नई दिल्ली: मेडिकल डायग्नोस्टिक्स में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने बड़े कमाल किए हैं. कुछ अध्ययनों में AI स्ट्रोक मरीजों के ब्रेन स्कैन समझने में इंसानों से बेहतर साबित हुआ है. कुछ में यह ऐसे एपिलेप्सी के घाव ढूंढ लेता है जिन्हें रेडियोलॉजिस्ट भी नहीं पकड़ पाते.
इस उभरते क्षेत्र में पुणे स्थित रेडियोलॉजी-AI स्टार्टअप डीपटेक की प्रगति उम्मीद जगाती है. इसकी मुख्य चेस्ट एक्स-रे AI तकनीक काफी लोकप्रिय हो रही है. यह तकनीक चेस्ट एक्स-रे का विश्लेषण कर टीबी और फेफड़ों की 20 से ज्यादा बीमारियों का पता लगाती है. सिर्फ टीबी ही नहीं. कंपनी की वेबसाइट के अनुसार यह कई मामलों में कुछ ही मिनटों में नोड्यूल, फ्रैक्चर और पेसमेकर जैसे हार्डवेयर भी पहचान सकता है.
भारत में, जहां रेडियोलॉजी संसाधन कम हैं और समय पर जांच में दिक्कत आती है, डीपटेक स्वास्थ्य सेवा में एक महत्वपूर्ण कमी को पूरा कर सकता है.
दप्रिंट से बातचीत में डीपटेक के सह-संस्थापक अजीत पाटिल कहते हैं कि AI “भारत जैसे देशों में एक अवसर” है, जहां अनुमान है कि हजारों मरीजों पर सिर्फ एक रेडियोलॉजिस्ट उपलब्ध है.
उनका कहना है, “AI स्कैन को पढ़ने और रिपोर्ट बनाने की प्रक्रिया को ऑटोमेट कर सकता है, और परिणामों की गुणवत्ता और उत्पादकता बढ़ा सकता है. यही क्षेत्र है जिसमें हम काम कर रहे हैं, और यह एक बड़ा वैश्विक मार्केट अवसर है.”
वे कहते हैं कि AI शुरुआती चरण में ही टीबी पकड़ लेता है, जिससे मरीजों की रिकवरी तेजी से होती है. पाटिल के अनुसार, यह मरीजों के ‘क्वालिटी-एडजस्टेड लाइफ’ में 60 प्रतिशत तक सुधार लाता है.
डीपटेक तकनीकी मजबूती और बड़े पैमाने पर लागू होने वाली पब्लिक-हेल्थ जरूरतों के बीच संतुलन बनाता दिखता है. अप्रैल 2025 में इसकी चेस्ट एक्स-रे AI तकनीक को यूरोपीय यूनियन मेडिकल डिवाइस रेगुलेशन से प्रमाणित किया गया है.
इसके अलावा, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इसे टीबी जांच के लिए सुझाए गए कंप्यूटर-एडेड डिटेक्शन टूल्स की सूची में शामिल किया है. यह पहचान खासतौर पर कम संसाधन वाले क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है.
पाटिल के अनुसार, भारत और अफ्रीका में AI डायग्नोस्टिक्स की बहुत गुंजाइश है. इसका कारण यह है कि यहां AI आधारित स्वास्थ्य ढांचा अभी विकसित हो रहा है और स्वास्थ्य संबंधी कई लक्ष्य अधूरे हैं.
WHO ने 2030 तक टीबी खत्म करने का लक्ष्य रखा है. पाटिल कहते हैं, “ऐसा करने के लिए भारत, अफ्रीका और एशिया-प्रशांत जैसे देशों में लगभग 50 प्रतिशत आबादी के चेस्ट एक्स-रे करने पड़ेंगे. इतने बड़े पैमाने को देखते हुए WHO ने चेस्ट एक्स-रे में पूरी तरह स्वायत्त मोड में AI के उपयोग की अनुमति दी है.”
वे बताते हैं कि डीपटेक की तकनीक भारत के 500 अस्पतालों और इमेजिंग सेंटर्स में उपलब्ध है. इसके अलावा 400 मोबाइल वैन बिना इंटरनेट वाले दूर-दराज कस्बों में चेस्ट एक्स-रे करती हैं. यह तकनीक तेज diagnosis करती है, मरीजों का इंतजार कम करती है और कई रिपोर्टों में एकरूपता लाती है.
साथ ही, डीपटेक की AI आधारित एक्स-रे तकनीक लंबी अवधि में खर्च बचाती है. पाटिल बताते हैं कि जिन जिलों में AI का उपयोग हो रहा है, वहां टीबी की पहचान दोगुनी हो गई है. वे कहते हैं कि AI तकनीक से शुरुआती खर्च बढ़ता है. लेकिन टीबी पहचान की बढ़ी हुई क्षमता को देखते हुए डीपटेक में निवेश भविष्य में निवेश जैसा है.
2017 में शुरू हुआ डीपटेक आज 300 से अधिक कर्मचारियों वाला संगठन है. इसमें एशिया-प्रशांत, भारत, मध्य-पूर्व और अमेरिका में 170 रेडियोलॉजिस्ट शामिल हैं. कंपनी का NTT DATA जापान के साथ सामरिक इक्विटी गठजोड़ है और इसे टाटा कैपिटल हेल्थकेयर फंड II से निवेश मिला है, जिससे इसका व्यवसाय टिकाऊ बनता है.
पाटिल बताते हैं कि डीपटेक दो मुख्य AI प्लेटफॉर्म पर काम करता है. पहला है ऑगमेंटो, जो एक क्लाउड-आधारित वर्कफ्लो सिस्टम है. यह हर एक्स-रे की पहले से जांच करता है, जरूरी मामलों को अलग चिन्हित करता है और स्ट्रक्चर्ड ड्राफ्ट रिपोर्ट तैयार करता है. इन रिपोर्टों की समीक्षा और अंतिम रूप रेडियोलॉजिस्ट देते हैं.
दूसरा प्लेटफॉर्म है जेंकी, जो बड़े पैमाने पर स्क्रीनिंग के लिए है. यह बहुत अधिक संख्या में इमेज जल्दी प्रोसेस करता है और पब्लिक-हेल्थ अभियानों में उपयोग होता है. पाटिल के अनुसार, दूर-दराज और भीड़ वाले क्षेत्रों में बिना इंटरनेट वाली मोबाइल वैन जेंकी का उपयोग करती हैं.
चुनौतियां क्या हैं? डॉक्टरों के अनुसार, AI टूल्स तेज और बड़े स्तर पर जांच की सुविधा देते हैं. लेकिन उनकी प्रभावशीलता सही उपयोग, प्रशिक्षण और जांच के बाद की प्रक्रियाओं पर निर्भर करती है. AI को पूरी तरह मानव रेडियोलॉजिस्ट की जगह नहीं लेनी चाहिए, खासकर जटिल मामलों में. इसे एक मददगार उपकरण की तरह इस्तेमाल करना बेहतर है.
दूसरी चुनौती है बुनियादी ढांचा. ग्रामीण और कम संसाधन वाले क्षेत्रों में एक्स-रे मशीनों की कमी अभी भी एक बड़ी बाधा है. तीसरी बात यह कि AI तभी मदद कर सकता है जब ये अन्य समस्याएं भी साथ-साथ सुलझाई जाएं.
भारत में AI से जुड़े नियामक ढांचे विकसित हो रहे हैं. पाटिल कहते हैं कि मजबूत ढांचे की जरूरत है. “क्योंकि AI बड़े और समृद्ध डेटा पर निर्भर करता है, इसलिए जरूरत है कि राष्ट्रीय स्तर पर डेटा को एक जगह लाया जाए और इसे स्टार्टअप्स के लिए किफायती तरीके से उपलब्ध कराया जाए. कई देश ऐसा कर रहे हैं, भारत को भी करना चाहिए.”
पाटिल यह भी कहते हैं कि नई तकनीकों और प्रयोगों को शुरुआती चरण में अपनाने के लिए नियम बनने चाहिए. उनका कहना है कि वैश्विक स्तर पर सफलता के लिए भारतीय स्टार्टअप्स को फंड और प्रमोशन के मामले में केंद्र सरकार का सहयोग जरूरी है.
वे कहते हैं, “दुनिया भर में हमें स्टार्टअप्स के तौर पर दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं. जबकि कई विदेशी कंपनियां स्थानीय दूतावासों के माध्यम से बाज़ार में प्रवेश करती हैं. वहां सरकार, वेंचर फर्मों और स्थानीय निकायों के बीच टीमवर्क है. भारत को भी ऐसा ही कुछ करना चाहिए.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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