कोई सूचना यूं तो सही हो, लेकिन पूरी न होकर आधी-अधूरी हो और आपको कुछ इस अंदाज में परोसी जाये कि बरसों से सुनायी जा रही उस मनभावन कहानी पर कोई आंच न आये जिसके आखिरी में हर बार आपको बताया जाता है— सब कुछ चंगा सी, मजा मे छे… तो आप सूचना परोसने के इस अंदाज को मिस-इन्फॉर्म करना कहेंगे या डिस-इन्फॉर्म करना? सवाल के जवाब में माथा खुजलाने से पहले ज़रा ये भी सोचिए कि ऐसी कोई सूचना देश के नये आर्थिक सर्वेक्षण में आए और उस सूचना को आधार बनाकर नए बजट में कुछ घोषणाएं हो जाएं तो मिस-इन्फर्मेशन/डिस-इन्फर्मेशन और बजट में हुई घोषणा के बीच का ऐसा रिश्ता क्या कहलाता है?
आज के सत्याभासी या कह लें सत्यानाशी समय में मिस-इन्फर्मेशन और डिस-इन्फर्मेशन शब्द का इस्तेमाल यूं तो आम है लेकिन इतना भी आम नहीं कि उसका सही-सही हिन्दी पर्याय बना लिया गया हो. हिन्दी पर्याय का न होना क्या इस बात की दलील हो सकता है कि हिन्दी-पट्टी में ज्यादातर लोगों को मिस-इन्फर्मेशन और डिस-इन्फर्मेशन को लेकर खास चिन्ता नहीं है? पता नहीं, बाकी देश-भाषाओं में मिस-इन्फर्मेशन और डिस-इन्फर्मेशन के पर्याय बने हैं या नहीं लेकिन वित्त मंत्री के बजट-भाषण में हुई इस घोषणा के बाद कि एक ‘डिजिटल यूनिवर्सिटी’ बनायी जायेगी और डिजिटल यूनिवर्सिटी से मुहैया की जाने वाली विश्वस्तरीय गुणवत्ता की पढ़ाई तमाम भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होगी—हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं मे सोचने-बोलने वालों को मिस-इन्फर्मेशन और डिस-इन्फर्मेशन के बीच के फ़र्क पर गौर करना चाहिए.
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नये आर्थिक-सर्वेक्षण में शिक्षा का पाठः मिस-इन्फर्मेशन या डिस-इन्फर्मेशन
इंटरनेटी डिक्शनरियों में बताया गया है कि सूचना झूठी हो लेकिन परोसने वाला इस बात से अनजान हो और अनजाने में ही झूठी सूचना को सच समझकर फैलाये जा रहा हो तो यह मिस-इनफर्मेशन का उदाहरण हुआ. डिस-इन्फर्मेशन का मिज़ाज कुछ अलग होता है— ऐसे मामले में आपको खूब पता होता है कि सच्चाई क्या है लेकिन आप सूचना के साथ कुछ हेरा-फेरी करते हैं, उसमें कुछ जोड़ते या घटा देते हैं. यूं कहें कि जो कड़वा-कड़वा होता है उसे थूककर सारा मीठा-मीठा परोसते हैं और ऐसा करते हुए आपका मकसद एक ही होता है कि सूचना पाने वाले को किसी तरह गुमराह किया जा सके.
आधी-अधूरी सूचना के सहारे कथानक गढ़ने का सबसे ताजा उदाहरण देश का नया आर्थिक-सर्वेक्षण है—कम से कम आर्थिक सर्वेक्षण के दसवें अध्याय (सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड एंप्लायमेंट) में आये शिक्षा से संबंधित तथ्यों को देखते हुए यही प्रतीत होता है. नये आर्थिक-सर्वेक्षण के इस अध्याय में शिक्षा के हालात के बयान की शुरुआत `सब कुछ चंगा सी` साबित करने वाले अंदाज में होती है.
मिसाल के लिए, स्कूली नामांकन (स्कूल एनरोलमेंट) वाले हिस्से में लिखा है कि `साल 2019-20 में कुल 26.45 छात्र स्कूलों में नामांकित थे. इस साल कुल 42 लाख नये बच्चों का स्कूलों में नामांकन हुआ.` छात्रों के बढ़े नामांकन को संगत साबित करने के लिए अध्याय में आपको यह भी लिखा हुआ मिल जायेगा कि नये स्कूल-कॉलेज भी बढ़े हैं. मिसाल के लिए नये आर्थिक सर्वेक्षण में लिखा है कि `महामारी से पहले के साल 2019-20 जिसके आंकड़े उपलब्ध हैं, के आकलन से पता चलता है कि साल 2018-19 से 2019-20 के बीच मान्यता-प्राप्त स्कूलों और कॉलेजों की संख्या लगातार बढ़ी है. बीच में पढ़ाई छोड़ने यानी ड्राप-आऊट्स के बारे में भी ऐसी ही बात लिखी मिलेगी आपको.`
अब आप सोचें कि साल 2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण में साल 2019-20 के आंकड़े क्यों इस्तेमाल किये जा रहे हैं, साल 2020-21 के आंकड़े कहां गये. आर्थिक-सर्वेक्षण का नया दस्तावेज कहता है कि कोविड महामारी के कारण नये आंकड़ों को जुटाना संभव नहीं हो सका, सो पुराने आंकड़े से काम चलाया गया है.
ठीक बात, लेकिन कोविड-महामारी के दौर में स्कूलों-कॉलेजों में छात्रों के नामांकन और उनकी पढ़ाई-लिखाई की क्या दशा हुई- यह कैसे जानें? नये आर्थिक-सर्वेक्षण की इस बात के लिए चाहें तो प्रशंसा करें कि उसमें इस सवाल से कन्नी नहीं काटी गई. सर्वेक्षण ने स्वीकार किया है कि शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े साल 2019-20 तक के ही उपलब्ध हैं सो 2020 और 2021 में स्कूल-कॉलेज में छात्रों के नामांकन और ड्रॉप-आऊट्स के मामले में क्या हाल हुआ, इसे आधिकारिक आंकड़ों के सहारे जानना मुमकिन नहीं. नये आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार इसी कारण, `नीति-निर्माताओं ने वैकल्पिक स्रोतों का इस्तेमाल किया है और गैर-सरकारी संस्थाओं के मार्फत हुए सर्वेक्षणों जैसे एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन (असर) रिपोर्ट के सहारे यह आकलन किया गया है कि महामारी (कोविड) के दौरान देश के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा-क्षेत्र किस दशा को पहुंचा.
खैर, असर रिपोर्ट के जो तथ्य नये आर्थिक सर्वेक्षण में दर्ज किये गये हैं उनसे एक अलग ही तस्वीर बनती है. असर रिपोर्ट से बनने वाली तस्वीर नये आर्थिक सर्वेक्षण में स्कूली नामांकन में बढ़ोत्तरी और ड्राप-आउट्स की संख्या में कमी दिखाने की नीयत से दर्ज आंकड़े से मेल नहीं खाती. मिसाल के लिए, नये आर्थिक सर्वेक्षण में असर रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि महामारी के दौरान गंवई इलाके के छात्रों ने प्राइवेट स्कूल से नाम कटवाकर सरकारी स्कूलों में दाखिला लिया और ऐसा हर आयु-वर्ग के स्कूली बच्चों के साथ हुआ. प्राइवेट स्कूलों से नाम कटवाकर सरकारी स्कूल में नाम लिखवाने के संभावित कारण हैं: कम लागत के प्राइवेट स्कूलों का बंद हो जाना, बच्चों के माता-पिता का आर्थिक संकट में होना, सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली निशुल्क सेवा और परिवार का महामारी के दौरान एक इलाके से निकलकर दूसरे इलाके में जाना.
सवाल उठता है, कौन सी बात सच है— क्या पुराने आंकड़े के आधार पर आर्थिक-सर्वेक्षण में उकेरी गई यह तस्वीर सच है कि छात्रों के नामांकन की संख्या बढ़ रही है और पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की संख्या लगातार घट रही है या असर रिपोर्ट में दर्ज यह बात सच है कि महामारी के दौरान स्कूली छात्रों ने प्राइवेट स्कूल छोड़ा और सरकारी स्कूलों में नाम लिखवाया? क्या जितने छात्रों ने प्राइवेट स्कूल छोड़ा, उन सभी ने सरकारी स्कूलों में नाम लिखवाया? अगर नहीं, तो बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों की तादाद महामारी के दौरान घटी या बढ़ी? आर्थिक-सर्वेक्षण, इन सवालों के जवाब नहीं देता.
वैसे असर रिपोर्ट (2021) में ये बात बड़ी साफ-साफ लिखी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी के एक साल (2020-2021) के दरम्यान सरकारी स्कूलों में नामांकित छात्रों की संख्या 65.8 प्रतिशत से बढ़कर 70.3 प्रतिशत हो गई जबकि प्राइवेट स्कूलों में दाखिल छात्रों की संख्या एक साल के भीतर 28.8 प्रतिशत से घटकर 24.4 प्रतिशत पर चली आई. यूं, इस आंकड़े से ये अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि जितने छात्रों ने प्राइवेट स्कूल से नाम कटवाया उन सबने सरकारी स्कूलों में नाम लिखवा लिया. महामारी के दौरान, स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की तादाद का अनुमान लगाना हो तो 2021 के सितंबर में प्रकाशित इमर्जेन्सी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन नाम की रिपोर्ट देखना ठीक होगा. अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक टोली ने स्कूली बच्चों की ऑनलाइन तथा ऑफलाइन पढ़ाई के संबंध में देश के कुल 15 राज्यों में हुए सर्वेक्षण पर आधारित इस रिपोर्ट में बताया कि कोरोना-काल में ग्रामीण क्षेत्र के 37 प्रतिशत छात्र पढ़ाई छोड़ चुके हैं.
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डिजिटल यूनिवर्सिटी बनाम डिजिटल एक्सेस से वंचित छात्र
असर रिपोर्ट के तथ्यों के आधार पर नये आर्थिक सर्वेक्षण में माना गया है कि महामारी के इस समय में बच्चों की पढ़ाई का घाटा पूरा करने के लिए सरकारी स्कूलों को अतिरिक्त मदद दी जानी चाहिए और यह मदद कुछ ऐसी हो कि छात्र-शिक्षक का अनुपात न गड़बड़ाये, स्कूलों में क्लासरूम पर्याप्त हों, बंद स्कूलों के इस वक्त में छात्रों के पास न पढ़ने की सामग्री कम पड़े और न शिक्षकों के पास पढ़ाने-सिखाने के सामान की कमी रहे.
आप मान सकते हैं कि वित्त मंत्री ने आर्थिक-सर्वेक्षण में कही गई इसी बात के अनुरुप बजट-भाषण में डिजिटल यूनिवर्सिटी तैयार करने की योजना का ऐलान किया. वित्त मंत्री के भाषण में यह भी था कि पीएम ई-विद्या के तहत अभी ‘वन क्लास-वन चैनल’ प्रोग्राम के तहत जो शिक्षण-सामग्री छात्रों को 12 चैनलों के जरिए मुहैया करायी जा रही है उसे 200 टीवी चैनल्स पर उपलब्ध कराया जायेगा.
बात अच्छी लगती है सुनने में कि महामारी के कारण स्कूल-कॉलेज बंद हैं तो फिर छात्रों की पढ़ाई का घाटा पूरा करने के लिए डिजिटल युनिवर्सिटी के जरिए देश की तमाम भाषाओं में ई-कंटेन्ट तैयार करवाया जाये और रेडियो, टीवी, स्मार्टफोन, लैपटॉप आदि के जरिए इस सामग्री को हर बच्चे के घर तक पहुंचा दिया जाये. लेकिन, क्या इस सोच को अमली जामा पहनाया जा सकता है? बजट-भाषण से तो खैर उम्मीद नहीं रखी जा सकती कि किसी योजना के बारे में बात करते हुए उसके क्रियान्वयन से जुड़ी कठिनाइयों के बारे में विस्तार से बातें साझा की जायेंगी लेकिन आर्थिक-सर्वेक्षण से ऐसी उम्मीद रख सकते हैं, आखिर वह वर्ष भर की आर्थिक गतिविधियों का क्षेत्रवार विस्तृत लेखा-जोखा होता है, साथ ही हम उसे एक दृष्टिपत्र (विजन डॉक्यूमेंट) के रुप में भी पढ़ सकते हैं.
नये आर्थिक सर्वेक्षण ने अपने दसवें अध्याय में यह बात छिपा ली कि इस देश के ज्यादातर छात्र इस दशा में नहीं हैं कि ई-कटेन्ट के जरिए उनकी पढ़ाई का घाटा पूरा करवाया जा सके और आर्थिक-सर्वेक्षण यह बताने से भी चूक गया कि खुद शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट ने ऐसी दशा का ब्यौरा दिया था. बीते साल अक्तूबर के पहले पखवाड़े में एक रिपोर्ट इनिशिएटिव बाय द स्कूल एजुकेशन सेक्टर इन 2020-21 के नाम से आयी. इस रिपोर्ट में बताया गया कि देश के सात बड़े राज्यों असम, आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश तथा उत्तराखंड में स्कूल जाने वाले 40 से 70 प्रतिशत छात्रों के पास डिजिटल एक्सेस का कोई साधन नहीं हैं.
मध्य प्रदेश में 70 प्रतिशत स्कूली छात्र डिजिटल एक्सेस सें वंचित हैं तो बिहार और आंध्र प्रदेश में ऐसे छात्रों की तादाद 55 प्रतिशत से ज्यादा है (बिहार में 58 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 57 प्रतिशत). असम (44 प्रतिशत), झारखंड (43.42%), उत्तराखंड (41.17%) और धनी कहलाने वाले राज्य गुजरात (40%) में भी 100 में 40 से ज्यादा छात्र लैपटॉप, डेस्कटॉप, टेबलेट (टैब), स्मार्टफोन सरीखे किसी भी ऐसे डिवाइस से वंचित हैं जो उन्हें ई-कंटेन्ट मुहैया करा सके.
छात्रों को टीवी के जरिए देसी भाषाओं में शिक्षण-सामग्री उपलब्ध कराने का तरीका आकर्षक लग सकता है. लेकिन पीएम-ईविद्या के तहत चल रहे वन क्लास- वन चैनल प्रोग्राम के साथ मुश्किल ये है कि स्कूल खुलेंगे तो ही क्लासरूम में टीवी सेट्स चलेंगे और जहां तक स्कूली इंफ्रास्ट्रक्चर की बात है, ढेर सारे स्कूल ऐसे हैं कि कोविड गाइडलाइन्स का पालन करें (फिजिकल डिस्टेंसिंग, बार-बार हाथ धोना आदि) तो उन्हें खोला ही नहीं जा सकता.
मिसाल के लिए, डीआईएसई (District Information System for Education) के आंकड़ों को आधार मानें तो देश में 59,400 स्कूल बस एक कमरे में चलते हैं. कुल 1 लाख 20 हजार स्कूल ऐसे हैं जहां 50 से ज्यादा छात्र एक साथ बैठते हैं और इसमें बहुत से स्कूलों में कई कक्षा के विद्यार्थी एक ही साथ बैठा करते हैं. अगर कारगर पेयजल सुविधा, शौचालय सुविधा और हाथ धोने की सुविधा यानी साफ-सफाई से संबंधित इन तीनों सुविधाओं को एक साथ मिला दें तो एक साथ इन तीन सुविधा वाले स्कूलों की तादाद देश में बस 54 प्रतिशत मिलेगी आपको.
स्कूलों और विद्यार्थियों की ऐसी दशा के होते अगर आर्थिक-सर्वेक्षण में तथ्य अधूरे बताये जाते हैं और बजट-भाषण में डिजिटल यूनिवर्सिटी बनाने के सपने सजाये जाते हैं तो अब आप फैसला करें कि इसे डिस-इन्फर्मेशन कहेंगे या मिस-इन्फर्मेशन.
(लेखक बिहार के जेपी यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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