भाजपा सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान भाजपा के लिए बेल्लारी का पर्यायवाची बन गए थे.
एक ओर जहां बेल्लारी बंधुओं ने खनन व्यवसाय और इसकी कथित अनियमितताओं से अपनी किस्मत चमकाई थी, वहीं जरकीहोली भाई पुराने जमींदार और चीनी के बड़े व्यापारी हैं.
जरकीहोली परिवार में कुल पांच भाई हैं – रमेश और बालचंद्र भाजपा विधायक हैं, सतीश कांग्रेस पार्टी से विधायक हैं तथा कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी (केपीसीसी) के कार्यकारी अध्यक्ष हैं, लखन हाल ही में विधान परिषद (एमएलसी) के लिए निर्वाचित हुए निर्दलीय सदस्य हैं, और भीमाशी ने भी पहले राजनीति में भाग लिया था.
ये सभी बेलगावी की राजनीति में प्रमुख खिलाड़ी हैं. ज्ञात हो कि यह एक ऐसा जिला है जिसके तहत कर्नाटक की 224 विधानसभा क्षेत्रों में से 18 सीटें आती हैं.
जारकीहोलियों के पास भाजपा के दो अन्य विधायकों महेश कुमथल्ली और श्रीमंत पाटिल, जो 2019 में रमेश जरकीहोली के साथ कांग्रेस से अलग हो गए थे, की वफादारी भी है.
अतीत में इन भाइयों ने चुनावों में एक-दूसरे का सामना भी किया है, जिसके बारे में अंदरूनी सूत्रों का दावा है कि यह उनकी और एक चाल है जो इस बात को सुनिश्चित करने का एक प्रयास है कि कोई वैकल्पिक नेतृत्व न उभरे.
संयोग से, भाजपा, जो विधान परिषद में साधारण बहुमत से एक सीट दूर है, को अपने प्रमुख विधेयकों को पारित करवाने के लिए लखन जरकीहोली के समर्थन की आवश्यकता हो सकती है.
जहां बालचंद्र जरकीहोली 2008 में जनता दल (सेक्युलर) से भाजपा में शामिल हो गए थे और ‘ऑपरेशन लोटस‘ के तहत दलबदल कर मंत्रीं बनाने वाले पहले लोगों में थे, वहीँ रमेश जरकीहोली ने 2019 में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन सरकार से हुए दलबदल का नेतृत्व किया था. वह मंत्री भी बने, पर यौन शोषण के आरोपों के बाद मार्च 2021 में उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा.
फ़िलहाल बालचंद्र कर्नाटक मिल्क फेडरेशन के अध्यक्ष जैसे शक्तिशाली पद पर बने हुए हैं. रेड्डी भाइयों में से एक, सोमशेखर, भी केएमएफ के पूर्व अध्यक्ष हैं.
कट्टी की रात्रिभोज वाली मुलाकात
बेलगावी में जारकीहोलियों के बढ़ते दबदबे ने भाजपा के कई सारे नेताओं को नाराज कर दिया है. कर्नाटक के खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री उमेश कट्टी के आवास पर पिछले सप्ताह आयोजित एक रात्रिभोज वाली बैठक इसी बात का एक संकेत है.
भाजपा के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि यह बैठक, जिसमें जरकीहोली भाइयों और उनके सहयोगियों को आमंत्रित नहीं किया गया था, पार्टी में उनके दबदबे पर अंकुश लगाने और कैबिनेट में जगह पाने के लिए लड़ाई पर केंद्रित थी. कर्नाटक के मंत्रिमंडल में वर्तमान में चार खाली पद हैं और मंत्रियों के फेरबदल की भी उम्मीद है.
राज्य मंत्रिमंडल में संभावित फेरबदल के बारे में पूछे जाने पर मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने दिप्रिंट को बताया, ‘स्वाभाविक रूप से मंत्री पद के कई दावेदार हैं, लेकिन पार्टी का वरिष्ठ नेतृत्व इस पर फैसला करेगा कि इसके बारे में कब और कैसे आगे बढ़ना है. मैंने केंद्रीय नेतृत्व को इस मामले से अवगत करा दिया है. जब वे मुझे चर्चा के लिए बुलाएंगे तो मैं उनसे अपनी जानकारी साझा करूंगा.’
रविवार को, राज्य के मंत्री कट्टी ने संवाददाताओं से कहा था कि पिछले सप्ताह की रात्रिभोज वाली बैठक एक ‘अनौपचारिक’ मामला था. उन्होंने कहा, ‘हमने न तो किसी को आमंत्रित किया और न ही किसी को इस बैठक से दूर रखा गया था. हम सब पार्टी के सहयोगी हैं और केवल अनौपचारिक रूप से मिले थे. कोई भी इच्छुक व्यक्ति इसमें शामिल हो सकता था. ‘
बोम्मई ने भी सोमवार को यही राह अपनाई थी और उन्होंने संवाददाताओं से कहा था. ‘मैं इस गुप्त बैठक के बारे में कुछ नहीं जानता. नेता लोग विभिन्न मुद्दों पर बैठक करते रहते हैं. इस बैठक के साथ जोड़ा जा रहा इरादा सही नहीं है.’
मगर पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार इस बैठक ने जरकीहोलियों को काफी नाराज कर दिया है.
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जरकीहोलियों का बढ़ता प्रभाव
बेलागवी एमएलसी सीट पर मिली चुनावी हार के एक महीने बाद पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता बी.एस. येदियुरप्पा ने चिंता जताई थी, और उन्होंने 28 और 29 दिसंबर को हुबली में हुई दो दिवसीय भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में इसे उठाया भी था, मगर अब तक कोई जांच या कार्रवाई शुरू नहीं की गई है.
इसका कारण इस क्षेत्र में जरकीहोली बंधुओं का प्रभाव हो सकता है. भाजपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘बेलागवी में अधिकांश विधानसभा सीटों पर पार्टी निश्चित रूप से उन पर निर्भर है क्योंकि यहां कोई और वैकल्पिक नेतृत्व नहीं है. यह देने और लेने का मामला है.’
इस नेता ने कहा, ‘हम बेलगावी सीट इस वजह से हार गए क्योंकि पंचमसाली लिंगायत वोट कांग्रेस में चले गए.’ हालांकि वे यह बताने से कन्नी काट गए कि वाल्मीकि समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लखन को बीजेपी के आधिकारिक उम्मीदवार से ज्यादा वोट कैसे मिले?
भाजपा की राज्य इकाई के एक अन्य पदाधिकारी ने इशारा किया, ‘भाजपा द्वारा उनका चुनाव न करने के बावजूद जारकीहोलियों ने लखन के लिए सक्रिय रूप से प्रचार किया. इन भाइयों ने हुबली में हुई भाजपा की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में भी भाग नहीं लिया. क्योंकि वह अच्छी तरह से जानते थे कि वहां एमएलसी चुनाव के परिणामों पर चर्चा की जाएगी.’
पिछले हफ्ते की शुरुआत में, रमेश जरकीहोली की बेलगावी में आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी से हुई मुलाकात ने भी भाजपा के अंदरूनी हलकों में हलचल मचा दी थी.
इस बारे में रमेश ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं कैबिनेट में जगह के लिए अपनी पैरवी नहीं कर रहा हूं और न ही किसी और का पक्ष ले रहा हूं. मैं सिर्फ निजी कारणों से लोगों से मिल रहा हूं. मैं पार्टी और अपने भाई के बीच आने वाला संपर्क सूत्र भी नहीं हूं. वह एमएलसी के रूप में भाजपा का समर्थन करने का फैसला करता है या नहीं, यह उसकी अपनी पसंद है.’
हालांकि रमेश के करीबी सूत्रों का कहना है कि वह अपने विश्वासपात्र और अठानी सीट से विधायक महेश कुमथल्ली – जिन्होंने कांग्रेस से भाजपा में जाने के मामले में उनका अनुसरण किया था – को कैबिनेट में शामिल किये जाने के लिए पैरवी कर रहे हैं.
हालांकि पार्टी में कई लोग यह नहीं मानते हैं कि बेलगावी में जरकीहोली बंधु भाजपा के लिए प्रमुख व्यक्ति हैं, पर इसी पार्टी के वरिष्ठ नेता पिछले साल हुए बेलगावी लोकसभा उपचुनावों के दौरान लखन जरकीहोली के आवास पर उनके समर्थन के लिए जिस तरह से कतार लगा रहे थे, वह एक अलग कहानी कहता है.
कोविड-19 के कारण पूर्व रेल राज्य मंत्री सुरेश अंगड़ी की मृत्यु हो जाने की वजह से हो रहे इस उपचुनाव में भाजपा ने उनकी विधवा मंगला अंगड़ी को इस उम्मीद के साथ मैदान में उतारा था कि उन्हें सहानुभूति लहर का लाभ मिलेगा. इसके बावजूद पार्टी को यह सीट जीतने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा और इसने बमुश्किल करीब पांच हजार वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी. कांग्रेस ने तब मंगला अंगड़ी के खिलाफ सतीश जरकीहोली को मैदान में उतारा था और इसकी वजह से भाजपा को इस सीट पर कब्जा करने के लिए एक जरकीहोली भाई के मुकाबले तीन जरकीहोली भाइयों की संयुक्त ताकत का सहारा लेना पड़ा था.
2019 में इसी सीट पर भाजपा की जीत का अंतर 3.9 लाख से अधिक था.
राजनीतिक विश्लेषक और लोकनीति नेटवर्क – जो विश्वविद्यालयों और अन्य शोध संस्थानों में स्थित विद्वानों का एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क है- के राष्ट्रीय समन्वयक प्रोफेसर संदीप शास्त्री ने दिप्रिंट को बताया, ‘भाजपा इन दो पेंचो के बीच फंस गई है कि वे एक ओर यह दिखाएं कि वह परिवार-उन्मुख पार्टी नहीं हैं और दूसरी ओर इस परिवार को अपनी भूमिका निभाने और अपने मन की करने की अनुमति भी देती रहे. इस परिवार को अपनी भूमिका निभाने और मनमानी की अनुमति न देने पर इसे जीती जा सकने वाली सीटों को खोने, या फिर उन्हें बहुत कम अंतर से जीत पाने, जैसे परिणाम भुगतने पड़े हैं. यह एक ऐसी दुविधा है जिसका भाजपा सामना कर रही है कि क्या वह पारिवारिक राजनीति के आगे झुकना चाहेगी, या फिर अपने द्वारा आगे बढ़ाये जा सिद्धांतों पर टिके रहना चाहती है और इसकी वजह से चुकाई जाने वाली राजनीतिक कीमन का सामना करना चाहती है.’
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