नई दिल्ली: अगर 2008 में प्रस्तावित असंगठित श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने वाला क़ानून लागू कर दिया गया होता तो कॉविड -19 के कारण लगे देशव्यापी लॉकडाउन के बीच घोर संकट का सामना कर रहे हजारों प्रवासी मजदूरों के पास अपना एक सुरक्षा कवच होता. लेकिन विगत कई सरकारें ऐसा करने में पूरी तरह विफल रही हैं.
सरकार के पास इस वक्त उपलब्ध डेटाबेस से पता चलता है कि 28 लाख प्रवासी मजदूर विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा खोले गए राहत शिविरों में थे. इन प्रवासियों को उनके आधार कार्ड और बैंक खाते के विवरण प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था. हालांकि, अधिकारियों का मानना है कि करीब सात से आठ करोड़ प्रवासी अभी भी या तो उन उद्योगों के भीतर रह रहें हैं जहां वे काम करते थे अथवा अनधिकारिक तरीकों से अपने घरों को वापस हो गए हैं. सरकार के पास इन श्रमिकों के बारे में फिलहाल कोई स्पष्ट विवरण नहीं है.
डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार द्वारा पारित असंगठित क्षेत्र के श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 के प्रावधानों में से एक असंगठित श्रमिकों के लिए विस्तृत डेटाबेस तैयार करना भी था, जो मौजूदा परिस्थितियो में प्रवासी मजदूरों की काफ़ी मदद कर सकता था.
अब कुछ अधिकारियों का कहना है कि इस कानून में कुछ अंतर्निहित दोष थे, जिनके कारण इसके कार्यान्वयन को रोक दिया गया. यह वर्तमान संकट की जड़ हो सकता है. लेकिन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि सरकारें इसमे सुधार कर सकती थीं और बीच के वर्षों में इसे लागू कर सकती थीं.
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इस क़ानून की मुख्य बातें
वर्तमान मे लागू ज़्यादातर सामाजिक सुरक्षा योजनाएं मुख्य रूप से केवल संगठित क्षेत्र में सुरक्षा प्रदान करती हैं, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था काफी हद तक अनौपचारिक है. विभिन्न राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षणों के अनुसार, भारत का 90 प्रतिशत से अधिक कार्यबल असंगठित क्षेत्र में कम करता है. इसलिए, ज़्यादातर श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों, जैसे पेंशन, बीमा या भविष्य निधि का लाभ नहीं मिल पाता.
2008 में जब यह क़ानून संसद में पेश किया गया था तो इसके मसौदा बिल में दिए गए उद्देश्यों के अनुसार इसके तहत कम से कम 37.5 करोड़ श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा और नौकरी की सुरक्षा प्रदान करने का उद्देश्य निहित था. इसमें दो श्रेणियों के असंगठित श्रमिकों को शामिल किया गया है: स्वरोजगार और मजदूरी के आधार पर नियोजित. लाभार्थियों के लिए आठ भिन्न सामाजिक कल्याण योजनाओं की रूपरेखा तैयार की गई है.
यह कानून केंद्र सरकार और राज्यों द्वारा, ‘असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के विभिन्न वर्गों के लिए उपयुक्त कल्याणकारी उपायों’ की सिफारिश करने वाले ‘सामाजिक सुरक्षा सलाहकार बोर्ड’ का गठन करने का प्रावधान करता है. इस कानून की एक प्रमुख विशेषता है कि यह राज्य मे स्थित बोर्ड को विभिन्न शहरों में कार्यरत प्रवासियों का डेटाबेस को विकसित करने के लिए असंगठित श्रमिकों को स्मार्ट पोर्टेबल पहचान पत्र जारी करने की अनुमति देता है.
डेटाबेस से लॉकडाउन में प्रवासियों को मदद मिल सकती थी
जमशेदपुर के एक्सएलआरआई मे कार्यरत श्रम अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर श्याम सुंदर के अनुसार, यदि इस कानून के तहत प्रस्तावित प्रशासनिक उपाय लागू किए गये होते, तो एक डेटाबेस राज्यों और केंद्र की सरकारों को मौजूदा संकट में प्रवासियों को तत्काल राहत प्रदान करने में सक्षम बनाता.
उन्होने कहा कि ‘यह क़ानून कुछ उद्योगों में कार्यरत असंगठित श्रमिकों का डेटाबेस तैयार करने के लिए और उन्हें दृश्यता प्रदान करने हेतु एक प्रणाली की स्थापना की परिकल्पना करता है. इस अधिनियम के तहत, राज्यों को श्रमिक सुविधा केंद्र स्थापित करने होंगे जहां प्रवासी श्रमिक ‘स्मार्ट पोर्टेबल पहचान पत्र के लिए खुद को पंजीकृत कर सकते हैं,”
सुंदर ने आगे बताया कि , ‘इन श्रमिक सुविधा केंद्रों को असंगठित क्षेत्र और स्थानीय अधिकारियों के मध्य एक सेतु के रूप में काम करना था’ लेकिन उन्होने यह भी कहा कि इनमें से कोई भी उपाय लागू नहीं किया गया है.
उनके अनुसार स्मार्ट कार्ड की सहायता से अल्पकालिक प्रवासियों का पता लगाना आसान हो जाएगा. सुंदर ने कहा, ‘अभी, अधिकारियों ने इसे ऐप के माध्यम से लागू किया है और 5 मिलियन प्रवासियों का पता लगाया है. पर यह मेरे हिसाब से बहुत कम आकलन है.’
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वे ‘दोष’ जो इसके कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करते हैं..
अधिकारियों का कहना है कि इस कानून के कार्यान्वयन में कुछ बाधा इसके तैयार किए जाने के तरीके के कारण आई है.
नाम न छापने की शर्त पर श्रम मंत्रालय में कार्यरत एक अधिकारी ने द प्रिंट को बताया कि नेशनल कमिशन फॉर एंटरप्राइज़स इन द अन-ऑर्गनाइज़्ड सेक्टर (असंगठित क्षेत्र के राष्ट्रीय उद्यम आयोग) ने कृषि श्रमिकों और असंगठित गैर-कृषि श्रमिकों के लिए दो अलग-अलग बिलों की सिफारिश की थी. यह अधिनियम कृषि और गैर-कृषि श्रमिकों के बीच अंतर नहीं करता है.
इस अधिकारी ने आगे बताया कि ‘एक असंगठित श्रमिक के रूप में पंजीकरण करने के लिए, व्यक्ति की आयु कम- से- कम 14 वर्ष होनी चाहिए और उसे खुद को एक असंगठित श्रमिक घोषित करना चाहिए. अधिनियम में इस तरह की स्व-घोषणा को सत्यापित करने की कोई प्रक्रिया नहीं है.’
विशेषज्ञों का कहना है कि यह कानून हड़बड़ी में पारित किया गया था क्योंकि उस समय के सत्तारूढ़ गठबंधन का सहयोग कर रहे वामपंथी दल इसके लिए दबाव डाल रहे थे. हालांकि पी. आर. एस. लेजिस्लेटिव रिसर्च के एक विश्लेषण के अनुसार, वामपंथी दलों ने राष्ट्रीय कल्याण कोष की स्थापना और श्रमिकों के लिए स्वास्थ्य और बीमा योजनाओं के लिए प्रावधान हेतु संशोधन प्रस्ताव भी पेश किए थे.
सीपीआई (एम) के पूर्व सांसद और सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (सीटू) के नेता तपन सेन ने कहा, ‘ हमारा इरादा कृषि, तंबाकू, हथकरघा, निर्माण और चमड़े के उद्योगो सहित असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की रक्षा करना था. लेकिन कानून के तहत लाभार्थियों को गरीबी रेखा से नीचे या उसके बराबर की मजदूरी पाने वालों तक हीं सीमित रखा गया था. असंगठित श्रमिकों का एक बड़ा प्रतिशत बीपीएल सीमा के अंतर्गत नहीं आता है,’
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‘सरकारें इस पर सोई रहीं’
हालांकि, प्रो. सुंदर ने कहा कि इस क़ानून की खामियां इसे यूँ हीं छोड़ देने का कारण नहीं थीं. इसके उलट विभिन्न सरकारों को इसे सुधारने के लिए काम करना चाहिए था.
एक्सएलआरआई के इस अर्थशास्त्री के अनुसार ,’अगर हम यह मान भी ले कि यह क़ानून असंगठित क्षेत्र को सही तरह से द्विभाजित ना करने के कारण कमजोर आधार वाला था फिर भी जो एक प्रमुख प्रश्न उभरता है वह यह है कि क्या हमने योजना के अनुसार कार्य किया है? और जवाब ना मे हीं है,
प्रो. सुंदर कहते हैं, ‘विगत कई सरकारें 11 वर्षों से भी अधिक समय से इस मुद्दे पर सोई हुई हैं. अगर प्रवासियों की छूटी हुई श्रेणियों को शामिल करने के लिए इसकी परिधि को और चौड़ा करना आवश्यक था तो न तो यूपीए ना ही एनडीए के पास इस कानून में ज़रूरी संशोधन करने की इच्छा शक्ति थी.’
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