नई दिल्ली: भारत और अमेरिका के बीच 31 हाई आल्टीट्यूड लॉन्ग एंड्योरेंस (HALE) ड्रोन के लिए 3 अरब डॉलर का सौदा भारतीय सेना की लंबे समय से चली आ रही अभूतपूर्व निगरानी और हमले की क्षमता से लैस होने की इच्छा को अंतिम रूप देगा.
सौदे के तहत, नौसेना को समुद्री और पनडुब्बी रोधी युद्ध किट में 15 MQ9B ड्रोन मिलेंगे, जबकि थल सेना और भारतीय वायु सेना (IAF) में से प्रत्येक को इसी के 8-8 लैंड वर्ज़न मिलेंगे.
जबकि दोनों वेरिएंट में सशस्त्र होने का विकल्प है, रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि शुरुआत में सभी ड्रोन बिना हथियारों के होंगे.
एक सूत्र ने कहा, “इन ड्रोन्स में ज़मीन और समुद्र-आधारित ऑपरेशन के लिए विशेष सेंसर हैं. इनके लिए हथियार भी अलग-अलग हैं और प्रत्येक सेना की अपनी आवश्यकताएं हैं. उदाहरण के लिए, एक सेना को दुश्मन के ठिकानों को निशाना बनाने के लिए लंबी दूरी की मिसाइल की आवश्यकता है और वर्तमान में अमेरिकी सेना द्वारा उसका विकास किया जा रहा है.”
इन ड्रोन्स का उपयोग अल-कायदा चीफ अयमान अल-जवाहिरी जैसे लोगों को मारने से लेकर इराक, अफगानिस्तान और सीरिया जैसे विभिन्न संघर्ष क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर कई ऑपरेशनों में किया गया था. लेकिन, अमेरिका अन्य देशों के साथ अपनी तकनीक साझा करने से कतरा रहा है.
हालांकि, जैसे-जैसे अधिक से अधिक देशों ने ड्रोन तकनीक पर ध्यान केंद्रित किया और चीन सशस्त्र मानव रहित हवाई वाहनों (यूएवी) के दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक के रूप में उभरा है, अमेरिका ने अपने प्रतिबंधों में ढील दी है.
जून 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ एक बैठक के दौरान अमेरिका ने भारत को गार्डियन ड्रोन्स के सर्विलांस वैरिएंट को देने की पेशकश की. यह प्रस्ताव भारतीय नौसेना के लिए काफी खुशी वाला था.
भारत पहला नॉन-ट्रीटी पार्टनर था जिसे एमटीसीआर श्रेणी-1 मानवरहित हवाई प्रणाली – सी गार्डियन यूएएस की पेशकश की गई थी जो अमेरिकी फर्म जनरल एटॉमिक्स द्वारा निर्मित है.
जब बातचीत चल रही थी, सेना ड्रोन के एक आर्म्ड वर्ज़न के लिए कोशिश शुरू कर दी. अंततः 2019 में, ट्रम्प प्रशासन ने सशस्त्र ड्रोन की बिक्री को मंजूरी देकर प्रस्ताव को बेहतर बनाने का फैसला किया.
जब सबसे पहले HALE ड्रोन को शामिल करने का प्रस्ताव तैयार किया था, जो 40,000 फीट से अधिक की ऊंचाई पर 36 घंटे से अधिक की लगातार निगरानी कर सकता है, नौसेना को प्रमुख एजेंसी बनाया गया था, भले ही यह एक सभी सेनाओं के लिए था.
नौसेना को ड्रोन की आवश्यकता क्यों है?
नौसेना हेल ड्रोन चाहती थी क्योंकि हिंद महासागर क्षेत्र के विशाल विस्तार को निरंतर निगरानी की आवश्यकता है और P8i पनडुब्बी-रोधी और समुद्री टोही विमानों के अपने बेड़े पर निर्भरता को कम करना है.
हालांकि, जबकि रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) वर्षों से कई ड्रोन कार्यक्रमों पर काम कर रहा था, उसे अभी भी HALE पर काम करना बाकी था. और, इसलिए, नौसेना अमेरिकियों के साथ समझौते में रुचि रखती थी.
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चूंकि ड्रोन बहुत महंगे थे इसलिए लागत पर निगोसिएशन करना बहुत कठिन था, क्योंकि प्रत्येक की कीमत 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर के करीब थी, लेकिन, तीन साल पहले एक ऐसा मौका आया जब नई रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया 2020 शुरू की गई, जिसमें रक्षा उपकरणों को लीज़ पर देने की अनुमति दी गई.
इसके बाद नौसेना ने आपातकालीन खरीद के तहत तुरंत दो सी गार्डियंस को लीज़ पर लिया. पिछले साल नवंबर तक, दो लीज़ वाले ड्रोन्स ने दो वर्षों में भारतीय सुरक्षा मिशनों के समर्थन में 10,000 उड़ान घंटे पूरे किए.
दिलचस्प बात यह है कि भले ही नौसेना इन ड्रोनों का संचालन करती है, लेकिन उन्हें अन्य बलों की आवश्यकताओं के मद्देनज़र पाकिस्तान के साथ पश्चिमी सीमाओं और चीन के साथ उत्तरी सीमाओं पर तैनात किया गया है.
सी गार्डियन समुद्र की सतह के ऊपर और नीचे रियल टाइम सर्च और गश्त को संभव बना सकता है.
अपने ओपन आर्किटेक्चर सिस्टम के कारण, सी गार्डियन ऑपरेटर सोनोबॉय मैनेजमेंट एंड कंट्रोल सिस्टम (एसएमसीएस) व सोनोबॉय डिस्पेंसर सिस्टम (एसडीएस) को इंटीग्रेट कर सकते हैं जो पनडुब्बियों को ट्रैक करने में मदद करते हैं.
सेना और वायुसेना को ये ड्रोन क्यों चाहिए?
जबकि दोनों सेनाओं को 8-8 ड्रोन मिलने हैं, थल सेना इसको लेकर अधिक उत्सुक है लेकिन वायुसेना ने शुरू में ऐसे ड्रोन की आवश्यकता पर सवाल उठाया था.
सूत्रों ने बताया कि जरूरत पड़ने पर संभावित हमलों को अंजाम देने के लिए गहन निगरानी के लिए सेना को इन ड्रोनों की जरूरत है. सूत्रों ने बताया कि इन ड्रोनों को सीमावर्ती इलाकों की निगरानी के लिए तैनात किया जाएगा.
सेना ड्रोन पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रही है. सेना जिन ड्रोनों में रुचि रखती है और उन्हें शामिल करना शुरू कर दिया है, उनमें छोटे सामरिक निगरानी वाले से लेकर लंबी दूरी के और उच्च ऊंचाई वाले, सशस्त्र और कामिकेज़ ड्रोन के लिए विशेष प्रणालियों के अलावा रसद के लिए ड्रोन शामिल हैं.
दिप्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार, सेना ने 2020 के अंत में अपनी ड्रोन नीति में पहला बड़ा बदलाव किया, जब उसने अपने बेड़े के सभी संचालन जिसमें आर्टिलरी से इजरायली सर्चर और हेरॉन यूएवी शामिल थे, को अपने विमानन कोर को सौंपने का फैसला किया. इससे सेना की समझ में बुनियादी बदलाव का संकेत मिला कि वह ड्रोन या यूएवी के भविष्य को कैसे देखती है.
जब ड्रोन पहली बार 2000 के दशक की शुरुआत में खरीदे गए थे, तो उनका उपयोग मुख्य रूप से टार्गेट साइटिंग के लिए किया गया था.
लेकिन LAC गतिरोध ने सब कुछ बदल दिया
वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर निगरानी के लिए हेरोन्स का प्रयोग करने वाली आर्मी ने आगे बढ़कर और चार नवीनतम इजरायली यूएवी खरीदे, जो उपग्रह से जुड़े हुए हैं. इसका मतलब यह था कि हेरोन्स लंबे मिशनों को अंजाम दे सकते थे.
सेना के सूत्रों ने ड्रोन्स को ‘फोर्स मल्टीप्लायर टेक्नॉलजी’ बताया और कहा कि सैनिकों को कड़ाके की ठंड में शारीरिक रूप से गश्त करने के बजाय, ड्रोन्स जमीन की निगरानी करेंगे.
सूत्रों ने कहा कि आर्मी में उत्साह के विपरीत, वायुसेना को लगता है कि ड्रोन बहुत महंगे हैं और भारत, चीन व पाकिस्तान के घने प्रतिस्पर्धी हवाई क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पाएंगे.
दिप्रिंट ने मार्च 2021 में रिपोर्ट दी थी कि भारतीय वायुसेना अंततः ड्रोन की खरीद के लिए नौसेना और आर्मी के साथ आ गई है. भारतीय वायुसेना की आवश्यकताओं में से एक ड्रोन्स की तुलना में लंबी दूरी की मिसाइल थी.
इस बीच, भारतीय सेना IAF के प्रोजेक्ट चीता पर भी नजर रख रही है, जिसके तहत तीनों सेनाओं के साथ हेरॉन मध्यम-ऊंचाई वाले लॉन्ग-एंड्योरेंस ड्रोन बेड़े को सशस्त्र यूएवी में अपग्रेड करने के लिए न्यूनतम 5,500 करोड़ रुपये का अनुबंध किया जा रहा है.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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