नई दिल्ली: सेज प्रकाशन के इंडिया बुक ऑपरेशन को बंद करने के फैसले पर हैरान और दुखी अकादमिक समुदाय ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि यह भारत में अकादमिक प्रकाशन के लिए एक बड़ा झटका है.
पिछले हफ्ते पुस्तकों का प्रकाशन बंद करने और पत्रिकाओं को निकालना जारी रखने की अपनी घोषणा के बाद कंपनी अब अपने साथ जुड़े लेखकों को ईमेल भेज रही है और उन्हें भविष्य में समर्थन देने का आश्वासन दिया है.
हालांकि लेखक इस बात को लेकर अनिश्चित हैं कि इस कदम के पीछे क्या कारण हो सकता है. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि यह फैसला पूरी तरह से व्यावसायिक उद्देश्यों के मद्देनजर लिया गया है.
ईमेल पर दिप्रिंट के सवाल का जवाब देते हुए, सेज पब्लिकेशंस इंडिया के सीनियर मैनेजर-मार्केटिंग स्मृति सुधाकरन ने कहा कि ‘कंपनी ने महामारी और अन्य आर्थिक कारणों के चलते भारत में किताबों के प्रकाशन के लिए चुनौतीपूर्ण कारोबारी माहौल का अनुभव किया है.’
सुधाकरन ने यह भी साफ किया कि यह फैसला खासतौर पर पुस्तकों के लिए है. इससे पत्रिकाओं के प्रकाशन और भारत में अच्छी पकड़ बना चुकी उनकी (SAGE) इंपोर्टेड किताबों की बिक्री को प्रभावित नहीं करेगा.”
उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में कहा, ‘हम किताबों के प्रकाशन के लिए सक्रिय रूप से नई जगह तलाश रहे हैं और जैसे ही हमारी तलाश पूरी हो जाएगी हम इसकी घोषणा कर देंगे. इस बीच हमारा पुस्तक प्रकाशन तब तक जारी रहेगा जब तक हम कहीं और नहीं चले जाते है. हम अपने लेखकों का समर्थन करते रहेंगे और उनके साथ संपर्क बनाए हुए हैं.’
सुधाकरन ने आगे कहा कि फैसला अनिवार्य रूप से कंपनी के कुछ कर्मचारियों के चले जाने का परिणाम है.
उन्होंने कहा, ‘हमारा उद्देश्य अपने साथ जुड़े लोगों का ध्यान रखते हुए इस बदलाव को करना है. हम अतिरिक्त मुआवजा राशि के साथ-साथ उनकी प्लेसमेंट खोजने में सहायता करेंगे.’
‘अकादमिक किताबें सस्ती नहीं हैं’
दिप्रिंट से बात करते हुए, सेज के साथ जुड़े एक लेखक ने कहा, ‘मुझे लगता है कि इसका कारण पूरी तरह से व्यावसायिक है न कि राजनीतिक. अगर कोई अकादमिक प्रकाशक 1981 से काम कर रहा है और पुस्तकों का प्रकाशन बंद करने का फैसला लेता है तो यह प्रकाशन उद्योग के लिए एक बड़ा झटका है.
सूत्र बताते हैं कि सेज की भारत में किताबों का अपना प्रकाशन बंद करने की वजह इसकी अकादमिक पुस्तकों की बिक्री में भारी गिरावट है. ऐसे में प्रकाशन जारी रखना मुश्किल होता जा रहा था.
एक सूत्र ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “अकादमिक पुस्तकों के लिए एक बड़ा खरीदार संस्थान और पुस्तकालय होते हैं न कि छात्र और शोधकर्ता. उनकी किताबों की खरीदारी का ग्राफ बहुत नीचे चला गया है. इसका कारण साफ है. इन दिनों कोर्स मैटेरियल किताब की बजाय एक कोर्स पैक के रूप में आ रहा है. इसमें पत्रिका और किताबों के अध्याय दोनों होते हैं.”
स्रोत ने कहा, ‘हालांकि पत्रिकाओं के अभी भी काफी खरीदार हैं और आगे भी यह दौर जारी रहेगा, लेकिन किताबें नहीं खरीदी जा रही हैं.’
यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों ने दिप्रिंट को बताया कि कोर्स पैक के अलावा एक और कारण है जिसकी वजह से किताबों की बिक्री गिरी है. वो है लाइब्रेरी फंड का न होना.
दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक फैकल्टी मेंबर राजेश झा ने बताया, ‘पिछले तीन-चार सालों से फंड की कमी के चलते हम अपनी लाइब्रेरी के लिए नई किताबें नहीं खरीद पाए हैं. अकादमिक किताबें सस्ती नहीं हैं.’
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के एक फैकल्टी मेंबर ने भी यही बात कही. उनके मुताबिक अकादमिक पुस्तकें महंगी हैं और पुस्तकालयों के पास अक्सर उन्हें खरीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता है. शिक्षक ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘;हम ज्यादातर अपने छात्रों को रीडिंग के लिए ज़ेरॉक्स कॉपी देते हैं.’
प्रकाशन उद्योग से जुड़े एक सूत्र ने कहा कि अकादमिक पुस्तकों की बिक्री में गिरावट का असर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस जैसे अन्य बड़े अकादमिक प्रकाशकों पर भी पड़ सकता है.
दिप्रिंट ने इन दोनों प्रकाशकों से इस बाबत प्रतिक्रिया लेनी चाही कि इस घटनाक्रम के बारे में उनके क्या विचार हैं और भविष्य में इसका उन पर कैसे प्रभाव पड़ सकता है. लेकिन उन्होंने इस मुद्दे पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
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