कसौली (हिमाचल प्रदेश): पहाडियों में स्थित औपनिवेशिक दौर की एक पुरानी लैबोरेट्री, इस साल लॉन्च किए जाने के बाद से भारत के कोविड टीकाकरण अभियान के केंद्र में रही है. हिमाचल प्रदेश के कसौली में स्थित सेंट्रल ड्रग्स लैबोरेट्री, भारत की एकमात्र लैब है जिसे भारत सरकार ने कोविड समेत सभी वैक्सीन्स की सुरक्षा और असर की जांच के लिए अधिकृत किया है, जो भारतीय बाज़ार में उपलब्ध हैं.
ये अकेली ऐसी लैब भी है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने, ऐसी तमाम वैक्सीन्स (कोविड और गैर-कोविड) की जांच के लिए अधिकृत किया है, जो भारत से दुनिया के 170 देशों को निर्यात होती हैं.
दिप्रिंट की टीम ने 15-16 जून को जब सीडीएल परिसर का दौरा किया, तो लैब के अलग-अलग कमरों में कोविशील्ड की 3.8 करोड़ और कोवैक्सीन की 70 लाख खुराकों की जांच की जा रही थी. साथ ही साथ लैबोरेट्री में दूसरी वैक्सीन्स की नियमित जांच भी चल रही थी. जैसे पोलियो, बैसिलस कैलमेट-गुएरिन (बीसीजी, जो ट्यूबरकुलोसिस के लिए लगता है) और रोटावायरस.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार, भारत में 20 जून तक कोविड-19 वैक्सीन्स के 28 करोड़ डोज़ लगाए जा चुके थे.
जनवरी के बाद से जब कोविड वैक्सीन्स भारत में लॉन्च हुईं- 14 जून तक, सीडीएल ने वैक्सीन की 37 करोड़ से अधिक खुराकों को मंज़ूरी दी है. इनमें कोविशील्ड के 32 करोड़ डोज़, कोवैक्सीन के 3.94 करोड़ और स्पूतनिक के 1.5 लाख डोज़ शामिल हैं.
विदेशों में निर्मित वैक्सीन्स के लिए जिन्हें स्थापित ड्रग नियामकों जैसे अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए), यूके की मेडिसिन्स एंड हेल्थकेयर प्रोडक्ट्स रेगुलेटरी एजेंसी (एमएचआरए) या डब्ल्यूएचओ से मंज़ूरी मिल चुकी है, सीडीएल में ज़रूरी कागजात की समीक्षा करने के बाद उन्हें बाज़ार में उतारने की स्वीकृति दी जाती है.
औसतन, लैबोरेट्री हर साल (गैर-महामारी समय में) वैक्सीन्स के करीब 7,000 बैच जारी करती है और इसमें एक महीने में करीब 250 बैच (एक बैच में खुराकों की संख्या अलग-अलग हो सकती है) टेस्ट करने की क्षमता है.
आगामी दो महीनों में देश में टीकाकरण अभियान में तेजी लाई जानी है, इसलिए सीडीएल भी अपने काम का बोझ बढ़ने की अपेक्षा कर रही है, हालांकि लैब अधिकारियों ने ये नहीं बताया कि हाल के महीनों में सेंटर में हो रही टेस्टिंग में कितने प्रतिशत का इज़ाफा हुआ है.
लेकिन जो चीज उनके लिए और अधिक चुनौती पैदा करती है, वो ये कि लैब को कोविड प्रोटोकॉल का पालन करना पड़ता है, जिसमें परिसर में किसी भी दिन केवल 50 प्रतिशत स्टाफ को काम करने की अनुमति है.
सीडीएल के अधिकारी ने कहा, ‘हमसे कहा गया है कि ये महीना हम सब के लिए महत्वपूर्ण रहने वाला है क्योंकि टेस्टिंग के लिए वैक्सीन्स की ज़्यादा खेप आएंगी’. अधिकारी ने ये भी कहा कि लैब इस पर भी विचार कर रही है कि बढ़े हुए काम को देखते हुए ऑफिस में 50 प्रतिशत हाज़िरी के नियम का पालन कैसे किया जाएगा.
कोविशील्ड की 50 लाख खुराकों को मंज़ूरी देने का काम जारी रखते हुए अधिकारी ने कहा, ‘हम योजना बना रहे हैं जिसमें मंत्रालय (केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय कर्मचारी, जो सीडीएल और सरकार के बीच समन्वय करते हैं) और प्रशासनिक स्टाफ घर से काम करेंगे, जबकि वैज्ञानिक और तकनीकी स्टाफ अपनी पूरी संख्या में ऑफिस से काम करेंगे’.
काम के बोझ को देखते हुए नरेंद्र मोदी सरकार कुछ अन्य लैबोरेट्रीज़ की तलाश में है, जो बाज़ार में लाए जाने से पहले कोविड वैक्सीन्स की जांच कर सकें. सरकार इसके लिए पुणे स्थित नेशनल सेंटर फॉर सेल साइंस (एनसीसीएस) का मूल्यांकन कर रही है. लेकिन फिलहाल भारत में सीडीएल एक मात्र लैब है, जो ऐसी जांच करने के लिए अधिकृत है.
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‘सीडीएल की मंजूरी के बिना कोई वैक्सीन बाज़ार में नहीं आएगी’
वैक्सीन्स को जल्दी बाज़ार में लाने के लिए 1 जून को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने फैसला किया कि विदेशों में निर्मित ऐसी वैक्सीन्स को सीडीएल में बैच टेस्टिंग से छूट होगी जिन्हें अमेरिका के एफडीए, यूके के एफडीए या डब्ल्यूएचओ से मंज़ूरी मिल चुकी है.
लेकिन छूट के बावजूद इन वैक्सीन्स के ज़रूरी दस्तावेज़ों, जैसे लॉट प्रोटोकॉल का सारांश, जिसमें निर्माण प्रक्रियाओं, किए गए परीक्षणों और क्वॉलिटी कंट्रोल के लिए अपनाई गईं प्रक्रियाओं का ब्योरा होता है, की पहले सीडीएल द्वारा समीक्षा की जाती है, उसके बाद ही वैक्सीन भारत के बाज़ार में लाई जाती है.
ऊपर हवाला दिए गए अधिकारी ने कहा, ‘सीडीएल से स्वीकृति लेने से पहले कोई वैक्सीन भारत के बाज़ार में नहीं लाई जा सकती. टेस्टिंग हो या नहीं, स्वीकृति सीडीएल के हाथ में ही होती है’.
उन्होंने समझाया, ‘स्पूतनिक V को अभी किसी शीर्ष नियामक ने स्वीकृति नहीं दी है, न ही ये डब्ल्यूएचओ की आपात इस्तेमाल की दवाओं की सूची में शामिल है. इसलिए, भारतीय बाज़ार में लाए जाने से पहले सीडीएल इसके हर बैच की जांच करेगी. अगर फाइज़र वैक्सीन को भारत में बिक्री की अनुमति मिलती है, तो चूंकि उसे अमेरिका के एफडीए से मंजूरी मिल चुकी है, इसलिए हम केवल उसके कागजात की समीक्षा करेंगे और उसे बाज़ार में उतारने की मंजूरी दे देंगे’.
लैब ने हाल ही में कोविड वैक्सीन्स की मंजूरी प्रक्रिया को तेज किया है जिसमें ‘समानांतर’ टेस्टिंग का सिस्टम अपनाया गया है. इसका कारण ये था कि उस पर वैक्सीन्स को जल्दी से बाज़ार में लाने का बेहद दबाव था.
अधिकारी ने कहा, ‘समानांतर जांच प्रणाली के अंदर, निर्माण प्रक्रिया से बाहर आते ही निर्माता अपनी कुछ खेप हमारे पास भेज देता है. जहां एक और उनकी कुछ खेपों की जांच, उनके अपने क्वॉलिटी कंट्रोल कक्ष में चल रही होती है, अन्य खेपों की जांच यहां सीडीएल में हो जाती है. अंत में हम दोनों लैब्स की टेस्ट रिपोर्ट्स को मिलाते हैं (बाज़ार में उसकी बिक्री की मंजूरी से पहले). इससे करीब 14-15 दिन का समय बच जाता है (इस सिस्टम में हर बैच के हर डोज़ की सीडीएल में जांच नहीं की जाती).
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सीडीएल और जांच प्रक्रिया की स्थापना
सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीआरआई) कसौली के परिसर में स्थित सीडीएल कभी उसी का हिस्सा हुआ करती थी.
इसकी वेबसाइट के अनुसार, 3 मई 1905 को सीआरआई की मूल रूप से इस उद्देश्य के साथ स्थापना की गई थी कि उसका काम चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में अनुसंधान, वैक्सीन्स और एंटीसेरा का निर्माण और मानव संसाधन का विकास करना और सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए एक राष्ट्रीय रेफरल केंद्र के तौर पर काम करना था.
संस्थान का दावा है कि वो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वैक्सीन उत्पादन में अपने योगदान के लिए जाना जाता है, जो सैनिकों के टीकाकरण में इस्तेमाल होती थीं.
जहां सीआरआई वैक्सीन बनाती थी, वहीं सीडीएल का काम इन टीकों की जांच करके, इन्हें बाज़ार में लाने की मंजूरी देना था. हितों के संभावित टकराव को देखते हुए 2012 में सीडीएल को सीआरआई से अलग कर दिया गया और इसे स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत एक स्वतंत्र संगठन बना दिया गया.
सीडीएल वैज्ञानिकों के अनुसार, यहां पर वैक्सीन्स की बैच-टेस्टिंग में कई तरह की जांच होती हैं जिसमें बुनियादी जैव रसायनिक परीक्षण के अलावा, डोज़ की जीवाणुरहिता, विषाक्तता और असर को चेक किया जाता है.
ऊपर हवाला दिए गए अधिकारी ने कहा, ‘कोविड-19 वैक्सीन्स के असर की जांच करने में दो से तीन दिन लगते हैं. इस टेस्ट में वैक्सीन के असर की जांच करके, उसे उन दावों से मिलाया जाता है, जो निर्माता की ओर से लघु-पुस्तिका या उत्पाद के साथ रखी किसी और चीज़ पर छपे होते हैं’.
वैक्सीन्स के असर की जांच में उसकी क्षमता के मानदंडों की जांच की जाती है.
डोज़ के विषाक्तता को जांचने के लिए जानवरों पर उनकी सुरक्षा जांच की जाती है, जिसमें करीब सात दिन लग जाते हैं.
जीवाणुरहिता जांच में, जिसमें वैक्सीन के अंदर बैक्टीरिया और फंगी जैसे सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी का पता लगाया जाता है, उसमें करीब दो सप्ताह लगते हैं. टेस्ट से सुनिश्चित किया जाता है कि वैक्सीन ‘पूरी तरह सही’ है.
बाकी टेस्ट वैक्सीन की खेप के ‘प्रोटोकॉल के सारांश’ के हिसाब से किए जाते हैं, जिसमें उल्लेख होता है कि वैक्सीन उत्पाद का निर्माण किस प्रक्रिया से हो रहा है और क्या परीक्षण किए जा रहे हैं.
अधिकारी ने कहा, ‘हम ये सब जांच उनके निष्कर्षों को सत्यापित करने के लिए करते हैं’.
सीडीएल के अधिकारी के अनुसार, लैब से वैक्सीन निर्माण स्थलों की दूरी से, जो फिलहाल पुणे और हैदराबाद में हैं (क्रमश: कोविशील्ड और कोवैक्सीन के लिए) मंजूरी की प्रक्रिया में कोई देरी नहीं होती.
उन्होंने कहा, ‘सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक (क्रमश: कोविशील्ड और कोवैक्सीन के निर्माता) कई दशकों से सीडीएल से डील करते आ रहे हैं. उनके पास तमाम लॉजिस्टिक्स का इंतज़ाम है और दूरी कोई मसला नहीं है’.
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