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Wednesday, 20 November, 2024
होमहेल्थडायबिटीज़ मरीज़ों की शुगर ये सोचकर बढ़ सकती है कि वो कितना मीठा ले रहे हैं, हॉर्वर्ड स्टडी ने कहा

डायबिटीज़ मरीज़ों की शुगर ये सोचकर बढ़ सकती है कि वो कितना मीठा ले रहे हैं, हॉर्वर्ड स्टडी ने कहा

स्टडी में पता चला है, कि टाइप 2 डायबिटीज़ के मरीज़ों में ब्लड शुगर की मात्रा, मीठे के वास्तविक सेवन से ज़्यादा, उनकी इस सोच से प्रभावित हो सकती है, कि वो कितना मीठा ले रहे हैं.

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नई दिल्ली: हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी की एक स्टडी से पता चला है, कि टाइप 2 डायबिटीज़ के मरीज़ों में ब्लड शुगर की मात्रा, मीठे के वास्तविक सेवन से ज़्यादा, उनकी इस सोच से प्रभावित हो सकती है, कि वो कितना मीठा ले रहे हैं.

रिसर्चर्स का कहना है कि इसके नतीजे में, डायबिटीज़ को संभालने में दवाओं, ख़ुराक, और व्यायाम के साथ साथ, मनोवैज्ञानिक कार्यक्रम भी महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं.

चेनमो पार्क, फ्रांसेस्को पंजीनी और एलन लैंगर द्वारी की गई, 24 सितंबर को प्रकाशित इस स्टडी में कहा गया: ‘परिणामों से पुरानी बीमारी के मनोजैविक मॉडल का सबूत मिलता है, जिससे संकेत मिलता है कि डायबिटीज़ के प्रबंधन में, टाइप 2 डायबिटीज़ को सिर्फ ख़ुराक, कसरत, और दवाओं से कंट्रोल करने के, मौजूदा कार्यक्रमों से आगे बढ़कर, मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप कार्यक्रम भी अहम साबित हो सकते हैं’.


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स्टडी कैसे की गई

ये स्टडी 30 प्रतिभागियों पर एक हफ्ते तक की गई- जिसमें प्रतिभागियों को तीन दिन के अंतराल से, दो बार लैबोरेटरी आना पड़ता था.

प्रतिभागियों को दो में से एक पेय पदार्थ पीने के लिए दिया जाता था. दोनों में वास्तव में बराबर 62 ग्राम शुगर थी, लेकिन उनके लेबल्स पर अलग अलग दिखाई गई थी- एक पर था ज़ीरो ग्राम, जबकि दूसरी पर लिखा था 124 ग्राम्स.

प्रतिभागियों का शुरूआती ग्लुकोज़ प्वॉइंट भी दर्ज किया गया, जिससे सुनिश्चित हो जाए कि वो बराबर था.

नतीज़ों से पता चला कि ब्लड ग्लूकोज़ प्रोफाइल्स, उसके हिसाब से ज़्यादा थे, जो प्रतिभागियों ने शुगर की मात्रा के लेबल से समझा था- प्रतिभागियों में शुगर कम थी जब उन्होंने वो पेय लिया, जिस पर ज़ीरो शुगर का लेवल था, और उन प्रतिभागियों में ज़्यादा थी, जिन्होंने 124 ग्राम लेबल वाला पेय लिया था.

स्टडी इस नतीजे पर पहुंची कि, ‘ब्लड शुगर वैल्यू में मरीज़ों की अपेक्षाओं (शुगर की कम या अधिक मात्रा) के हिसाब से बदलाव हुए, न कि उस शुगर के हिसाब से, जिसका उन्होंने वास्तव में सेवन किया’.

समझने का पारंपरिक तरीक़ा

स्टडी में कहा गया है कि बायोमेडिकल मॉडल में, बुनियादी तौर पर माना जाता है, कि शुगर लेने के बाद समय बीतने के साथ, ब्लड ग्लूकोज़ लेवल ऊपर नीचे होते हैं, लेकिन इन निष्कर्षों से पता चलता है, कि ‘टाइप 2 डायबिटीज़ मरीज़ों के ब्लड शुगर के स्तर में बदलाव, वास्तविक समय बीतने से नहीं, बल्कि व्यक्तिपरक सोच से निर्धारित होते हैं’.

स्टडी में ब्लड शुगर लेवल में उतार-चढ़ाव के पीछे के, सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत फैक्टर को लक्ष्य बनाया गया है, और इस बात को स्थापित करने की कोशिश की गई है, कि टाइप 2 डायबिटीज़ के मरीज़ों के ब्लड शुगर लेवल पर होने वाला असर, मनोविज्ञान से तय होता है.

इसमें कहा गया है कि निष्कर्षों से पता चलता है, कि डायबिटीज़ मरीज़ों में भोजन के सेवन से हुई, मेटाबॉलिक और शारीरिक प्रतिक्रिया समझने का पारंपरिक तरीक़ा, जो बायोमेडिकल फ्रेमवर्क से व्यक्त होता है, वो ‘अपर्याप्त’ है. स्टडी में डायबिटीज़ प्रबंधन के लिए, भविष्य में नए शोध की भी बात की गई है, और उन प्रभावों पर फोकस किया गया है, जो मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया डायबिटीज़, ह्रदय रोग, और क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ जैसी बीमारियों पर डालती है.

स्टडी में कहा गया है, ‘ये नतीजे मुख्यधारा की इस मान्यता को चुनौती देते हैं, कि ग्लूकोज़ को सामान्य रेंज में वापस लाने के लिए, प्राकृतिक जैविक और शारीरिक मेटाबॉलिक होमियोस्टेसिस प्रक्रियाओं को, पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन की ज़रूरत होती है. ये भी उन दूसरे कार्यों की तरह ही हैं, जिनमें इस बात के कोई सबूत नहीं मिले, कि इंसुलिन क्रिया ग्लूकोज़ के स्थिर लेवल को निर्धारित करती है’.

सीमाएं

लेकिन, स्टडी में माना गया है कि इसकी कुछ सीमाएं हैं. इसमें ये नहीं कहा गया, कि क्या इन निष्कर्षों का असर लंबे समय तक रहता है, और ये भी कहा गया है कि ऐसा कोई डेटा उपलब्ध नहीं है, जिससे कुल आबादी के बारे में व्यापक अनुमान लगाने के लिए, निष्कर्षों की आपस में तुलना की जा सके.

दिप्रिंट ने जिन एक्सपर्ट्स से बात की, उनका कहना था कि ये स्टडी दिलचस्प तो है, लेकिन इसे निर्णायक नहीं माना जा सकता.

मैक्स हेल्थकेयर दिल्ली के एंडोक्रिनॉलजी विभाग के अध्यक्ष और प्रमुख, डॉ अंब्रीश मित्तल ने कहा, ‘ये एक नियंत्रित वातावरण में की गई छोटी सी स्टडी है. ये देखना दिलचस्प है कि अवधारणा के आधार पर ग्लूकोज़ लेवल किस तरह बदलता है’.

मित्तल ने आगे कहा, ‘मनोवैज्ञानिक फैक्टर्स की अपनी एक भूमिका होती है- मसलन, डिप्रेशन के मरीज़ों में ब्लड ग्लूकोज़ लेवल को संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है. लेकिन इसकी एक वजह ये भी होती है, कि डिप्रेशन वाले लोग गाइडलाइन्स का ठीक से पालन नहीं करते. इसलिए, ये स्टडी ब्लड ग्लूकोज़ लेवल्स को संभालने में, जीव विज्ञान और मनोविज्ञान की भूमिका पर नए शोध के संकेत देती है, लेकिन इसे निर्णायक नहीं माना जा सकता’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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