‘पप्पू-शहज़ादा-औरंगज़ेब…’, राहुल गांधी की इस कहानी को जिलाए रखने में भाजपा को फायदा ही फायदा नजर आता है
इसमें तो कोई संदेह है ही नहीं कि राहुल गांधी आज भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक हस्ती हैं. इस कथन पर आपको आश्चर्य तो नहीं हुआ? बहरहाल, ज़रा सोचिये कि क्या राहुल भाजपा और कांग्रेस, दोनों की तकदीर के लिए अहम नहीं बन गए हैं. और यह ऐसी स्थिति है, जो उन्हें उनकी तमाम विफलताओं के बावजूद दोनों के लिए अपरिहार्य बनाती है.
कांग्रेस अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की आसन्न ‘ताज़पोशी’ पर प्रधानमंत्री ने जो ‘‘औरंगजेब राज’’ वाला कटाक्ष किया है, वह इस बात का सटीक उदाहरण है कि भाजपा ‘रागा गाथा’ को किस कदर पसंद करती है. भाजपा के रणनीतिकारों को यकीन है कि यही है जो चुनाव जीतने का सबसे कारगर फॉर्मूला है.
भाजपा की चुनावी प्लेबुक के मुताबिक, एक बार उसकी मुहिम के कारण यह कायम हो गया कि राहुल गांधी ही विपक्ष का मुख्य चेहरा हैं, तो अनिर्णय में पड़े मतदाता भाजपा की ओर दौड़े चले आएंगे. यह मोदी के अभियान के हावी होने का आधार तैयार कर देगा और उन्हें सर्वोत्तम विकल्प के तौर पर प्रस्तुत कर देगा.
भाजपा का मानना है कि यह पटकथा 2014 के बाद हुए हरेक चुनाव में कारगर रही है, सिवा एक-दो मामले में जब राहुल से अलग कोई दूसरा चेहरा विपक्ष में प्रमुख था- दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, बिहार में नीतीश कुमार या लालू यादव.
गुजरात में भी भाजपा चुनावी अभियान का ‘राहुलीकरण’ करने की अथक कोशिश में जुटी है. पहले तो पप्पू वाला चुटकुला, वीडियो वगैरह चलाए गए, जिन्हें चुनाव आयोग की रोक के बाद हटा लिया गया; इसके बाद राहुल के मंदिरों के दौरे, खासकर सोमनाथ मंदिर के दौरे को उछाला गया; फिर अमेठी मॉडल के नकारात्मक चित्र पेश किए गए, जो पिछले सप्ताह अमेठी में स्थानीय चुनाव में भाजपा की जीत के बाद और प्रखर हो गए.
यानी उलटी तरह से देखें तो राहुल गांधी की ‘पप्पू-शहज़ादा-औरंगज़ेब’ वाली कहानी ऐसी हैं कि वह भाजपा को अपना परचम लहराते रहने का डंडा बन सकती है.
लेकिन विडंबना यह है कि ऐसा करके उसने राहुल को चर्चा में बनाए रखा है. कांग्रेस के किसी और नेता पर भाजपा और उसकी सरकार ने उतना ध्यान नहीं केंद्रित किया है जितना राहुल पर किया है. लोकसभा में कांग्रेस की मात्र 46 सीटों की ताकत के मद्देनजर तो यह आनुपातिक रूप से कुछ ज्यादा ही लगता है.
पार्टी छोड़ने वाले कांग्रेसी नेताओं की संख्या भले ज्यादा हो और उनमें से कई तो भाजपा में भी गए हैं, फिर भी पार्टी को कोई बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा है. अगर कुछ हुआ है तो यह कि परिधि पर कुछ टूट-फूट के कारण आंतरिक एकजुटता और बढ़ी है, जो यह दर्शाती है कि कांग्रेस में नए-पुराने, दोनों तरह के नेताओं ने राहुल के नेतृत्व को किस तरह स्वीकार कर लिया है.
कांग्रेस ने अपनी नाव की पतवार राहुल के हाथों में सौंप दी है. अब राहुल को उन्हें अपने साथ जोड़कर उपलब्ध हथियारों से लड़ने के लिए तैयार करना होगा. वह कमज़ोर भले दिखते हैं, लेकिन राहुल को एहसास है कि वे बेहद सक्षम राजनीतिक संगठन का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसने गुजरात जैसे भाजपा शासित राज्य में भी 40 प्रतिशत वोट के आधार के साथ अपनी शुरुआत की है.
इस कड़े मुक़ाबले में कांग्रेस चाहेगी कि राहुल कांग्रेस की गाड़ी को सही दिशा में ले जाएं- मंच पर डटे रहें, प्रतिभाओं को आगे बढ़ाएं, सबको समान अवसर और न्याय दें. उन्हें उम्मीद है कि उनकी ‘रागा गाथा’ एकदम अलग ही होगी, जिसमें उनकी सत्ता तथा उनके प्रभाव से कांग्रेस में नये प्राण का संचार होगा.
जो भी हो, राहुल ने 2014 की विफलता के बाद जितनी राजनीतिक प्राणवायु की अपेक्षा की होगी उसके मुक़ाबले आज उन्हें यह कहीं ज्यादा उपलब्ध है. नतीजा यह कि उन्हें एक और मौका मिल गया है. हालांकि इस बार भाजपा ने उन्हें देश की प्रमुख विपक्षी हस्ती के रूप में मान्य तथा स्थापित कर दिया है.