नई दिल्ली: भूमि त्रिपाठी को यह डर सताने लगा है कि एमबीबीएस डॉक्टर बनने का उनका सपना कहीं धरा का धरा ही न रह जाए. वाराणसी की 20 वर्षीया छात्रा तीन साल पहले स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद से विदेशी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश की कोशिश कर रही हैं. लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध ने अब उसके विकल्पों को काफी सीमित कर दिया है और वह अपना यह इरादा पूरी तरह छोड़ने तक पर विचार करने लगी है.
भूमि ने दिप्रिंट से कहा, ‘चीन ने महामारी के बाद भारतीय छात्रों को वीजा देना बंद कर दिया. यूक्रेन में सुरक्षा चिंताएं एक बड़ी बाधा बन गई हैं और रूस में द्विभाषी शिक्षा व्यवस्था है. ऐसे में भारतीय मेडिकल छात्रों के लिए सस्ती शिक्षा के विकल्प घट रहे हैं. फिलहाल तो मिस्र पर मेरी उम्मीदें टिकी हैं. अगर ऐसा नहीं हो पाया है तो मैं भारत में किसी बीएससी पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लूंगी.’
भूमि ने बताया कि उसके कई दोस्त अब इस साल वैकल्पिक साइंस कोर्स का चयन कर रहे हैं क्योंकि विदेश में मेडिकल की पढ़ाई के विकल्प कम नजर आ रहे हैं.
भारत में चिकित्सा शिक्षा और पेशेवरों से जुड़ी नियामक संस्था राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने छात्रों को चीनी यूनिवर्सिटी में आवेदन न करने के खिलाफ सलाह दी थी, जब चीन की सरकार ने कोविड-19 महामारी के मद्देनजर छात्रों को वीजा जारी करना बंद कर दिया था.
एनएमसी के नवीनतम दिशानिर्देशों—जिसमें अंग्रेजी शिक्षा के एकमात्र माध्यम के तौर पर अनिवार्य है—के अनुसार, रूसी यूनिवर्सिटी बड़े पैमाने पर द्विभाषी पाठ्यक्रम मुहैया कराती है, जो कि अस्वीकार्य है. इसके अलावा, एनएमसी ने पिछले महीने अपनी एक ताजा अधिसूचना में छात्रों को किर्गिस्तान की यूनिवर्सिटीज में आवेदन न करने की भी सलाह दी थी, यूएसएसआर का हिस्सा रहे एक अन्य देश को लेकर यह कदम तब उठाया गया, ‘जब यह पता चला कि कई छात्र इन संस्थानों में पर्यवेक्षी, नियामक और ढांचागत मुद्दों की अनदेखी कर रहे हैं.’
अब, रूसी हमले के कारण यूक्रेन भी इससे बाहर हो गया है.
कंसल्टेंट्स का दावा है कि अब छात्रों को मेडिकल की पढ़ाई पर अधिक पैसे खर्च करने होंगे, क्योंकि सबसे किफायती विकल्पों को चुनना मुश्किल हो गया है.
यूक्रेन में मेडिकल डिग्री हासिल के लिए छह साल के कोर्स पर 15 लाख से 17 लाख रुपये के बीच खर्च आता है, जो भारत में निजी मेडिकल कॉलेजों की तुलना में बहुत सस्ता है जहां 30 लाख रुपये से 1.5 करोड़ रुपये के बीच खर्च आता है. रूस में यह खर्च 20 लाख रुपये से 27 लाख रुपये के बीच है, जबकि जॉर्जिया में यह 35 से 45 लाख रुपये है. चीन में मेडिकल शिक्षा पर सालाना 3 लाख रुपये तक खर्च आता है.
इसके विपरीत, संयुक्त अरब अमीरात और जर्मनी जैसे देशों में मेडिकल शिक्षा पर अच्छा-खासा खर्च करना पड़ता है जो 60 लाख से 90 लाख रुपये के बीच है, जिससे यहां मेडिकल शिक्षा हासिल करना भारत के निजी कॉलेजों की तरह ही महंगा हो जाता है.
इसके अलावा आसानी से प्रवेश मिलना भी एक बड़ा कारण है.
यूक्रेन के मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए भारतीय छात्रों को नीट में कुल 720 में से 135-150 के बीच स्कोर करने और 12वीं कक्षा में 60 फीसदी या उससे अधिक अंक हासिल करने की जरूरत होती है. चीन, रूस और जॉर्जिया जैसे देशों में समान कट-ऑफ हैं. लेकिन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) जैसे भारत के शीर्ष सरकारी कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए किसी छात्र को एनईईटी में 650 से अधिक अंक हासिल करने होते हैं और उसके साथ ही 12वीं कक्षा की परीक्षा में अच्छे अंक भी हासिल करने होते हैं.
अपने 21 वर्षीय भाई को मेडिकल कोर्स में प्रवेश दिलाने के इच्छुक 32 वर्षीय प्रिंस की कहानी भी भूमि त्रिपाठी से मिलती-जुलती ही है.
यूपी निवासी प्रिंस कहते हैं, ‘हम भारत में निजी मेडिकल एजुकेशन का खर्च नहीं उठा सकते, इसलिए विदेशी यूनिवर्सिटी में प्रवेश की कोशिश कर रहे हैं. यूक्रेन में युद्ध ने हमारी योजनाओं पर पानी फेर दिया है. अन्य देश यूक्रेन की तुलना में काफी अधिक महंगे हैं.’
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छात्र विदेश क्यों जाते हैं
सरकार की तरफ से 2020 में संसद में दिए गए जवाब के मुताबिक, भारत 541 मेडिकल कॉलेजों में कुल 82,926 एमबीबीएस सीटों की पेशकश करता है, जिसमें 278 सरकारी और 263 निजी संस्थान शामिल हैं. जबकि, अगर 2021 की स्थिति देखें तो नीट परीक्षा में 16 लाख से अधिक छात्र शामिल हुए थे.
नतीजतन, छात्र विदेशों के निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश का विकल्प तलाशते हैं.
2021 में संसद को उपलब्ध कराए गए सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, संयुक्त अरब अमीरात में 2.19 लाख भारतीय छात्र है, वहीं कनाडा में 2.16 लाख, अमेरिका में 2.12 लाख, चीन में 23,000, यूक्रेन में 18,000, रूस में 16,500, फिलीपींस में 15,000, जॉर्जिया में 7,500, कजाकिस्तान में 5,300, बांग्लादेश में 5,200 और नेपाल में 2,200 भारतीय छात्र हैं. ये संख्या केवल मेडिकल छात्रों की नहीं है और इसलिए सूची में ऐसे देश भी शामिल हैं जो मेडिकल छात्रों के लिए आकर्षक स्थल नहीं हैं.
दिल्ली के एजुकेशन कंसल्टेंट कहते हैं, चीन, रूस और यूक्रेन जैसे देशों में पढ़ने का विकल्प न रह जाने और कजाकिस्तान पर एनएमसी प्रतिबंध लागू होने के कारण विदेशों में मेडिकल शिक्षा के विकल्प तेजी से खत्म होते जा रहे हैं.
एडुनियल इंफोटेक ग्रुप के सलाहकार त्रिभुवन सिंह ने कहा, ‘नवीनतम एनएमसी दिशानिर्देशों के बाद कजाकिस्तान, रूस जैसे देश अब भारतीय छात्रों के लिए एक आकर्षक विकल्प नहीं रहे हैं. एनएमसी के मुताबिक पूरा मेडिकल कोर्स अंग्रेजी में होना चाहिए.’
उन्होंने कहा, ‘अधिकांश रूसी कॉलेजों में मेडिकल कोर्स द्विभाषी है और कई कजाख यूनिवर्सिटी को 2021 में एनएमसी की तरफ से ब्लैकलिस्ट कर दिया गया था, जिससे छात्रों के लिए विकल्प कम हो गए है.’
भारत के पड़ोसी देशों नेपाल और बांग्लादेश आदि की तुलना में किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, रूस, जॉर्जिया और बेलारूस जैसे राष्ट्र छात्रों के पसंदीदा स्थल बने हुए हैं क्योंकि यहां की यूनिवर्सिटी में बड़ी संख्या में छात्रों को प्रवेश मिलता है.
होप कंसल्टेंट्स के दीपेंद्र चौबे ने कहा, ‘ये देश पसंदीदा स्थल होने का कारण सिर्फ यही नहीं है कि यहां पर पढ़ाई सस्ती है, बल्कि यहां पर बड़ी संख्या में सीटें भी उपलब्ध होती हैं. नेपाल की मेडिकल यूनिवर्सिटी में विदेशी छात्रों के लिए लगभग 600 सीटें होती हैं, बांग्लादेश में करीब 1,100 ऐसी सीटें हैं, चीन में लगभग 2,900 सीटें हैं, और मिस्र में यह आंकड़ा लगभग 500 हैं.’
उन्होंने कहा, ‘दूसरी तरफ रूस, यूक्रेन, किर्गिस्तान जैसे देशों में प्रति यूनिवर्सिटी 500 से 1,000 सीटें उपलब्ध है, जिससे बड़ी संख्या में छात्र इन देशों की ओर रुख करते रहे हैं.’
चौबे ने दावा किया कि भारतीय छात्रों के यूक्रेन जाने का चलन 2014 में शुरू हुआ था. इससे पूर्व, 1999 से ही चीन, रूस और नेपाल सबसे ज्यादा पसंदीदा विकल्प थे.
इसके अलावा, कई शिक्षा वेबसाइटों पर इस तरह का उल्लेख भी मिलता है कि इन देशों की यूनिवर्सिटी भारत के निजी संस्थानों की तुलना में अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करती हैं.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, एनएमसी से पहले नियामक इकाई रही मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने विदेश में मेडिकल शिक्षा के इच्छुक छात्रों को 2017 (14,118) की तुलना में 2018 (17,504) में 3,386 अधिक पात्रता प्रमाणपत्र जारी किए थे, जो विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या में करीब 24 फीसदी की वृद्धि को दर्शाता है.
यूक्रेन में बिगड़ती स्थिति के बावजूद डीएसए ग्लोबल के तेजेंद्र सिंह काफी आशावादी हैं, उनका कहना है कि अगर कुछ महीनों में युद्ध समाप्त हो गया तो छात्रों के वहां प्रवेश लेने की संभावनाएं सबसे अधिक हैं. वहां प्रवेश प्रक्रिया सितंबर में शुरू होती है.
छात्रों के लिए नियम और वापसी के बाद की संभावनाएं
नवंबर 2021 में जारी एनएमसी दिशानिर्देशों में विदेश में पढ़ने वाले मेडिकल छात्रों के लिए महत्वपूर्ण नियम सूचीबद्ध हैं, जिनमें से एक यह है कि विदेश में शिक्षा का पूरा कोर्स अंग्रेजी में होना चाहिए.
दूसरी शर्त यह है कि छात्रों को उसी विदेशी यूनिवर्सिटी में 12 महीने की इंटर्नशिप के साथ-साथ 54 महीने (4.5 साल) में एमबीबीएस कोर्स पूरा करना होगा.
एक अन्य अनिवार्य प्रावधान यह है कि भारत में नीट पास करने और विदेश में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद छात्रों को जिस देश में शिक्षा ली है, वहां पर अभ्यास करने योग्य होना चाहिए, जिसका मतलब है कि उन्हें वहां एक पंजीकृत डॉक्टर होना चाहिए.
भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 के अनुसार, कुछ देशों से चिकित्सा योग्यता हासिल करने वाले सभी छात्रों को भारत में प्रैक्टिस के लिए विदेशी चिकित्सा स्नातक परीक्षा (एफएमजीई) पास करना अनिवार्य होता है.
विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2009 में विदेशी संस्थानों से मेडिकल डिग्री वाले 6,170 छात्र एफएमजीई में शामिल हुए. 2018 तक यह संख्या तीन गुना बढ़कर 21,351 हो गई.
हालांकि, एफएमजीई में हिस्सा लेने वाले छात्रों का उत्तीर्ण प्रतिशत बहुत कम होता है, और यह 20 प्रतिशत से नीचे ही रहा है.
लौटने वाले छात्रों के लिए अनिश्चितता की स्थिति
जंग के कारण उपजा वैश्विक सुरक्षा खतरा फिलहाल अनिश्चितकाल के लिए है, ऐसे में अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर लौटने वाले छात्रों के लिए आगे का रास्ता काफी चुनौतीपूर्ण नजर आ रहा है.
पानीपत निवासी 22 वर्षीय सुमित ने कहा कि 12 मार्च से ऑनलाइन कक्षाएं नई व्यवस्था बन सकती हैं, जब उनका यूक्रेनी कॉलेज फिर से खुलने वाला था. उन्हें उम्मीद है कि यूक्रेन की यूनिवर्सिटी इस संबंध में कुछ दिशानिर्देश जारी करेंगीं.
पांचवें वर्ष के मेडिकल छात्र ने कहा, ‘कोविड के दौरान हम संकट से जूझ रहे थे और तब कक्षाएं ऑनलाइन मोड में कर दी गई थीं.… अब फिर से हमसे वादा किया गया है कि हमारा कोर्स ऑनलाइन होगा. इसने हमारे इंटर्नशिप या व्यावहारिक अनुभव को बदल दिया है. फिलहाल हमारी सारी पढ़ाई-लिखाई केवल सैद्धांतिक है, जो हमारे लिए एक बड़ा नुकसान है.’
एक अन्य छात्र ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘हमारा भविष्य अब अनिश्चितता में घिरा है. हम नहीं जानते कि क्या व्यावहारिक अनुभव के बिना हम भारतीय चिकित्सा परीक्षा में बैठने के योग्य होंगे.’
21 वर्षीय छात्र ने कहा कि यूक्रेन से लौटे छात्र उम्मीद कर रहे हैं कि भारत सरकार उनकी परिस्थितियों को ध्यान में रखेगी और उनकी आगे की शिक्षा की व्यवस्था करेगी.
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