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Wednesday, 8 May, 2024
होमएजुकेशन‘बजट की कमी, लो-क्वालिटी कैंडिडेट'- क्यों देश के तमाम विश्वविद्यालय फैकल्टी की कमी से जूझ रहे हैं

‘बजट की कमी, लो-क्वालिटी कैंडिडेट’- क्यों देश के तमाम विश्वविद्यालय फैकल्टी की कमी से जूझ रहे हैं

शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक, 45 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में 6,549 पद खाली हैं. कई लोगों का मानना है कि एड-हॉक और गेस्ट फैकल्टी सदस्यों को समायोजित करना मददगार हो सकता है.

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नई दिल्ली: तमाम सेंट्रल यूनिवर्सिटी में फैकल्टी सदस्यों की कमी तो 1980 के दशक से ही बनी हुई है लेकिन रिक्तियों की यह संख्या साल दर साल बढ़ती ही जा रही है. शिक्षा मंत्रालय की तरफ से जुलाई के संसद में दिए गए एक जवाब में कहा गया था कि 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुल 6,549 फैकल्टी पद खाली हैं.

दिल्ली यूनिवर्सिटी 900 रिक्तियों के साथ सूची में सबसे ऊपर है, और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी 622 रिक्त पदों के साथ दूसरे नंबर पर है.

इस कमी की वजहों के बारे में सेंट्रल और स्टेट यूनिवर्सिटी के फैकल्टी सदस्यों के अपने-अपने तर्क है, जिसमें बजट की कमी, योग्य आवेदक न मिलना और विश्वविद्यालय दूरदराज के इलाकों में स्थित होना आदि शामिल हैं.

अधिकांश प्रोफेसरों का कहना है कि इस कमी के कारण उन पर शिक्षण कार्यों का बहुत ज्यादा बोझ होता है. उनका दावा है कि यूनिवर्सिटी में स्टाफ कम होने और कक्षाओं की क्षमता 100 से 150 तक बढ़ने के साथ उनके काम के घंटे बढ़कर 18 घंटे प्रति दिन तक हो गए हैं.

दिल्ली यूनिवर्सिटी में पिछले कुछ समय से ज्यादातर शिक्षण कार्य अस्थायी और एड-हॉक शिक्षकों के भरोसे चलता रहा है. लेकिन, उनका दावा है कि स्थायी शिक्षकों के चयन को लेकर यूनिवर्सिटी में गत अक्टूबर से जारी कवायद के बीच के कारण उनमें से करीब 70 फीसदी विस्थापित हो गए हैं.

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डीयू के एक एड-हॉक फैकल्टी मेंबर ने कहा कि यूनिवर्सिटी में सात साल तक पढ़ाने के बाद अब कोई जॉब सिक्योरिटी नहीं है. उन्होंने कहा, ‘हम किसी भी समय अपनी नौकरी गवां सकते हैं और तनावपूर्ण माहौल से हमारा कोई भला नहीं होने वाला है.’

केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सुभाष सरकार ने इस वर्ष शुरू में संसद में एक जवाब में बताया था कि शिक्षा मंत्रालय ने सभी केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों से 5 सितंबर 2021 से एक वर्ष की अवधि के भीतर मिशन मोड में रिक्तियां भरने को कहा है. साथ ही जोड़ा, ‘अगस्त 2021 से अब तक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 4,807 पदों के लिए विज्ञापन निकाला जा चुका है, और संबंधित चयन प्रक्रिया जारी है.’

हालांकि, एक साल की यह समयसीमा बीत चुकी है लेकिन स्थिति में सुधार के कोई संकेत नजर नहीं आ रहे.


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बजट, क्वालिटी और लोकेशन एक बड़ा मुद्दा

कुछ प्रोफेसरों का मानना है कि देश में योग्य प्राध्यापकों की कमी है, जबकि अन्य का मानना है कि रिक्तियां भरने के लिए एड-डॉक और गेस्ट फैकल्टी मेंबर्स को समायोजित किया जाना चाहिए.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में सहायक प्रोफेसर रोहित आजाद का मानना है कि इस समस्या से उबरने का सबसे सरल तरीका शिक्षा पर बजटीय खर्च बढ़ाना है. उन्होंने कहा, ‘जेएनयू के मास्टर्स डिपार्टमेंट में औसतन एक प्रोफेसर अकेले ही करीब 22 छात्रों को गाइड करता है. प्रश्नपत्र तैयार करने, वैकल्पिक प्रश्नपत्र पढ़ाने या प्रवेश परीक्षा तय करने जैसे कार्यों से प्रोफेसरों पर काम का और ज्यादा बोझ बढ़ गया है.’

उन्होंने कहा कि काम के बढ़ते बोझ के कारण प्रोफेसर पीएचडी छात्रों को प्रभावी ढंग से गाइड करने में सक्षम नहीं होंगे, जिससे योग्य शिक्षाविदों की संख्या कम होती जाएगी. वहीं, सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था अफोर्डेबल बनाए रखने की जरूरत पर जोर देते हुए उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा न होने पर अधिक योग्य उम्मीदवार विदेशी शिक्षा की ओर रुख करेंगे.

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति राजेन हर्षे की राय है कि देशभर में फैकल्टी वैकेंसी की एक बड़ी वजह लो-क्वालिटी कैंडिडेट भी हैं. उनका मानना है कि पर्याप्त योग्यता न रखने वाले उम्मीदवारों के चयन से यूनिवर्सिटी को नुकसान होता है.

उनका कहना है, ‘ऐसे उम्मीदवारों को खारिज करने से ज्यादा नुकसान उनका चयन करने से होता है. मैं ऐसी कई चयन समितियों के बोर्ड में रहा हूं जहां हमने किसी का चयन नहीं किया. ऐसे प्रोफेसर होना ज्यादा जरूरी हैं जिनका पूरा फोकस शिक्षण कार्य पर हो, उन्हें किसी विषय विशेष में विशेषज्ञता के आधार पर चुना जाना चाहिए न कि जाति, धर्म या राजनीति आदि के लिहाज से. विश्वविद्यालयों को राजनीतिक विचारकों की नहीं बल्कि ऐसे विद्वानों और वैज्ञानिकों की आवश्यकता है जो सामाजिक और प्राकृतिक वास्तविकताओं के निष्पक्ष आलोचक हों.’

हर्षे के मुताबिक, राजनीतिक मंशा और पीएचडी उम्मीदवारों का खराब प्रशिक्षण दो अलग-अलग लेकिन ऐसे प्रमुख फैक्टर हैं जो किसी उम्मीदवार को प्रोफेसर की भूमिका के लिए अनफिट बनाते हैं. उन्होंने कहा कि वह ‘इनब्रीडिंग’ या यूनिवर्सिटी के अपने यहां ही डॉक्टरेट पूरी करने वाले छात्रों को प्रोफेसरों के रूप में नियुक्त करने के खिलाफ रहे हैं. क्योंकि यह विकास की संभावनाओं को बाधित करता है.

कर्नाटक की सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पृथ्वी विज्ञान विभाग में डीन अली रजा मूसवी यूनिवर्सटी की लोकेशन को बड़ी वजह बताते हैं जो कलबुरगी के अलंद तालुका में कदगांची गांव में स्थित है.

तीन सेंट्रल यूनिवर्सिटी के साथ काम कर चुके मूसवी ने कहा, ‘2009 के संसदीय अधिनियम के तहत सभी 16 सेंट्रल यूनिवर्सिटी दूरस्थ ग्रामीण स्थानों में स्थापित की गई हैं, जिसे हम ‘बैक ऑफ बियॉन्ड’ भी कहते हैं.’

उन्होंने कहा कि कम छात्र और ‘ऑफ-ग्रिड’ भौगोलिक स्थिति की बात समझ से परे हैं, अगर प्रोफेसर यहां नौकरी ही नहीं करना चाहते. उन्होंने कहा, ‘एक यूनिवर्सिटी की लोकेशन बहुत महत्वपूर्ण है और बुनियादी ढांचा, क्वालिटी ऑफ लाइफ और शिक्षा की गुणवत्ता जैसे फैक्टर इससे ही तय होते हैं.’

उन्होंने कहा, बुनियादी ढांचा ‘सिर्फ इमारतों तक ही सीमित नहीं है बल्कि भोजन, इंटरनेट, कैंपस लाइफ, संचार और परिवहन तक पहुंच जैसी सुविधाएं भी देखी जाती हैं.’


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स्टेट यूनिवर्सिटी में हालात और भी ज्यादा खराब

स्टेट यूनिवर्सिटी के हालात तो और भी ज्यादा खराब हैं. बिहार जैसे राज्यों में तो छात्रों का दावा है कि पढ़ाई के चार-पांच सालों के बाद भी उन्हें डिग्री नहीं मिल पा रही है.

इस मामले में मगध यूनिवर्सिटी का उदाहरण सामने ही है. वाइस-चांसलर, प्रो-वाइस-चांसलर, रजिस्ट्रार और अन्य शीर्ष अधिकारियों को 30 करोड़ रुपये की वित्तीय धोखाधड़ी के आरोप में गिरफ्तार किए जाने के बाद यूनिवर्सिटी व्यावहारिक रूप से बंद हो गई है. यहां पर पंजीकरण कराने वाले छात्र पिछले पांच सालों से अपनी स्नातक डिग्री मिलने का इंतजार कर रहे हैं. इससे भी बदतर यह है कि इन पांच सालों में छात्रों को शिक्षकों की मौजूदगी वाली किसी कक्षा में बैठने का मौका तक नहीं मिला है.

दक्षिण क्षेत्र की बात करें तो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक मद्रास यूनिवर्सिटी में फैकल्टी के 65 प्रतिशत पद रिक्त हैं. नाम न छापने की शर्त पर संस्थान के एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने दिप्रिंट को बताया कि संस्थान गेस्ट फैकल्टी के भरोसे चल रहा है. किसी असिस्टेंट प्रोफेसर को औसतन 16 घंटे पढ़ाना होता है, हालांकि, काम बढ़ने के कारण शिक्षण समय कभी-कभी सप्ताह में दोगुना हो जाता है.

उन्होंने बताया, ‘ऐसे कई विभाग हैं जिनमें केवल एक या दो स्थायी फैकल्टी मेंबर हैं और बाकी काम गेस्ट लेक्चर से ही चल रहा है. करिकुलम डेवलपमेंट, प्रवेश प्रक्रियाओं और अन्य प्रमुख निर्णयों जैसी गतिविधियों के लिए मुझे अक्सर अन्य विभागों के प्रोफेसरों की सेवाएं लेनी पड़ती हैं जो कि संबंधित विषय के विशेषज्ञ नहीं होते हैं. यह कमी न केवल हमारे काम को प्रभावित करती है बल्कि छात्रों की पढ़ाई पर भी प्रतिकूल असर डालती है.’

इन गेस्ट फैकल्टी के लिए काम करने की स्थितियां भी आदर्श नहीं है. उन्हें प्रति माह करीब 20,000 रुपये वेतन मिलता है, यह राशि छुट्टियों के कारण देरी और कटौती में और भी घट जाती है. उक्त प्रोफेसर ने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि स्थायी पदों के लिए योग्य उम्मीदवारों की कमी है. गेस्ट फैकल्टी उल्लेखनीय संस्थानों से पीएचडी धारक हैं, यदि उन्हें पूर्णकालिक नियुक्ति मिले तो यह यूनिवर्सिटी के लिए बहुत मददगार होगी. डॉक्टरेट-डिग्री धारकों को इतना कम वेतन मिलना दुखद है, जबकि वे परमानेंट फैकल्टी के साथ शिक्षण की पूरी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं.’

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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