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Tuesday, 17 December, 2024
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कोरोना से निपटने में लॉकडाउन की तुलना में टेस्टिंग बढ़ाना आर्थिक रूप से ज्यादा व्यावहारिक: स्टडी

अध्ययन के दौरान टेस्ट से जुड़े आंकड़ों और विभिन्न आर वैल्यू से संबंधित डाटा का इस्तेमाल करके अलग-अलग परिस्थितियों के आधार पर आकलन करने के बाद कुछ सुझाव सामने रखे गए हैं.

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नई दिल्ली: भारतीय शोधकर्ताओं के एक अध्ययन में कहा गया है कि महामारी से निपटने की कोशिश के तहत कोविड-19 टेस्टिंग बढ़ाना फिर से लॉकडाउन लगाने की तुलना में ज्यादा कारगर और आर्थिक रूप से अधिक व्यावहारिक है.

‘ट्रांसमिशन डायनामिक्स ऑफ द कोविड-19 एपेडमिक इन इंडिया एंड मॉडलिंग ऑप्टिमल लॉकडाउन एग्जिट स्ट्रेटजीस’ शीर्षक वाला यह अध्ययन एम्स दिल्ली और भुवनेश्वर और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आईआईएसईआर) के शोधकर्ताओं और कुछ अन्य की तरफ से किया गया है.

इसे 3 दिसंबर को इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इंफेक्शिएस डिसीज में प्रकाशित किया गया है.

अध्ययन में पाया गया कि महामारी के शुरुआती दिनों में मूल रूप से वायरस का रिप्रोडक्शन रेट या संक्रमण दर, जिसे आर वैल्यू कहा जाता है, भारत में 2.08 था.

हालांकि, कोविड-19 को लेकर एक महीने के देशव्यापी लॉकडाउन के बाद 22 अप्रैल को संक्रमण की दर (आरटी) घटकर 1.16 हो गई. इसका मतलब है कि लॉकडाउन महामारी के प्रसार को नियंत्रित करने में कारगर साबित हुआ.

अध्ययन में कहा गया है कि इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि भारत में प्रवासी मजदूरों की एक बड़ी आबादी और व्यापक आर्थिक असमानता है, बिना किसी ठोस योजना के लॉकडाउन लागू करना आर्थिक नुकसान का कारण बन सकता है.

अध्ययन के मुताबिक, ‘भारत के श्रम बल का एक बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मजदूर या प्रवासी श्रमिक के रूप में काम करता है और ऐसे समय में यह वर्ग विशेष तौर पर प्रभावित होता है, यही वजह सामांतर सामाजिक समर्थन के बिना लॉकडाउन को अव्यावहारिक बनाती है.’

साथ ही कहा गया कि कुपोषण, उचित स्वास्थ्य देखभाल का अभाव और गंभीर रोगों के अलावा पोस्ट लॉकडाउन चरण के लिए उपयुक्त रणनीति बनाए बिना ही लॉकडाउन को हटाना भी बाद में बीमारी के फिर जोर पकड़ने की वजह हो सकती है.

ये अध्ययन इसलिए भी खासा अहम है क्योंकि कोविड मामलों में वृद्धि के बाद कई राज्य सरकारों ने लॉकडाउन का सहारा लिया है. गुजरात सरकार ने पिछले महीने अहमदाबाद में 57 घंटे का कर्फ्यू लगाया था क्योंकि शहर में कोविड के मामलों में तेजी देखी गई थी.


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टेस्ट बढ़ाने की लागत लॉकडाउन से कम ही होगी

अध्ययन के दौरान टेस्ट से जुड़े आंकड़ों और विभिन्न आर वैल्यू से संबंधित डाटा का इस्तेमाल करके अलग-अलग परिस्थितियों के आधार पर आकलन करने के बाद कुछ सुझाव सामने रखे गए हैं.

प्रायोगिक आकलन के नतीजे बताते हैं कि यदि सख्त लॉकडाउन के बजाये टेस्टिंग की संख्या बढ़ा दी जाए तो उस पर आने वाली लागत पूरी तरह लॉकडाउन होने के असर की तुलना में कम होगी.

दक्षिण कोरिया और ताइवान का उदाहरण देते हुए अध्ययन में कहा गया है कि उनके सुझाव इन देशों के हालात से मेल खाते हैं जहां सख्ती से टेस्टिंग पर जोर दिए जाने के कारण पूर्ण लॉकडाउन की जरूरत ही महसूस नहीं की गई.

अध्ययन में स्वास्थ्यकर्मियों के ब्लैंकेट टेस्ट की भी वकालत की गई.

इसमें कहा गया है कि भारत के पास वैसे भी स्वास्थ्यकर्मियों की कमी है, ऐसे में उन्हें और उनके मरीजों की सुरक्षा का सबसे प्रभावी तरीका यही है कि उन्हें आइसोलेशन में रखने के बजाये टेस्टिंग प्रक्रिया को कड़ाई से अपनाया जाए.


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‘क्वारेंटाइन पूरा होने पर कांटैक्ट का टेस्ट जरूरी होना चाहिए’

एसिमप्टोमैटिक मामलों का जिक्र करते हुए अध्ययन में कहा गया कि सिमप्टोमैटिक मामलों के टेस्ट पर ज्यादा जोर होने के कारण ज्यादतर एसिमप्टोमैटिक मामलों पर खास ध्यान ही नहीं दिया जाता जो संभवतः रोग फैलने का एक बड़ा कारण हो सकता है.

इसमें कहा गया है, ‘एसिमप्टोमैटिक संक्रमण बढ़ने के साक्ष्यों को देखते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में ऐसी चिंताओं को दूर करने के पुख्ता उपाय करना ही उपयोगी होगा. इसके लिए जरूरी है कि मरीज के संपर्क में आने वाले लोगों का क्वारेंटाइन पूरा होने के बाद टेस्ट कराना अनिवार्य हो, इसमें लक्षण दिखने को आधार न बनाया जाए.

अध्ययन में पाया गया कि टेस्टिंग के जरिये एसिमप्टोमैटिक मामलों का पता लगाने का नतीजा यह होगा कि उनसे फैलने वाले मामलों और एसिमप्टोमैटिक मामलों में कमी आएगी.

अध्ययन में कहा गया है, ‘यदि संक्रमण में एसिमप्टोमैटिक लोगों की बड़ी भूमिका होती है तो यह निष्कर्ष वास्तव में काफी कारगर साबित होगा.’

अध्ययन में पूल टेस्टिंग की वकालत करते हुए कहा गया है, ‘सामुदायिक निगरानी के लिए पूलिंग का उपयोग किया जा सकता है और यह कम लागत और संसाधनों की बचत के साथ मामलों की पहचान करने की क्षमता बढ़ा देती है. जहां तक संभव हो पूलिंग का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. साथ ही इसका आकार और सटीकता बढ़ाने के लिए अनुसंधान पर भी जोर दिया जाना चाहिए.’

अध्ययन में उच्च संक्रमण दर वाले क्षेत्रों और समुदायों के बीच ‘अत्यधिक प्रभावी और बाध्यकारी हस्तक्षेप’ की जरूरत भी बताई गई है.

इसमें कहा गया है, ‘सक्रिय हॉटस्पॉट और उच्च सामुदायिक संक्रमण से प्रभावित क्षेत्रों में काफी प्रभावी और सख्त कदम उठाए जाने चाहिए. यह कम समय में बीमारी की निगरानी प्रणाली को मजबूत करने और उस पर प्रभावी ढंग से काबू पाने के लिए जरूरी है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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