नई दिल्ली: जलवायु परिवर्तन का एक चिंताजनक संकेत है कि पिछले दो दशकों में, भारत के वनों में भीषण आग की घटनाओं में दस गुना का इज़ाफा हुआ है, ये ख़ुलासा एक नई स्टडी में किया गया है.
वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक के अनुसार, 2019 में जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले देशों में भारत का सातवां स्थान था, और अब काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्लू) ने पाया है कि भारत के जंगल इसका एक प्रमुख शिकार रहे हैं.
बृहस्पतिवार को जारी रिपोर्ट में पाया गया है, कि भारत का 36 प्रतिशत वन आवरण ऐसे ज़ोन में पड़ता है, जो जंगल की आग के प्रति संवेदनशील हैं. स्टडी के अनुसार, आग की घटनाओं की बारंबारता और भीषणता में- जिसे घटनाओं की संख्या और जले हुए कुल क्षेत्र से नापा जाता है- 2000 से 2019 के बीच लगातार इज़ाफा हुआ है.
स्टडी में पता चला कि जहां 2000 में सभी राज्यों में जंगल की आग की 3,082 घटनाएं हुईं, 2019 तक ये संख्या बढ़कर 30,947 पहुंच गई. जंगल की आग के नतीजे में हवा की गुणवत्ता में भी गिरावट आई.
स्टडी में पाया गया कि आंध्र प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, तेलंगाना के ज़िले और उत्तरपूर्व के लगभग सभी सूबे (सिक्किम को छोड़कर) इससे सबसे अधिक प्रभावित हैं.
स्टडी में कहा गया, ‘साफ ज़ाहिर है कि ये आग जलवायु परिवर्तन की वजह से लग रही है- जिसके लिए अनुकूल मौसम, ऊंचा तापमान, कम नमी, और बढ़ते सूखे सीज़न ज़िम्मेवार हैं’. उसमें आगे कहा गया, ‘जहां जंगल जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को घटा और पलट सकते हैं, लेकिन इससे कोई इनकार नहीं किया जा सकता, कि जंगलों की जलवायु प्रूफिंग करना वक़्त की ज़रूरत है.’
सीईईडब्लू की 2021 की एक स्टडी में पाया गया था, कि भारत के अधिकतर ज़िले जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील थे, और स्टडी में देखा गया था कि सूखे, बाढ़, और चक्रवात की बारंबारता और भीषणता में इज़ाफा हुआ है.
दोनों स्टडीज़ के आग्रणी लेखक अबिनाश मोहंती ने दिप्रिंट से कहा, ‘हमने इस स्टडी से ये दिखाने की कोशिश की है, कि स्रोत चाहे कुछ भी हो, जलवायु परिवर्तन ने वातावरण को जंगलों की आग के फैलने के अधिक अनुकूल बना दिया है’.
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सूखे ने आग की घटनाएं बढ़ाईं
स्टडी में दो दशकों (2000-2009 और 2010-2019) के लिए जंगल की आग का एक रोस्टर तैयार किया गया, जिसके लिए कई वैश्विक और राष्ट्रीय डेटा सेट्स का इस्तेमाल किया गया, जिनका फिर मॉडरेट-रिज़ोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर (मोडिस) सेंसर से हासिल हुई सेटलाइट तस्वीरों के ज़रिए क्रॉस-वेरिफिकेशन किया गया.
चूंकि मोडिस सेंसर जंगल की आग और फसल या कचरा जलाने और दूसरी छोटी आग की घटनाओं में भेद करने में सक्षम नहीं है, इसलिए भारतीय वन सर्वेक्षण के जंगल की आग की उन्मुखता के वर्गीकरण से भी ऐसे क्षेत्रों की पहचान की गई जहां अकसर आग लगने की घटनाएं होती हैं. मसलन, ‘आग की बेहद आशंका’ वाला वन क्षेत्र वो होता है, जहां किसी नापे गए क्षेत्र में साल में आग लगने की औसतन चार से अधिक घटनाएं हुई हों.
शोधकर्त्ताओं ने दो दशकों के अनुपात-अस्थायी डेटा का और विश्लेषण किया, और ज़िला स्तर के हॉट-स्पॉट्स की पहचान की, ताकि छोटे स्तर की या वनों से बाहर आग की घटनाओं को ख़ारिज किया जा सके.
स्टडी के अनुसार उष्णकटिबंधीय नम पतझड़ी वन, और उनके बाद उष्णकटिबंधीय शुष्क पतझड़ी वन, जंगल की आग के लिए सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं.
स्टडी में कहा गया कि बढ़ता तापमान ‘प्रमुख रूप से सूखे सीज़न और सूखे मौसम को बढ़ाता है, जिससे ज़मीन तथा मिट्टी और सूख जाती हैं, और जंगल की आग के लिए ज़्यादा संवेदनशील हो जाती हैं’.
दुनिया भर में, तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.1 डिग्री ऊपर हो गए हैं. भारत में वर्ष 1907 के बाद से तापमान में वृद्धि 0.6 डिग्री रही है.
भारत के 192 से अधिक ज़िलों में से, जो जंगल की भीषण आग के प्रति संवेदनशील हैं, 89 प्रतिशत ज़िले ऐसे क्षेत्रों में हैं जो सूखा-संभावित हैं, या जिनमें ‘अदला-बदली की प्रवृत्ति’ नज़र आती है- जब परंपरागत बाढ़-संभावित इलाक़े ज़्यादा से ज़्यादा सूखा-संभावित हो जाते हैं.
स्टडी में कहा गया है, ‘इससे पुष्टि हो जाती है कि सूखे या सूखे जैसी परिस्थितियों में, सूखे मौसम की अवधि बढ़ जाती है जो आगे चलकर जंगल में आग की लपटें पैदा करती हैं’.
कुछ ज़िले जहां ‘अदला-बदली की प्रवृत्ति’ नज़र आती है, और जो जंगल में भीषण आग के प्रति संवेदनशील हैं, वो हैं कंधमाल (ओडिशा), शिवपुर (मध्य प्रदेश), उधम सिंह नगर (उत्तराखंड) और ईस्ट गोदावरी (आंध्र प्रदेश).
भारत ने 2030 तक पर्याप्त वन और वृक्ष कवर तैयार करने का संकल्प लिया है, जो 2.5 से 3 बिलियन टन तक कार्बन डायोक्साइड सोखेगा. भारत ने ये भी संकल्प लिया है कि उसी वर्ष तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर पतित वनों को भी बहाल किया जाएगा. स्टडी में कहा गया है कि इन वादों के पूरे होने की संभावना तब तक नहीं है, जब तक जंगल की आग का बेहतर प्रबंधन न किया जाए.
स्टडी में सिफारिश की गई कि जंगल की आग को, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के अंतर्गत एक तरह की आपदा घोषित कर दिया जाए. स्टडी में कहा गया है कि इससे वित्तीय आवंटन बढ़ेगा और राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) तथा राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल (एसडीआरएफ) के अंतर्गत, प्रशिक्षित वन अग्निशामकों का एक काडर तैयार किया जाएगा’, जिससे ‘जंगल की आग के प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति को बढ़ावा और मज़बूती मिलेगी.
सीईईब्लू स्टडी में आगे कहा गया, कि सभी प्रकार की आग की बजाय जंगल की आग के लिए, अलग से अलर्ट सिस्टम विकसित किए जाने चाहिए, चूंकि उससे एकत्र किए गए डेटा में कोई विकृति नहीं आएगी. उसकी ये भी सिफारिश थी कि जंगल के आग-संभावित क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता की निगरानी में भी सुधार होना चाहिए, और आग की घटनाओं में वृद्धि से निपटने में, वन विभागों तथा स्थानीय समुदायों की अनुकूली क्षमता को भी बढ़ाया जाए.
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‘जंगल में आग की अधिकतर घटनाएं मानव-निर्मित’
लेकिन सभी विशेषज्ञ इस विचार से सहमत नहीं हैं, कि जंगल की आग को एनडीएमए के तहत आपदा की श्रेणी में रखना, इस समस्या से निपटने का कोई कारगर समाधान होगा, क्योंकि जंगल में आग की अधिकतर घटनाएं मानव-निर्मित होती हैं, जो पराली जलाने, झूम खेती, या चारा प्रबंधन जैसी चीज़ों से होती हैं.
सेंटर फॉर इकॉलजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च के सीनियर फेलो डॉ विशाल सिंह ने दिप्रिंट से कहा, ‘जहां ये बात सच है कि सूखे के मौसम बढ़ गए हैं, वहीं ये याद रखना भी ज़रूरी है कि जंगलों में आग की घटनाएं ज़्यादातर इंसानों की वजह से शुरू होती हैं. इसलिए उस मायने में ये एक प्राकृतिक आपदा नहीं है. जंगल में आग की घटनाओं को कम करने के लिए ज़रूरी है, कि जागरूकता तथा भागीदारी बढ़ाई जाए, और साथ ही स्थानीय समुदायों में जंगलों के प्रति स्वामित्व की भावना बहाल की जाए’.
उन्होंने आगे कहा कि जंगल की आग की भीषणता, आग से पैदा हुए अधिकतम तापमान पर निर्भर करती है, और इस पर भी निर्भर करती है कि क्या से सतही या ज़मीन पर लगी आग है. इसके अलावा ये जले हुए क्षेत्र की सीमा और उसकी बारंबारता पर भी निर्भर होती है, जैसा कि सीईईडब्लू रिपोर्ट में निशानदेही की गई है.
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