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Thursday, 25 April, 2024
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आईआईटी बॉम्बे खाद्य जातिवाद फ़ैलाने के मामले में एक नया नाम

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ब्राह्मणवादी भोज प्रथायें, आईआईटी बॉम्बे हाल ही में जिसके आरोपण का गवाह बना, पूरे भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के लिए नई नहीं है.

मेरे सबसे प्रिय शिक्षाविदों में से एक अर्जुन अप्पादुराई ने एक बार कहा था कि “भोजन एक अत्यधिक संघनित सामाजिक तथ्य है”. हम भोजन कहाँ करते हैं, कैसे करते हैं, कब करते हैं और कैसे खान-पान की हमें अनुमति होती है, ये सब समाज में हमारी स्थिति को प्रतिबिंबित करता है. आपकी थाली के भोजन का एक बहुत लंबा इतिहास रहा है और यह इतिहास बड़ा ही राजनीतिक है.

मुम्बई आईआईटी के 11 नंबर के हॉस्टल को हाल ही में एक अजीब ईमेल प्राप्त हुआ जिसमें भोजनालय के समन्वयक ने लिखा, “कृपया मांसाहारी व्यंजनों के लिए मुख्य थालियों का उपयोग न करें”. बस फिर क्या था ईमेल की आलोचना सोशल मीडिया पर होना प्रारंभ हो गई.

हांलाकि, इस प्रकार की ब्राह्मणवादी रीतियों को लागू (थोपना) किया जाना भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नया नहीं है. यहाँ तक कि कई महाविद्यालय और विश्वविद्यालय तो मांसाहारी भोजन को न परोस कर ही इस समस्या से बच जाते हैं. संस्थाएं जैसे पंजाब विश्वविद्यालय, इलाहाबाद का मोतीलाल नेहरू नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और लखनऊ का बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर विश्वविद्यालय सभी शाकाहारी भोजन ही परोसते हैं.

हमारे देश में, शाकाहारीवाद नैतिक कारणों की तुलना में जातिवादी विचारों में शुद्धता, श्रेष्ठता और ‘स्पर्श’ (छुआ-छूत) के लिए ज्यादा पक्षधर प्रतीत होता है. एक धर्मनिरपेक्ष देश में, हम अभी भी अपने भोजन विकल्पों के आधार पर प्रथक्करण एवं आंकलन कर रहे हैं.

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अशोक विश्वविद्यालय में एक युवा भारतीय सदस्य के रूप में मैने एक पत्र लिखा कि जो भोजन हमें खाने के लिए दिया जाता था या जिस खाने की अनुमति नहीं होती थी, कैसे वो उच्च जाति, उच्च वर्ग और बहुसंख्यक हिंदू छात्रों द्वारा रचित संरचना का एक प्रत्यक्ष प्रतिबिंब था.

स्पष्ट रूप से ‘संदूषण’ डर का एक श्रोत है, जो ऊटपटांग फतवों, जैसे कि शाकाहारी और मांसाहारी भोजन को अलग-अलग थालियों में परोसा जाए, अलग बर्तनों में पकाया जाए और अलग-अलग परोसा जाए, को जन्म देता है.

जब मैं अशोका में पढ़ रही थी तब हमारे यहां शाकाहारियों और मांसाहारियों के लिए अलग फ्लोर (तल) थे, क्योंकि यह मामला केवल भोजन का नहीं था बल्कि भोजन की महक और उसे देखने का भी था. उसके बाद यह नियम बदल गया और दोनों तरह के भोजन अब एक ही फ्लोर (तल) पर परोसे जाने लगे लेकिन अलग अलग क्षेत्रों में। संस्थान की भोजनालय समिति ने मुझे इस बात की पुष्टि करते हुए बताया कि मांसाहारी भोजन को अलग बर्तनों में ही पकाया जाता है.

इतना ही नहीं, यह भी देखें कि जब कभी-कभी ऐसे स्थानों पर मांस / चिकन / मछली परोसी जाती है तो निश्चित रूप से इसे मंगलवार को नहीं परोसा जाता क्योंकि ज्यादातर हिंदू इसे एक शुभ दिन मानते हैं और गौमांस, भेड़ का मांस, सुअर का मांस ये तो यहाँ कभी देखने को भी नहीं मिलता.

सत्तारूढ़ वर्ग या जाति के शाकाहारी फासीवाद ने स्पष्ट रूप से आपके लिए बहुत ही कम विकल्प छोड़े हैं.

हिंदुत्व के हाथों में सत्ता के साथ, देश में प्रचलित मौजूदा राजनीतिक माहौल में क्या यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि भोजन संघर्ष का माध्यम और संदेश है? आखिरकार आप जैसा खाते हैं वैसे ही होते हैं.

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