नई दिल्ली: हमारे समूचे इतिहास के दौरान दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में एक पति को अपनी पत्नी के साथ जब भी वह चाहे यौन संबंध बनाने का निर्विवाद अधिकार रहा है. सहमति का कोई सवाल ही नहीं उठता था. लेकिन पिछले पांच दशकों में बलात्कार विरोधी आंदोलन के उदय के साथ, कई देशों ने वैवाहिक बलात्कार (मैरिटल रेप) को अपराध घोषित कर दिया है.
भारत में हालांकि कानून में कोई बदलाव नहीं आया है – भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड -आईपीसी) की धारा 375 के अपवाद 2 के अनुसार, अपनी पत्नी के साथ एक पुरुष द्वारा जबरदस्ती किया गया ‘संभोग’ तब तक बलात्कार नहीं कहा जा सकता है जब तक कि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से कम न हो.
पिछले कई वर्षों के दौरान देश की कई अदालतों में दायर याचिकाओं में इस बदलने की मांग की गई है, और अब दिल्ली उच्च न्यायालय में चल रही सुनवाई के दरम्यान केंद्र सरकार इस तरह के किसी बदलाव के खिलाफ अपने रुख पर एक और निगाह डाल रही है.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को केंद्र से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा. न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर की पीठ ने सरकार से यह भी स्पष्ट करने को कहा कि क्या वह अपने 2017 के उस हलफनामे को वापस लेना चाहती है जिसमें उसने इस अपवाद- जो पति को आपराधिक रूप से मुक़दमा चलाये जाने से छूट प्रदान करता है – को हटाए जाने की मांग करने वाली याचिकाओं का विरोध किया है.
इस पर सरकारी वकील चेतन शर्मा ने अपनी संक्षिप्त दलील के दौरान अदालत को बताया कि केंद्र 2017 के अपने रुख पर फिर से विचार कर रहा है. हालांकि, उन्होंने यह नहीं बताया कि क्या सरकार वह हलफनामा वापस लेने के लिए तैयार है अथवा नहीं?
पिछले महीने हुई सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की ओर से बोलते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट से इस मामले में कोई जवाब दाखिल करने के लिए उचित समय दिए जाने की मांग की थी.
उन्होंने कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मुद्दे को ‘अति सूक्ष्म नजरिये’ (माइक्रोस्कॉपिक एंगल) से नहीं देखा जा सकता है और सरकार इस मामले में अपना विचार रखने से पहले सभी हितधारकों से परामर्श करना पसंद करेगी.
अदालत को बताया गया कि आईपीसी में बदलाव के लिए सुझाव प्रस्तुत करने हेतु 2019 में गठित एक समिति भी वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे का अध्ययन कर रही है. हालांकि, दोनों सरकारी वकीलों में से किसी ने भी अपनी तरफ से जवाब दाखिल करने के लिए किसी समयसीमा की पेशकश नहीं की है.
यह देखते हुए कि यह मामला साल 2015 से ही दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित है, मंगलवार को पीठ ने कहा कि वह इस मामले को खत्म करना चाहेगी.
पिछले एक पखवाड़े से अधिक समय से इसकी रोजाना सुनवाई हो रही है, और पीठ ने याचिकाकर्ताओं, इसके विरोधी पक्ष और उन दो वरिष्ठ अधिवक्ताओं की दलीलें सुनी हैं जिन्हें अदालत की सहायता करने के लिए कहा गया था. यह देखते हुए कि वही-वही दलीलें फिर से दोहराई जा रही हैं, पीठ ने मंगलवार को जोर देकर कहा कि (केंद्र) सरकार अदालत को बताए कि क्या वह इस मामले में कुछ कहना चाहती है. अदालत ने कहा कि किसी तरह के जवाब के अभाव में वह 2017 के हलफनामे को ही केंद्र के रुख के रूप में मान लेगी.
सरकार का 2017 का हलफनामा
अगस्त 2017 में उच्च न्यायालय के समक्ष दायर एक हलफनामे में, केंद्र सरकार ने कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को आईपीसी के तहत अपराध के रूप में नहीं जोड़ा जा सकता है, क्योंकि यह ‘विवाह की संस्था पर अस्थिरकारी प्रभाव’ डाला सकता है और ‘पतियों को बिलावजह परेशान करने के लिए आसान जरिया’ बन सकता है.
सरकार की तत्कालीन स्टैंडिंग काउंसल मोनिका अरोड़ा द्वारा दायर इस हलफनामे में यह सुनिश्चित करने की बात कही गई है कि वैवाहिक बलात्कार विवाहों में बाधा डालने वाली ‘परिघटना (फेनोमेनोन)’ न बन जाये. साथ ही, इसे परिभाषित करने के लिए व्यापक आधार वाली आम सहमति की आवश्यकता होगी.
इस हलफनामे में उन ‘असामान्य समस्याओं’ का भी उल्लेख किया गया है, जिसका सामना हमारा देश ‘विभिन्न कारकों’- जैसे कि निरक्षरता, अधिकांश महिलाओं का आर्थिक रूप से सशक्त नहीं होना, समाज की मानसिकता, व्यापक विविधता और गरीबी- की वजह से करता है. इसमें जोर दिया गया है कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने से पहले इन सभी बिंदुओं पर ‘सावधानीपूर्वक विचार’ किया जाना चाहिए.
इसके उपरांत केंद्र ने अदालत से राज्यों को भी उनकी राय के लिए पक्षकार के रूप में शामिल करने के लिए कहा था, क्योंकि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है.
इस हलफनामे में वैवाहिक बलात्कार के आरोपों की जांच करने में आने वाली व्यवहारिक कठिनाइयों पर भी रौशनी डाली गयी है. इसमें लिखा गया है, ‘सवाल यह है कि ऐसी परिस्थितियों में अदालतें किन सबूतों पर भरोसा करेंगी, क्योंकि किसी पुरुष और उसकी पत्नी के बीच हुए यौन कृत्यों के मामले में कोई स्थायी सबूत नहीं हो सकता है.‘
‘व्यापक संशोधन’ की जरूरत, टुकड़ों में किये गए बदलाव’ की नहीं’
और अधिक समय देने के लिए किये गए मौखिक अनुरोध के साथ ही केंद्र ने 12 जनवरी को दायर एक हलफनामे के माध्यम से अदालत को बताया कि वह आपराधिक कानून में व्यापक बदलाव के मुद्दे की जांच कर रहा है, और याचिकाकर्ताओं द्वारा सक्षम अधिकारियों को अपने सुझाव भेजने के लिए निर्देश दिए जाने की मांग की.
याचिकाकर्ताओं द्वारा वैवाहिक बलात्कार वाले अपवाद को पूरी तरह से समाप्त किये जाने की मांग का विरोध करते हुए, इसने कहा: ‘प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के तहत सभी हितधारकों की वृहत रूप से सुनवाई करने की आवश्यकता है.’ इसमें कहा गया है कि परामर्श प्रक्रिया, टुकड़े-टुकड़े में किये गए परिवर्तनों के बजाय इस आपराधिक कानून में व्यापक संशोधन का मार्ग प्रशस्त करेगी.
आपराधिक कानून में संशोधन के लिए होने वाली परामर्श प्रक्रिया, जो एक ‘निरंतर चलने वाली प्रक्रिया’ है, के एक हिस्से के रूप में राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों, भारत के मुख्य न्यायाधीश, राज्य उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों, न्यायिक अकादमियों, राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालयों और विभिन्न बार निकायों से उनकी टिप्पणियां आमंत्रित की गई हैं.
हलफनामें में कहा गया है, ‘सरकार ने पहले ही आपराधिक कानूनों में संशोधन करने के लिए एक व्यापक अभियान शुरू कर दिया है और इस प्रकार, सरकार पहले से ही इस मामले को अपने विचार हेतु ग्रहण कर चुकी है.‘
उस दस्तावेज़ में 2008 और 2010 की दो संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्टों का उल्लेख यह तर्क देने के लिए किया गया है कि भारतीय दंड कानून में आमूलचूल परिवर्तन (ओवरहाल) किये जाने की आवश्यकता थी.
विशेष रूप से वैवाहिक बलात्कार वाले अपवाद के बारे में इस हलफनामे में मार्च 2000 की विधि आयोग (लॉ कमीशन) की 172वीं रिपोर्ट का हवाला दिया गया था, जो इस प्रावधान को हटाने का समर्थन नहीं करती थी क्योंकि ‘यह वैवाहिक संबंधों में अत्यधिक हस्तक्षेप के समान हो सकता है’.
‘इस धारा के बारे में मौजुद विरोधाभासी विचारों के चलते व्यापक परामर्श की आवश्यकता है’
एक वकील, जो इस मामले में सरकारी दल का हिस्सा है, ने दिप्रिंट को बताया कि व्यापक परामर्श एक निर्णायक प्रक्रिया है, और आदर्श रूप से केंद्र इस विषय पर कोई भी स्थायी रुख (स्टैंड) लेने से पहले इंतजार करना चाहेगा.
इस वकील ने कहा, ‘एक तरह की सोच यह भी है कि इस धारा को हटाए जाने का व्यापक सामाजिक प्रभाव पड़ सकता है. कोई भी इसे एकदम से ख़ारिज नहीं कर सकता है. इसलिए, जल्दबाजी में निकाले गए निष्कर्ष से बचने के लिए विभिन्न हितधारकों के साथ व्यापक रूप से परामर्श करने की आवश्यकता है. हमने अपने पहले के रुख को वापस नहीं लिया है, लेकिन अभी के लिए हम इस स्थिति की व्यापक समीक्षा कर रहे हैं. यह एक रचनात्मक दृष्टिकोण है.’
उन्होंने आगे कहा कि न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति द्वारा इस अपवाद को निरस्त करने के लिए 2013 में की गयी सिफारिश ने वैवाहिक बलात्कार के मामलें में एक अलग दृष्टिकोण को जन्म दिया है. इस समिति का गठन 2012 के निर्भया मामले – जिसमें दिल्ली में एक चलती बस अंदर एक महिला के साथ बेरहमी से सामूहिक बलात्कार किया गया था और फिर उसकी हत्या कर दी गई थी – के बाद बलात्कार कानूनों के अध्ययन तथा उन्हें और अधिक प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक परिवर्तनों के बारे में प्रस्ताव देने के लिए किया गया था.
वकील ने कहा, ‘इस मामले में दो परस्पर विपरीत रिपोर्टों (कानून आयोग और न्यायमूर्ति वर्मा समिति) के कारण, व्यापक परामर्श की आवश्यकता है ताकि केंद्र सरकार अदालत के समक्ष कोई सोचा-समझा रुख अपना सके.’
मगर इन याचिकाकर्ताओं में से एक का प्रतिनिधित्व करने वाले एक वकील ने दिप्रिंट को बताया कि केंद्र की तरफ से किसी प्रतिक्रिया की कोई आवश्यकता नहीं है, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि 2017 के हलफनामे को वापस नहीं लिया गया है. इस वकील ने कहा, ‘इस मामले को ठंडे बस्ते में धकेल दिए जाने के बाद, सुनवाई ही लगभग चार साल बाद शुरू हुई. और अधिक समय के लिए दी जा रही सरकार की दलील और कुछ और नहीं बल्कि केस में देर करने की रणनीति है.’
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