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Tuesday, 23 April, 2024
होमएजुकेशनछात्र चले गए, पैसा खत्म-भारत का अकेला अफगानी शरणार्थी स्कूल अब कोविड और तालिबान से आगे देख रहा है

छात्र चले गए, पैसा खत्म-भारत का अकेला अफगानी शरणार्थी स्कूल अब कोविड और तालिबान से आगे देख रहा है

दिल्ली का सैयद जमालुद्दीन अफगान स्कूल पैसे की तंगी के चलते, अक्तूबर में एक बेसमेंट से निकलकर एक तंग से अपार्टमेंट में आ गया, उसके 100 से अधिक छात्र छोड़कर चले गए, और 10 महीने तक वो अपने शिक्षकों को वेतन नहीं दे सका.

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नई दिल्ली: अफगान शर्णार्थियों के लिए भारत में अकेला स्कूल, सैयद जमालुद्दीन अफगान स्कूल एक बिल्डिंग के बेसमेंट में हुआ करता था, जो राष्ट्रीय राजधानी के भोगल इलाक़े में व्यवसायिक परिसरों की एक लाइन में थी. वो जगह छोटी ज़रूर थी लेकिन ऐसी थी, जिसे छात्र स्कूल कह सकते थे.

अक्तूबर में, पैसे की भारी क़िल्लत ने जो महामारी की आमद के साथ शुरू हुई और तालिबान के हाथों अफगान सरकार के गिरने के बाद और बिगड़ गई, स्कूल अथॉरिटीज़ के लिए किराया अदा करना मुश्किल कर दिया, जो क़रीब 1.2 लाख रुपए मासिक था. उन्होंने वो जगह छोड़ दी.

अब,स्कूल की डायरेक्टर सानिया फिदा ताज और उनकी टीम एक चार बेडरूम अपार्टमेंट को ऑफिस बनाकर काम चला रहे हैं, जो भोगल में ही है और उस जगह से ज़्यादा दूर नहीं है जहां मूल स्कूल मौजूद था.

ताज ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम अक्तूबर में इस ऑफिस में आ गए, क्योंकि हमारे पास पैसा नहीं था. हमें स्कूल के लिए बेसमेंट की जगह भी छोड़नी पड़ी’.

इस साल स्कूल 10 महीने तक अपने शिक्षकों को वेतन भी नहीं दे सका, जिनमें से कुछ को अपने गुज़ारे के लिए निजी चीज़ों को बेंचना पड़ा. सभी शिक्षकों ने फिर भी काम करना जारी रखा, लेकिन बहुत से बच्चे स्कूल छोड़ गए. सिर्फ वो बच्चे जो एक कंप्यूटर या स्मार्टफोन का ख़र्च उठा सकते हैं, ऑनलाइन क्लासेज़ जारी रखे हुए हैं.

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The four-bedroom flat from Syed Jamaluddin Afghan School is running currently. | Photo: Pia Krishnankutty/ThePrint
चार शयनकक्ष का वह फ्लैट जिससे वर्तमान में सैयद जमालुद्दीन अफगान स्कूल चल रहा है | फोटो: पिया कृष्णनकुट्टी / दिप्रिंट

ताज ने कहा, ‘शोर-शराबे की वजह से यहां पर काम करना मुश्किल है. आप जानते हैं कि ये एक घर है, ऑफिस नहीं है. उम्मीद है कि हमें स्कूल कायम करने के लिए कोई नई जगह मिल जाएगी. बहुत सारे बच्चे पहले ही जा चुके हैं क्योंकि ऑनलाइन क्लासेज़ में शामिल होने के लिए उनके पास फोन्स या लैपटॉप नहीं हैं. हमारे पास 500 बच्चे हुआ करते थे, अब सिर्फ 375 हैं’.

पिछले हफ्ते स्कूल को विदेश मंत्रालय (एमईए) से एक ‘तोहफा’ मिला, जिसकी सहायता से अब वो ‘सामान्य रूप से’ अपना संचालन कर सकता है.


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शिक्षकों का दस महीने का वेतन बक़ाया

सैयद जमालुद्दीन अफगान स्कूल सबसे पहले लाजपत नगर में 1994 में क़ायम किया गया था, और 2000 के दशक के मध्य में ये भोगल शिफ्ट हो गया. इसमें 1-12 क्लास तक के छात्र लिए जाते हैं, और यहां 32 अफगान टीचर्स काम करते हैं.

स्कूल को दिल्ली स्थित दूतावास के ज़रिए अफगानिस्तान के शिक्षा मंत्रालय से पैसा मिला करता था. लेकिन कई कारणों से स्कूल 2020 के बाद से पैसे की कमी से जूझ रहा है.

ताज ने कहा कि पैसे की कमी पहली बार 2020 में महामारी के दौरान छह महीने तक रही, और उस वक़्त अशरफ ग़नी सरकार ही सत्ता में थी.

उसके बाद इस साल जनवरी से अक्तूबर तक, स्कूल को वेतन के भुगतान के लिए फंड्स नहीं मिले, क्योंकि 20 साल की लड़ाई के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बीच, तालिबान के देश पर तेज़ी से क़ाबिज़ होने की वजह से, अफगानिस्तान में हालात बिगड़ने शुरू हो गए थे.

उन्होंने आगे कहा, ‘जनवरी से अक्तूबर तक, हमें अपने टीचर्स को तनख़्वाह देने के लिए कोई पैसा नहीं मिला. अक्तूबर में हमें तीन महीने की तनख़्वाह का भुगतान किया गया, और 4 दिसंबर को हमें टीचर्स के लिए सात महीने की तनख़्वाह का पैसा दिया गया’.

4 दिसंबर को, जब स्कूल को 10 महीने का बक़ाया पैसा मिला, तो फरीद मामुंदज़ई ने जो भारत में पिछली अफगानिस्तान सरकार के राजदूत का काम करते थे, एक ट्वीट करते हुए स्कूल को एक ‘तोहफा’ देने के लिए एमईए का शुक्रिया अदा किया, जिससे उसे ‘सामान्य रूप से’ काम करने में मदद मिलेगी.

इस बात को उजागर करते हुए, कि मौजूदा ऑफिस का किराया इम्बैसी अदा करती है, जो क़रीब 26,000 रुपए महीना है, ताज ने कहा कि ये ‘इम्बैसी के लिए भी मुश्किल है, क्योंकि उनके यहां भी स्टाफ की कमी है’.

अफगान शिक्षकों ने अपना सोना बेंचा, घर ख़र्च में कटौती की

स्कूल में 32 अफगानी शिक्षक काम करते है, जिन्हें 10,000 रुपए महीना तनख़्वाह मिलती है. ये दिल्ली के सरकारी स्कूल टीचर के औसत वेतन-25,000 रुपए से बहुत कम है.

ये पूछने पर कि 10 महीने तक तनख़्वाह के बिना शिक्षकों ने कैसे गुज़ारा किया, स्कूल की उप-प्रशासक कनिश्का शहाबी ने बताया, कि पैसा बचाने के लिए कुछ शिक्षकों ने घर ख़र्च में कटौती की.

शहाबी ने दिप्रिंट को बताया, ‘कुछ शिक्षिकाओं ने मुझे बताया कि पैसा बचाने के लिए वो बिना टमाटर के खाना बना रही हैं. मैंने देखा है कि इससे उनके कुछ बच्चों का वज़न 1-2 किलो कम हो गया है’.

Syed Jamaluddin Afghan School deputy administrator Kanishka Shahabi. | Photo: Pia Krishnankutty/ThePrint
सैयद जमालुद्दीन अफगान स्कूल उप प्रशासक कनिष्क शाहबी | फोटो: पिया कृष्णनकुट्टी / दिप्रिंट

फरीदा वहीदी के लिए इस दौरान दोहरी मुश्किलें रही हैं, क्योंकि वो स्कूल में एक टीचर हैं, और स्कूल में एक बच्चे की पेरेंट भी हैं.

वहीदी ने दिप्रिंट को बताया, ‘घर चलाने में बहुत मुश्किलें पेश आई हैं. मकान मालिक फोन और मैसेज करता रहता है, क्योंकि कुछ दिन से किराया बक़ाया है. मेरा थायरॉयड बहुत ज़्यादा है, लेकिन फिलहाल मैं बताई गई दवाओं का ख़र्च नहीं उठा सकती’. उन्होंने आगे कहा कि नक़द पैसे के लिए, हाल ही में उन्होंने अपनी शादी के कुछ गहने बेंचे हैं.

वो अपने पति और चार बच्चों के साथ भोगल में रहती हैं.

ये पूछने पर कि क्या नियमित आमदनी की तलाश में किसी टीचर ने काम छोड़ा है, ताज ने कहा: ‘कुछ बच्चों ने स्कूल छोड़ा है क्योंकि वो ऑनलाइन क्लासेज़ नहीं कर पा रहे थे, लेकिन मैं कहूंगी कि एक भी टीचर स्कूल छोड़कर नहीं गई है. 10 महीने तक तनख़्वाह न मिलने, कोविड से जूझने, और तालिबान को अपने मुल्क पर क़ाबिज़ होते देखकर भी, वो हमारे साथ बने रहे’.

वहीदी की 17 साल की बेटी बिलक़ीस, जो पिछले पांच साल से स्कूल में पढ़ रही है, कहती है कि उसे क्लासरूम याद आता है.

उसने कहा, ‘ऑनलाइन क्लासेज़ मेरे लिए आसान हैं, क्योंकि मेरे पास अपना एक फोन है, लेकिन मेरी ज़्यादातर दोस्तों को अपने पेरेंट्स या बड़े भाई-बहन से मांगना पड़ता है. मुझे क्लासरूम याद आता है ख़ासकर मैथ्स और साइंस के लिए, जिनमें काफी रफ काम करना होता है, क्योंकि वहां हमारे पास पढ़ने के लिए सभी सामान और टेबल्स थीं. घर से पढ़ाई करना बहुत मुश्किल होता है’.

2020 में महामारी के शुरू होने के बाद से, छात्र ऑनलाइन क्लासेज़ में शरीक हो रहे हैं, सिवाय सितंबर में 2-3 दिन के इम्तिहान के. आने वाले इम्तिहानों के भी ऑनलाइन ही रहने की संभावना है.

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