scorecardresearch
Friday, 19 April, 2024
होमएजुकेशनपहले भी कई राज्य कर चुके हैं NEET का विरोध, तमिलनाडु कोई पहला राज्य नहीं है

पहले भी कई राज्य कर चुके हैं NEET का विरोध, तमिलनाडु कोई पहला राज्य नहीं है

तमिलनाडु विधानसभा में एक विधेयक पेश किया गया है, जिसमें नीट से छूट की मांग की गई है लेकिन गुजरात, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश भी भाषा और राज्य-विशिष्ट परीक्षा के आधार पर पहले इसका विरोध कर चुके हैं.

Text Size:

नई दिल्ली: तमिलनाडु विधानसभा में सोमवार को नेशनल एंट्रेंस-कम-एलिजिबिलिटी टेस्ट (नीट) से छूट की मांग करने वाला एक विधेयक पेश होने के साथ ही, राज्य की ओर से उस परीक्षा का निरंतर विरोध फिर से सामने आ गया है, जो मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए कराई जाती है. लेकिन, तमिलनाडु पहला राज्य नहीं है जो इस आधार पर परीक्षा का विरोध कर रहा है कि इससे राज्य-विशिष्ट परीक्षा प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होगा.

एक दशक पहले, गुजरात, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों ने नीट का विरोध किया था, जब तत्कालीन यूपीए सरकार सभी केंद्रीय और प्रदेश कॉलेजों में प्रवेश के लिए ऑल इंडिया प्री-मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट की जगह इस परीक्षा को लाई थी.

नीट 2010 में प्रभावी हुआ था, जब भारतीय चिकित्सा परिषद ने 21 दिसंबर को एक अधिसूचना जारी करके मेडिकल दाखिलों के नियमों में संशोधन कर दिया और पूरे भारत में एमबीबीएस और बीडीएस के लिए नीट को एक मात्र पात्रता तथा प्रवेश परीक्षा बना दिया. अधिसूचना में केंद्र को ये अधिकार भी दिया गया कि जाति-आधारित आरक्षित सीटों के लिए वो न्यूनतम 50 प्रतिशत नंबरों की अनिवार्यता को कम भी कर सकता है.


यह भी पढ़ें: नेट ज़ीरो के लिए भारत को प्रतिबद्ध होना चाहिए लेकिन 2050 तक नहीं: जलवायु विशेषज्ञ


गुजरात का विरोध

2001 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो ये राज्य नीट का विरोध कर रहे सूबों में सबसे आगे था. उस साल अपनी पहली आपत्ति में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री जय नारायण व्यास ने कहा था कि गुजरात नीट को स्वीकार नहीं करेगा. उन्होंने कहा था, ‘हमने निर्णय किया है कि हम नीट को स्वीकार नहीं करेंगे. हमने केंद्र सरकार को इससे अवगत करा दिया है’.

व्यास ने कहा था कि निर्णय पर पहुंचने से पहले, नीट के मेडिकल छात्रों पर पड़ने वाले प्रभाव की जांच के लिए एक तीन-सदस्यीय टीम का गठन किया गया था और ये पाया गया कि नीट राज्य के छात्रों के ‘हित में नहीं है’.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

गुजरात में पेरेंट्स ने कुछ खास चिंताएं जाहिर की थी. पहली चिंता 12वीं क्लास के परिणामों को लेकर थी, जिनके आधार पर गुजरात सरकार उस समय तक विज्ञान के छात्रों को मेडिकल कॉलेजों में दाखिला देती थी. उनका कहना था कि नीट के आने के बाद छात्रों को एक और परीक्षा के लिए तैयारी करनी होगी.

एक और चिंता जो व्यक्त की गई, वो सेमेस्टर सिस्टम में बदलाव को लेकर थी- और जिस तरह से सिलेबस पढ़ाया जाता था- जिसे राज्य सरकार ने 2012 में लागू किया था. पेरेंट्स का कहना था कि नए सिस्टम के हिसाब से ढलने तथा एक और परीक्षा की तैयारी करने से छात्रों पर एक अतिरिक्त बोझ पड़ेगा.

लेकिन 2016 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद नीट को लागू कर दिया गया- तब तक नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी, केंद्र की सत्ता में आ चुकी थी.


यह भी पढ़ें: वैचारिक शुचिता को दरकिनार कर केरल में कांग्रेस के दलबदलुओं को शामिल कर रही है CPM


अन्य राज्यों का विरोध

2013-2016 के बीच राज्यों ने नीट के पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने मुद्दे सुप्रीम कोर्ट में रखे. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और कई निजी संस्थान इसके सख्त खिलाफ थे.

2016 में सुप्रीम कोर्ट में एक सुनवाई के दौरान आंध्र प्रदेश के कानूनी सलाहकार ने दलील दी कि भारतीय संविधान की धारा 371डी के अंतर्गत, उनके राज्य को संरक्षण मिला हुआ है. उस आदेश के तहत रोज़गार और शिक्षा के मामले में राज्य अपने फैसले खुद ले सकता है लेकिन शीर्ष अदालत ने उस आदेश को निरस्त कर दिया.

जहां कर्नाटक के निजी चिकित्सा संस्थानों का दावा था कि वो पहले ही राज्य के छात्रों के लिए परीक्षा कराने में पैसा खर्च कर चुके हैं, वहीं उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसी तरह का तर्क पेश किया. महाराष्ट्र के तत्कालीन शिक्षा मंत्री विनोद तावड़े ने भी एक बयान जारी किया, जिसमें मांग की गई कि ‘साल 2016 के लिए नीट के अनिवार्य कार्यान्वयन पर रोक लगाई जाए’.

तमिलनाडु ने ये कहते हुए परीक्षा का विरोध किया कि 2007 के बाद से राज्य में प्रवेश परीक्षाओं का चलन नहीं है.

राज्यों की एक बड़ी चिंता भाषा को लेकर भी थी- परीक्षा को मूल रूप से केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में कराया जाना था. उनकी ओर से एक और तर्क केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) तथा राज्यों के बोर्ड्स के पाठ्यक्रम में अंतर को लेकर था.


यह भी पढ़ें: सवर्ण तुष्टीकरण के लिए लाया गया था EWS आरक्षण, अब होगी इसकी पड़ताल


अदालती कार्यवाही

फरवरी 2013 में देश भर की कई अदालतों में करीब 80 याचिकाएं दायर की गईं, जिन्हें बाद में सुप्रीम कोर्ट स्थानांतरित कर दिया गया. ये याचिकाएं गुजरात, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक समेत कई राज्यों की ओर से दायर की गईं थीं. उसी वर्ष जुलाई में शीर्ष अदालत ने नीट के कार्यान्वयन को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे राज्यों के शिक्षा के अधिकार का हनन होता है.

लेकिन मई 2013 में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने से पहले देश भर के 85 शहरों में फैले केंद्रों पर पहली बार नीट का आयोजन किया गया.

वर्ष 2014 और 2015 में नीट आयोजित नहीं कराई गई, चूंकि भारतीय चिकित्सा परिषद ने अक्टूबर 2013 में फैसले के खिलाफ एक पुनर्विचार याचिका दायर कर दी थी. मामले की अंतिम सुनवाई 2016 में एक पांच-सदस्यीय बेंच के समक्ष हुई, जिसने आखिरकार मेडिकल कॉलेजों के लिए एक सामान्य प्रवेश परीक्षा के पक्ष में आदेश जारी कर दिया.

लेकिन कई राज्यों ने 2016 की परीक्षा में शामिल होने से इस आधार पर छूट की मांग की थी कि उनकी तैयारी नहीं हो पाई थी.

2016 में परीक्षा को दो चरणों में कराया गया. पहले चरण की परीक्षा के लिए 1 मई की तारीख तय की गई और दूसरी परीक्षा के लिए 24 जुलाई निर्धारित की गई. 1 मई को आयोजित नीट के पहले चरण में करीब 6.5 लाख छात्रों ने हिस्सा लिया.

पिछले पांच वर्षों में नीट के पंजीकरण में 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. विशेषज्ञों का कहना है कि ये वृद्धि अतिरिक्त मेडिकल सीटों, कोविड-19 महामारी और इंजीनियरिंग कोर्सेज़ की मांग में कमी आदि के चलते हुई है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: उत्तराखंड पहुंचे केजरीवाल ने किया युवाओं से वादा, छह महीने में देंगे नौकरी नहीं तो मिलेगा 5 हजार


 

share & View comments