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Wednesday, 20 November, 2024
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RBI को बॉन्ड मार्केट के मुद्दों से निपटने के लिए कर्ज प्रबंधन के कार्यों से मुक्त होने की जरूरत क्यों है

आरबीआई के लिए बतौर सरकारी ऋण प्रबंधक अपनी सेवाएं देते हुए मुद्रास्फीति काबू रखने की जिम्मेदारी निभाने को लेकर चलने वाला अंतर्द्वंद अगले कुछ सालों में और बढ़ने वाला है.

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नरेंद्र मोदी सरकार ने 2021-22 के लिए अपेक्षा से कहीं ज्यादा, 12 लाख करोड़ रुपये बाजार से उधार लेने की घोषणा की है. इस वित्त वर्ष के लिए भी सरकार ने कहा कि वो बाजार से 80,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त ऋण लेगी.

सरकार द्वारा बाजार से उधारी बढ़ाने और घाटे की परवाह न करते हुए वित्तीय अनुशासन की ओर धीरे-धीरे बढ़ने के रुख से बॉन्ड मार्केट में बेचैनी सी दिख रही है.

बॉन्ड निवेशक जहां हायर यील्ड की मांग कर रहे हैं, वहीं सरकार के ऋण प्रबंधक के तौर पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) पर यील्ड को नियंत्रित रखने वाले कदम उठाने का दबाव है.


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आरबीआई की भूमिका पर अंतर्द्वंद

आरबीआई के लिए बतौर सरकारी ऋण प्रबंधक अपनी सेवाएं देते हुए मुद्रास्फीति को काबू रखने की जिम्मेदारी निभाने को लेकर चलने वाला यह अंतर्द्वंद अगले कुछ सालों में और बढ़ने वाला है.

बड़ी उधारी की योजना के साथ ब्याज दरों में वृद्धि का दबाव होगा. बतौर ऋण प्रबंधक आरबीआई को सरकार की उधार की लागत कम रखनी होगी. लेकिन मुद्रास्फीति बढ़ने लगे तो मूल्यवृद्धि रोकने के लिए ब्याज दरों को बढ़ाना पड़ता है. पहले से ही स्थिति विकट बनी हुई है क्योंकि बाजार की तरफ से ब्याज दरों पर दबाव बढ़ रहा है.

जब तक महंगाई कम है, आरबीआई तब-तब आगे आकर बॉन्ड खरीदेगा, जब ब्याज दरें बढ़ने लगेंगी तो सिस्टम में पूंजी प्रवाह बढ़ाया जाएगा और दरों में कमी लाई जाएगी.

इस वर्ष अधिकांश समय बांड खरीदारों और आरबीआई के बीच रस्साकशी जारी रहने वाली है. केंद्रीय बैंक ने यील्ड मैनेजमेंट के लिए कई नीतिगत उपायों, खासकर ओपेन बाजार ऑपरेशन्स (ओएमओ) और ऑपरेशन ट्विस्ट, का सहारा लिया है.

ओएमओ में आमतौर पर लिक्विडिटी को मैनेज करने के लिए बॉन्ड की खरीद या बिक्री की जाती है. जब यील्ड पर अपवर्ड प्रेशर होता है, तो आरबीआई बॉन्ड खरीदता है, जिससे बाजार में फिर से पैसा या पूंजी प्रवाह बढ़ जाता है. अधिक पूंजी प्रवाह ब्याज दरों को नीचे लाने में मदद करता है. आरबीआई ने इस वर्ष ओएमओ के तहत पहले ही 3 लाख करोड़ रुपये की बॉन्ड खरीद की है.

इन उपायों के बावजूद पिछले कुछ हफ्तों में बॉन्ड की मांग में गिरावट आई है. आरबीआई ने बॉन्ड निवेशकों की यील्ड पर बॉन्ड की बिक्री की मांग नकार दी है. नतीजतन, यह अंडरराइटर्स को बॉन्ड खरीदने पर मजबूर कर रहा है. प्राइमरी डीलर्स के स्तर पर व्यापक हलचल के बीच आरबीआई ने प्राइमरी डीलर्स द्वारा खरीद की सुविधा के लिए ज्यादा अंडरराइटिंग कमीशन की पेशकश की है.


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बाजार को भरोसा नहीं

यद्यपि केंद्रीय बैंक ने आश्वस्त किया है कि वह वो हरसंभव कदम उठाएगा जिससे उधार लेने का कार्यक्रम सुचारू रूप से चलते रहना सुनिश्चित हो सके लेकिन बाजार इससे सहमत नहीं दिख रहा है.

सबसे पहले तो, सरकार ने घोषणा की है कि अगले पांच वर्षों में राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 4.5 प्रतिशत होगा. इसका मतलब है कि अगले कुछ वर्षों में बाजार से उधारी को बढ़ाया जाएगा, जिससे दबाव बढ़ेगा. न केवल केंद्र सरकार बल्कि राज्य सरकारों की उधारी में भी वृद्धि हुई है और संभवतः आगे भी बढ़ेगी क्योंकि राज्यों को बाजार से अतिरिक्त ऋण लेने की अनुमति मिल गई है.

दूसरे, यद्यपि आरबीआई ने दोहराया है कि वह अपने मार्गदर्शन में ग्रोथ को फिर से बढ़ाने के लिए उदार रुख अपनाए रखेगा लेकिन केंद्रीय बैंक की कुछ घोषणाओं को इसके उदार रुख में बदलाव का संकेत माना गया है. इसने पूरे सिस्टम में लिक्विडिटी बढ़ाने के लिए लांग टर्म रेपो ऑपरेशन्स और टार्गेटेड लांग टर्म रेपो ऑपरेशन्स जैसे कई कदम भी उठाए हैं.

बैंकों के लिए लिक्विडिटी सुनिश्चित करने के लिए आरबीआई ने मार्च 2020 में कैश रिजर्व रेशियो (सीआरआर) में एक साल की अवधि के लिए 100 आधार अंकों की कटौती की घोषणा की थी. विकासात्मक और विनियामक नीतियों पर अपने ताजा बयान में इसने 27 मार्च से चरणबद्ध तरीके से सीआरआर की 4 फीसदी पर बहाली की घोषणा की. इसे आरबीआई के उदार रवैये के एकदम उलट माना गया.

तीसरे, एक्सचेंज रेट मैनेजमेंट, मुद्रास्फीति नियंत्रण और लिक्विडिटी मैनेजमेंट जैसे कई उद्देश्यों को आगे बढ़ाने की आरबीआई की रणनीति ने कुछ मुश्किलें उत्पन्न कर दीं और बाजार को भ्रमित किया. यह विदेशी निवेशों में आई तेजी के बीच रुपये की कीमत में सुधार को रोकने के लिए बाजार में हस्तक्षेप कर रहा है.

डॉलर की खरीद ने रुपये की प्रवाह आपूर्ति बढ़ा दी है. ऐसे में शॉर्ट टर्म रेट- जिन्हें औसत काल रेट के तौर पर आंका जाता है और टी-बिल रेट कम (रिवर्स रेपो दर से भी नीचे) हैं, सरकार की भारी भरकम उधारी ने लांग टर्म बॉन्ड पर मिलने वाले फायदों को लेकर चिंताओं को बढ़ा दिया है.

नतीजतन, रेपो दर से अधिक वाले 10 साल के सरकारी बांड का प्रसार व्यापक बना हुआ है. टर्म प्रीमियम के अन्य उपाय— एक साल के टी-बिल पर 10 साल के बॉन्ड खरीदा जाना भी बढ़े हैं. टर्म का विस्तार सरकारी उधारी संबंधी योजना के प्रबंधन को लिए आरबीआई के कदमों पर संदेह को जाहिर करता है.


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भारत को ऋण प्रबंधन कार्यालय की जरूरत

अंतत: जब मुद्रास्फीति की चिंताएं फिर उभर रही हैं और मांग फिर जोर पकड़ने लगी है, महंगाई पर काबू पाना और ऋण प्रबंधन के बीच तालमेल बैठाना मुश्किल हो सकता है.

कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में वृद्धि और कमोडिटी की कीमतें उच्च इनपुट लागत में बदल सकती हैं और इससे व्यापक आधार पर उच्चतम मुद्रास्फीति की स्थिति आएगी.

आरबीआई ने जब ग्रोथ को फिर से पटरी पर लाने को अधिक प्राथमिकता दी है, उसे अपना उदार रवैया बदलना होगा और ब्याज दर में वृद्धि की ओर बढ़ना होगा. यह आरबीआई के ऋण प्रबंधन कार्य को जटिल बना सकता है. अब समय आ गया है कि ऐसी कुछ चिंताओं को दूर करने के लिए एक स्वतंत्र ऋण प्रबंधन कार्यालय बनाने के एजेंडे पर लौटा जाए.

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री हैं और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं राधिका पाण्डेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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