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Saturday, 25 January, 2025
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मिडिल क्लास मोदी का आदी, धीमा विकास, रुके हुए सुधार और टैक्स का भार कोई मायने नहीं रखते

भारतीय मध्यम वर्ग इस बात से नाराज है कि राजनीतिक दल उनके टैक्स का पैसा लेकर उसे गरीब वर्गों में फैलाकर उनके वोट खरीद रहे हैं.

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भारत के आर्थिक इंजन की रफ्तार धीमी पड़ रही है और लड़खड़ा रही है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान विशाल मध्यवर्ग को उठाना पड़ रहा है. बीजेपी को इसकी चिंता क्यों नहीं हो रही है और यह पार्टी इस वर्ग का समर्थन अपने लिए अभी भी तय क्यों मान रही है इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे, पहले इस बड़े संकट की बात करें.

यह केवल एक बुरी तिमाही का नतीजा नहीं है. आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले केंद्र सरकार के संगठन भारतीय रिजर्व बैंक समेत दुनियाभर के ऐसे संगठन भी भारत की इस साल की आर्थिक वृद्धि में कमी का अनुमान लगाते हुए इसे 6.5 फीसदी के आसपास रहने का अंदाजा लगा रहे हैं.

फिलहाल इस स्थिति के पलटने के कम ही संकेत मिल रहे हैं. अर्थशास्त्र मेरे लिए एक कठिन विषय है इसलिए बेहतर है कि मैं अपनी परिचित पिच यानी राजनीति और जनमत पर ही बल्ला घुमाऊं. सबसे पहला लक्षण तो यह है कि ‘भारत का समय आ गया है’ जैसी सर्वविजयी बुलंद उम्मीद अब ढीली पड़ रही है. जिसे हम ‘हवा’ कहते हैं वह बदल गई है. करोड़पति लोग विदेश में जमीन-जायदाद खरीद रहे हैं या इसके साथ मिलने वाली दीर्घकालिक वीसा हासिल कर रहे हैं.

भारत के करोड़पति कितनी संख्या में विदेश में जाकर बस रहे हैं इसके पर्याप्त आंकड़े सबके लिए उपलब्ध हैं. ‘हेनले प्राइवेट वेल्थ माइग्रेशन रिपोर्ट’ के अनुसार, पिछले दो साल से ऐसे लोगों की संख्या औसतन 5,000 रही है. इन अमीरों को आप कभी शिकायत करते नहीं सुनेंगे. ये इतने स्मार्ट हैं कि इस तरह के ‘पंगे’ नहीं लेते. ये अपने पैरों की दिशा से अपना मत जाहिर करते हैं.

तथ्य यह है कि इनके पास ‘सरप्लस’ है, और ये भारत में निवेश करने की जगह विदेश का रुख कर रहे हैं. यह बिलकुल वैध है इसलिए इनमें से कई अब देश छोड़ रहे हैं क्योंकि वहां सुरक्षा है और संख्या के लिहाज से गुमनाम रहने की सुविधा है. और, इनसे भी जो ज्यादा अमीर हैं वे क्या कर रहे हैं?

आइए, हम भाग रहे करोड़पतियों से छलांग लगाकर अरबपतियों और खासकर डॉलर अरबपतियों की बात करें. ये सारे नहीं बल्कि इनमें से अधिकतर तो उद्यमी हैं. फिर भी इनकी संख्या बहुत बड़ी नहीं है.

‘फोर्ब्स’ के ताजा आंकड़ों के अनुसार इनकी संख्या केवल 200 है. ये करोड़पति अगर चुपचाप हैं और देश से जा रहे हैं, तो ये अरबपति इनके उलट हैं. ये तेज आवाज में बोल रहे हैं, सरकार की तारीफ कर रहे हैं और उसके इस तरह के मंत्रों का जाप कर रहे हैं कि हमारी ‘सबसे बड़ी पांचवीं अर्थव्यवस्था जल्दी ही सबसे बड़ी तीसरी अर्थव्यवस्था बनने जा रही है’, कि यह ‘दुनिया में सबसे तेजी से वृद्धि दर्ज करा रही विशाल अर्थव्यवस्था है’. ये अरबपति देश में टिके हुए हैं. बस इतना है कि ये देश में निवेश नहीं कर रहे हैं, इसलिए नहीं कि इन्हें देश से प्यार नहीं है. बात सिर्फ इतनी सी है कि स्मार्ट उद्यमियों को मांग बढ़ती नहीं दिख रही है तो वे कहां निवेश करें, और क्यों करें? यह उनकी ज़िम्मेदारी नहीं है कि वे अपने शेयरधारकों से मिले ‘रिजर्व’ को ऐसी परिसंपत्तियों पर खर्च करें जिन्हें कोई इस्तेमाल न करे और जिनमें बने सामान को कोई न खरीदे. यह हमें समस्या की जड़ तक पहुंचाता है कि मांग क्यों धड़ाम से गिर गई है?

आखिरकार, ज़्यादातर मांग देश की सबसे बड़ी उपभोक्ता आबादी यानी मध्यवर्ग से आती है. इस वर्ग की परिभाषा भी जटिल है, लेकिन हम यह मानकर चलें कि मध्यवर्ग का व्यक्ति वह है जिसके पास अपनी जीविका के तहत अपने खानपान, बच्चों की शिक्षा, मकान, स्वास्थ्य और जरूरी आवाजाही पर खर्च करने के बाद कुछ पैसा बचता है जिसे वह किसी चीज पर खर्च कर सके.

सालाना 12 लाख से लेकर 5 करोड़ तक कमाने वाला यह विशाल वर्ग आज हाथ बांधकर बैठा है और परेशान है. वह इतना अमीर नहीं है कि वैध रूप से विदेश जा बसे, वह भी अपनी संपत्ति के साथ, जिस पर भारी टैक्स देना पड़ता है और जिसके निवेशों का मूल्य भी पिछले एक वर्ष में गिर गया है. मजे की बात यह है कि इनमें से जो ज्यादा अमीर हैं यानी 2 करोड़ से ज्यादा कमा रहे हैं, वे अपनी आय पर प्रतिशत के लिहाज से टॉप कोरपोरेटों या अरबपतियों के मुक़ाबले करीब दोगुना टैक्स भर रहे हैं.

भारत की गाथा बनाने वाले ये लोग वे हैं जो महत्वाकांक्षी नव-धनाढ्य हैं और जिन्होंने अपने बूते अपनी तकदीर चमकाई है, जो आम तौर पर पहली पीढ़ी वाले हैं. आज वे मानो एक साथ कई गोले दागने वाले रॉकेट लॉन्चर के हमले झेल रहे हैं. फ्युल की कीमत चढ़ी हुई है, इनकम टैक्स कमर तोड़ रहा है, और इन्हें आप यह शिकायत करते सुन सकते हैं कि वे जो टैक्स भर रहे हैं उसका सरकार उचित लाभ नहीं दे रही है. म्यूचुअल फंड, इक्विटी, जायदाद पर कैपिटल गेन और बॉन्डों पर टैक्स में मिलने वाली छूट हवा हो रही है. उन्हें उन चीजों की बढ़ती लागत का झटका झेलना पड़ रहा है जिनकी गिनती महंगाई की सुर्खियां बनाने में नहीं की जाती. उदाहरण के लिए, निजी संस्थानों में अपने बच्चों को पढ़ाने की बढ़ती लागत को ही ले लीजिए. ‘दिप्रिंट’ की फ़रिहा इफ़्तीखार की दो रिपोर्टें आपको अंदाजा दे देंगी कि यह शिक्षा कितनी महंगी हो गई है.

सो, ये लोग परेशान हैं, कुछ खरीदारी नहीं कर रहे, उसे टाल रहे हैं; और मांग के लुप्त होने के लिए मुख्यतः इन्हें जिम्मेदार कहा जा सकता है.

पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत के लोग साल में करीब 2.5 करोड़ कारें खरीद रहे हैं, जो कि कई देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा है. सच है यह. लेकिन जब यह जांच करेंगे कि कार कौन खरीद रहा है तब आपको पता चल जाएगा कि मध्यवर्ग कितना थका हुआ है. अनबिकी कम कीमती छोटी कारों की लाइन लग रही है, जबकि बड़ी महंगी कारों के लिए वेटिंग लिस्ट लग रही है. अपने इर्दगिर्द जिस तरह की नयी सियासत चल रही है उससे मध्यवर्ग बुरी तरह नाराज है.

यह मध्यवर्ग टैक्स के रूप में जो पैसे भर रहा है उसे गरीबों के वोट खरीदने पर राजनीतिक दल, जिनमें अब भाजपा सबसे आगे हो गई है, जिस तरह लुटा रहे हैं उससे क्रुद्ध है. पिछले 11 वर्षों में भाजपा की सरकारें करीब 20 ट्रिलियन रुपये बांट चुकी हैं, जिनमें मुफ्त अनाजों की लागत शामिल है. और रेवड़ियों वाली यह मालगाड़ी तो अब ‘डबल इंजिन’ के बूते दौड़ रही है.

इसकी वजह यह है कि राज्यों में पूरी चुनावी राजनीति शुद्ध लेन-देन वाली हो गई है. आपके वोट की हम इतनी कीमत देंगे! यह एक तरह से रॉबिन हुड मार्का सियासत है. मूल रॉबिन हुड तो अमीरों को लूट कर गरीबों में बांटता था, मोदी की सरकारें मध्यवर्ग को निचोड़कर गरीबों में बांटती रही हैं. और जो सुपर अमीर हैं वे अब तक के सबसे कम टैक्स देने के मजे ले रहे हैं.

यह व्यापक मध्यवर्ग सबसे बड़ा तबका है और यह मोदी-भाजपा की राजनीति का सबसे वफादार एवं मुखर समर्थक है. 2014 के बाद से सभी चुनावों में भाजपा दक्षिण भारत को, जहां वह मूलतः कमजोर रही है, छोड़ बाकी सभी बड़े और मध्य स्तरीय शहरों को जीतती रही है.

हरियाणा जैसे राज्य में भाजपा जीरो से हीरो बन गई है तो इसकी कुछ वजह यह है कि वहां शहरीकरण तेजी से हुआ है. और भाजपा ने वहां क्या किया? प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत के तीसरे सबसे अमीर राज्य की 75 फीसदी आबादी को गरीबी की रेखा के नीचे धकेल दिया. यह जानने के लिए ‘दिप्रिंट’ के सुशील मानव की रिपोर्ट पढ़िए. यह तब है जब कि केंद्र सरकार और भाजपा बड़े गर्व से दावे कर रही है कि भारत की कुल गरीबी दर 5 फीसदी से नीचे चली गई है. इन दो बातों में आप कैसे मेल बिठाएंगे?

इसका जवाब आज की राजनीति में मिलेगा. अगर आप गरीबों के बीच रेवड़ियां बांटकर चुनाव जीतना चाहते हैं तो आपको पर्याप्त संख्या में गरीब ढूंढने होंगे. लोगों से वसूले टैक्स के पैसे को महज 5 फीसदी आबादी में बांटकर कोई चुनाव कैसे जीत सकता है? इसलिए राज्यों को दो तरह के गरीब बनाने का प्रोत्साहन मिलता है : एक वह जो सचमुच गरीब है, आय की कमी के कारण; और दूसरा वह जो चुनावी रूप से गरीब है. राज्य-दर-राज्य अब यही चलन चल पड़ा है. इस चुनावी गरीब का आकार अक्सर अगली जनगणना में पाए गए सचमुच के गरीब के आकार का दस गुना है. इस बाजार में राजनीतिक तबका मध्यवर्ग से मिले टैक्स के पैसों से वोट का व्यापार करता है.

जैसा कि हम इस कॉलम में 6 जुलाई 2019 को लिख चुके हैं, भाजपा इस मध्यवर्ग का समर्थन अपने लिए उसी तरह तय मान कर चल सकती है जिस तरह कांग्रेस और ‘सेकुलर’ पार्टियां मुसलमानों का समर्थन अपने लिए निश्चित मान कर चलती हैं, एक बंधुआ वोट बैंक मान कर. इसलिए भाजपा बीच रास्ते में दिशा बदलने की खास जरूरत नहीं महसूस करती.

मध्यवर्ग शिकायत करता रहेगा मगर वफादार भी बना रहेगा क्योंकि वह मोदी और हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद  के उनके आह्वान को बहुत पसंद करता है. उसे इस बात की खुशी है कि मुसलमानों को प्रभावी रूप से हाशिये पर डाल दिया गया है, और वैसे भी मोदी नहीं तो कौन? एकतरफा, अपुरस्कृत प्यार कोई अजूबा भी नहीं है. हमारे साथी और राजनीतिक संपादक डी.के. सिंह अपने जेएनयू वाले दिनों को याद करके इसे एक नाम देते हैं—‘फोसला’ यानी हताश एकतरफा प्रेमियों का एसोसिएशन. मध्यवर्ग की इस जुनूनी मुहब्बत को हम क्या नाम दें? हम यही कह सकते हैं कि ‘दिल है कि मानता नहीं…’

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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