भारतीय रिजर्व बैंक ने दूसरे बैंकों को दिए जाने वाले उधार पर पॉलिसी रेट को स्थिर रखा है और दूसरों के लिए गुंजाइश छोड़ने की नीति बनाए रखी है. इसकी उम्मीद भी थी. मुख्य जीडीपी तो कोविड महामारी से पहले वाले स्तर पर पहुंच गई है मगर कुछ सेक्टर अभी कोविड महामारी से पहले वाले स्तर से नीचे ही हैं.
कोविड के नये ओमिक्रॉन रूप के सामने आने से आर्थिक वृद्धि के लिए खतरा पैदा हो गया है. इसके साथ ही मुद्रास्फीति भी बढ़ने लगी है. कच्चे माल की ऊंची कीमतों, परिवहन की लागत, सप्लाइ चेन में अड़ंगों आदि के चलते लागत में वृद्धि के दबाव मूल मुद्रास्फीति को बढ़ा सकते हैं.
पिछले दो वर्षों से आर्थिक वृद्धि की खातिर मुद्रास्फीति को बर्दाश्त करने की रणनीति तो ठीक थी मगर भविष्य के लिए रिजर्व बैंक की दरों को सामान्य स्तर पर लाना होगा ताकि बचतकर्ताओं को वास्तविक सकारात्मक दरें हासिल हो सकें.
महामारी के जवाब में भारत में मौद्रिक नीति के तहत ब्याज दरों को कम किया गया और तरलता लाई गई. दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत, भारत में महामारी के जवाब में जो की नीतिगत कदम उठाए गए उनके तहत काफी बड़ा वित्तीय विस्तार नहीं किया गया. सरकार अगर बड़े पैमाने पर खर्च करती तो इससे मुद्रास्फीति बढ़ने का खतरा था. इससे मौद्रिक नीति को लागू करना जटिल हो जाता.
हाल के महीनों में कई देशों में जींसों की कीमतों और लागत मूल्यों में वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति काफी बढ़ गई है, जिसके जवाब में इन देशों के केंद्रीय बैंकों ने दरों को बढ़ाना, और मुद्रा नीति के सामान्यीकरण की गति को भी बढ़ाना शुरू कर दिया. अगस्त महीने में दक्षिण कोरिया एशिया का पहला बड़ा देश बना जिसने महामारी शुरू होने के साथ ब्याज दरों को बढ़ा दिया था. रियल एस्टेट की कीमतों में वृद्धि के कारण ब्याज दरों में 25 बेसिस अंकों की वृद्धि की गई. विकसित देशों में न्यूजीलैंड के रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में 25 बेसिस अंकों की वृद्धि की. अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने संकेत दिया है कि उसे उच्च मुद्रास्फीति की ज्यादा चिंता है और वह वित्तीय पैकेज में कमी लाने की गति बढ़ा सकता है. नवंबर में फेड ने घोषणा की कि अमेरिका बॉण्ड की खरीद में प्रति माह 15 अरब डॉलर की कमी लाने की योजना बना रहा है. चूंकि मुद्रास्फीति का आधार व्यापक और मजबूत हो गया है, फेड ने संकेत दिया है कि बॉण्ड की ख़रीदारी के रूप में समर्थन वापस लेने की गति बढ़ाएगा.
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बचत में गिरावट
दुनिया भर में केंद्रीय बैंकों ने कोविड महामारी के जवाब में बॉण्ड ख़रीदारी के जरिए पर्याप्त तरलता की व्यवस्था की. नतीजतन, बॉण्ड से लाभ 2020 में सबसे कम हो गया. भारतीय रिजर्व बैंक ने भी तरलता बढ़ाने और दरों को कम करने के पारंपरिक तथा गैर-पारंपरिक उपाय किए.
इसका नतीजा यह हुआ कि भारत के वित्तीय बाज़ारों में उधार की लागत कम हुई. सरकारी बॉन्डों पर लाभ भी कम हुआ और इसके कारण कॉर्पोरेट बॉन्डों पर लाभ भी घट गया. नीची ब्याज दरों ने व्यवसायियों और उधार लेने वालों पर महामारी के प्रभावों को दूर करने में मदद की लेकिन बचतकर्ताओं को नुकसान हुआ क्योंकि उनकी बचत पर आय ऋणात्मक हो गई. अगले कुछ महीनों में आर्थिक वृद्धि में तेजी आएगी, तब खासकर उन लोगों की खातिर ब्याज दरों को सामान्य बनाना जरूरी हो जाएगा, जो बैंकों में बचत करते हैं.
हाल के दिनों में उधार लेने की लागत में कमी आने से बचतकर्ताओं के लाभ में भी गिरावट आई है. इसके फलस्वरूप घरेलू बचत में भी कमी आई है. घरेलू वित्तीय बचत के बारे में रिजर्व बैंक के अनुमानों के मुताबिक 2020 की अक्तूबर-दिसंबर तिमाही में बैंक डिपॉजिट में गिरावट आई. घरेलू बचत सितंबर में 3.6 लाख रुपये था, जो दिसंबर में घटकर 1.7 लाख करोड़ रु. हो गया. 2020-21 की दिसंबर वाली तिमाही में जीडीपी में घरेलू बचत का अनुपात 3 प्रतिशत हो गया, जबकि इससे पिछली तिमाही में 7.7 प्रतिशत था.
बैंक डिपॉजिट दरों में गिरावट ने परिवारों को शेयर बाज़ार में ज्यादा हिस्सेदारी करने को प्रेरित किया. तकनीकी प्रगति और लॉकडाउन आदि के कारण भी खुदरा निवेशों में वृद्धि हुई. कोविड प्रभावित साल 2020-21 में करीब 1 करोड़ 7 लाख नये डीमैट खाते खोले गए, जो इससे पीछे के तीन सालों के औसत से तीन गुना ज्यादा थे. खुदरा निवेशकों ने आइपीओ में निवेश किया. शेयर बाज़ारों में संशोधन से छोटे निवेशकों की आय पर असर पड़ सकता है. बदलते मूल्यांकन के कारण खुदरा निवेशक शायद लंबे समय तक न टिक पाएं. जीडीपी के हाल के आंकड़े परिवारों द्वारा सोने जैसी मूल्यवान चीजों की ख़रीदारी में भारी उछाल दर्शाते हैं. मूल्यवान चीजों की खरीद वित्त वर्ष’22 की अप्रैल-जून वाली तिमाही में 17,012 करोड़ रु. के बराबर थी, जो जुलाई-सितंबर तिमाही में 1.19 लाख करोड़ रु. के बराबर हो गई. यह वृद्धि दर्शाती है कि घरेलू बचत का कुछ भाग कीमती धातुओं की ख़रीदारी में खर्च हुआ.
मुद्रास्फीति का मामला
महामारी के दौरान महंगाई मुख्यतः सप्लाइ में अड़चनों के कारण बढ़ी थी. हाल के महीनों में यह कच्चे तेल, ऊर्जा, और जींसों की कीमतों में वृद्धि के कारण बढ़ी है. कंपनियों, खासकर एफएमसीजी वाली कंपनियों ने लागत में वृद्धि के कारण अपने सामान की कीमतें बढ़ा दी है. टेलिकॉम की दरें भी बढ़ गई हैं.
मूल मुद्रास्फीति में वृद्धि के कारण रिजर्व बैंक को बचतकर्ताओं की खातिर वास्तविक धनात्मक ब्याज दरें देने के लिए नॉमिनल दरें बढ़नी पड़ेंगी.
उधर लेने वालों के फायदे के लिए दरों को घटाना अल्पकालिक रणनीति हो सकती है, लेकिन वित्त व्यवस्था को अंततः निरंतर घरेलू वित्तीय बचत की जरूरत पड़ती है ताकि वह व्यवसाय जगत को उधार उपलब्ध करा सके. इसके लिए ब्याज दरों को सामान्य बनाने की समय सीमा तय करनी पड़ेगी.
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