नई दिल्ली: इस महीने के अंत में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भारत की रणनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण परियोजनाओं में से एक- देश के 6.5- जनरेशन एडवांस मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एएमसीए) को पावर देने वाले 120-केएन (किलो न्यूटन) इंजन का विकास- की समीक्षा करने वाले हैं.
अगले दशक के भीतर लड़ाकू जेट के भारतीय वायु सेना के मानवयुक्त सामरिक बेड़े की आधारशिला बनने की उम्मीद है.
लेकिन मुश्किल ये है कि भारत के सबसे महत्वाकांक्षी नियोजित विमान को चलाने के लिए कोई स्वदेशी जेट इंजन नहीं है.
फ्रांसीसी इंजन की दिग्गज कंपनी Safran, राफेल ऑफसेट अनुबंध के हिस्से के रूप में इंजन बनाने के लिए आवश्यक तकनीक को स्थानांतरित करने के लिए एक बिलियन यूरो से अधिक की मांग कर रही है.
जब 2016 में भारत के साथ 7.8 बिलियन यूरो के राफेल सौदे पर हस्ताक्षर किए गए थे, तो फ्रांस ने सौदे के बदले में भारत में 50 प्रतिशत या 3.9 बिलियन यूरो का निवेश करने वादा किया था.
1बिलियन यूरो का सौदा भारत के जेट-इंजन वैज्ञानिकों के साथ-साथ वायु सेना के लिए देश के अपने स्वयं के लड़ाकू जेट इंजन का निर्माण करने में विफलता की दर्दनाक याद को ताजा कर देता है.
देश ने अंतरिक्ष कार्यक्रम के साथ-साथ मिसाइलों के लिए पावर प्लांट के उत्पादन में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है. हालांकि, स्वदेशी लड़ाकू जेट-इंजन विकसित करने में सफलता हाथ न आने वाली रही है.
सरकारी सूत्रों ने कहा कि भारत अब भविष्य के विमानों के लिए एक नया जेट इंजन बनाने के लिए फ्रांस के साथ संयुक्त रूप से काम करने की संभावना तलाश रहा है. पिछले साल, ब्रिटिश फर्म रोल्स-रॉयस ने दिप्रिंट को बताया था कि वह एएमसीए के लिए इंजन के सह-विकास और निर्माण पर भारत के साथ काम करने का इच्छुक है.
हालांकि सरकार फ्रांस के साथ सौदा करने के लिए उत्सुक है. आधिकारिक सूत्रों ने कहा, यह एक ऐसे देश के साथ सहयोग को और मजबूत बनाना है, जो भारत के अत्याधुनिक सैन्य प्रौद्योगिकी के सबसे महत्वपूर्ण प्रदाताओं में से एक रहा है.
लड़ाकू जेट-इंजन चुनौती
कुछ देश लड़ाकू विमानों के लिए जेट इंजन बनाने के लिए आवश्यक जटिल तकनीक हासिल करने में सफल रहे हैं.
कुछ समय पहले तक सिर्फ चीन का पांचवीं पीढ़ी का J-20 फाइटर – जिसे ‘माइटी ड्रैगन’ के रूप में भी जाना जाता है – मूल रूप से रूसी निर्मित AL31F इंजन से लैस था. और फिर उसके बाद WS-10 ताइहांग था.
1980 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका से आयातित CFM-56II टर्बोफैन इंजन से मिला WS-10 पॉवर और रखरखाव की पुरानी समस्याओं से जूझ रहा था.
WS-10 को अधिक शक्तिशाली और आधुनिक WS-15 से बदलना शुरू कर दिया गया. लेकिन कुछ विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक यह अभी भी आधुनिक पश्चिमी जेट-इंजन तकनीक की एक जेनरेशन से पीछे है.
बोइंग 747 असैनिक विमान को चलाने वाले इंजनों में कम से कम 40,000 पार्ट होते हैं. कंबुस्शन चैंबर में तापमान 1,400ºC तक जा सकता है.
एक अमेरिकी गैर-लाभकारी ग्लोबल पुलिस थिंक टैंक, रैंड कॉर्पोरेशन के विशेषज्ञ टिमोथी हीथ के अनुसार, इन उच्च-स्तरीय तकनीकों में महारत हासिल करना इतना कठिन है कि बहुत कम देश ही इसमें सफल हो पाते हैं.
देखा जाए तो कुछ अर्थों में लड़ाकू जेट-इंजनों के निर्माण की क्षमता देश के मिलिट्री-इंडस्ट्रीयल बेस की सच्ची परीक्षा है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सभी पांच स्थायी सदस्य – संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस – उन्नत इंजन बनाने में माहिर हैं.
हालांकि जापान और जर्मनी जैसे कुछ देशों के पास भी ऐसी तकनीक है, इस विशिष्ट क्लब के बाहर कुछ ही देश सफल लड़ाकू जेट इंजन का निर्माण कर पाए हैं.
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तकनीक में महारत हासिल करने के असफल प्रयास
अपने पहले स्वदेशी लड़ाकू एचएफ-24 मारुत के सामने आने वाली समस्याओं के बाद भारत ने स्वयं के लड़ाकू जेट-इंजन के बारे में सोचना शुरु किया था.
मारुत को ब्रिस्टल ऑर्फियस 12 इंजन द्वारा संचालित किया जाना था. जब इंजन विकसित करने की उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की परियोजना ध्वस्त हो गई तो भारत को कम शक्तिशाली ब्रिस्टल ऑर्फियस 703 को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
बेंगलुरु में गैस टर्बाइन रिसर्च एस्टैब्लिशमेंट (GTRE) ने अंततः आफ्टरबर्नर के साथ ऑर्फियस 703 का एक संस्करण तैयार किया ताकि इंजन की शक्ति बढ़ जाए. हालांकि इंजन मारुत के एयरफ्रेम के लिए अनुपयुक्त साबित हुआ या अगर इसे छोड़ दे तो ये विमान अपने आप में सर्वश्रेष्ठ था.
1983 में सरकार ने 560 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से मल्टी-रोल लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (LCA) पर काम करने को मंजूरी दी थी. एलसीए सोवियत में बने मिग -21को बदलने के लिए था.
भारत और विदेशों में किए गए व्यवहार्यता अध्ययनों से पता चला है कि जब दुनिया में कहीं भी पूरी तरह से उपयुक्त इंजन उपलब्ध नहीं था, रोल्स-रॉयस आरबी- 1989 और जनरल इलेक्ट्रिक F404-F2J इंजन अधिकांश आवश्यकता को पूरा करते थे.
1982 से GTRE, स्वदेशी GTX-37 इंजन पर काम कर रहा था. और फिर इसे LCA पर अपनाने के लिए जोर दिया गया.
चार साल बाद, एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड और जीटीआरई ने जीटीएक्स-37 का मूल्यांकन करने के लिए संयुक्त रूप से एक अध्ययन किया.
दिसंबर 1986 में, GTRE ने LCA के लिए स्वदेशी कावेरी इंजन बनाने का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव के आधार पर सरकार ने मार्च 1989 में 382.86 करोड़ रुपये की परियोजना की मंजूरी दी थी.
जबकि जीटीआरई ने नौ प्रोटोटाइप कावेरी इंजनों के साथ-साथ चार कोर इंजन विकसित किए जिनका 3,217 घंटे परीक्षण किया गया था. पर वे एक लड़ाकू विमान को पावर देने के जरूरी मापदंडों को पूरा करने में विफल रहे.
कावेरी ने 81 kN के’वेट थ्रस्ट’ की बजाय सिर्फ 70.4 kN उत्पन्न किया था. जब एक लड़ाकू विमान को ज्यादा पावर की जरूरत होती है तो इंजन उसे थर्स्ट दे सकता है
नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने 2011 में जारी कड़ी आलोचना वाली रिपोर्ट में कहा था, ‘642 प्रतिशत की लागत में वृद्धि और लगभग 13 वर्षों की देरी के बावजूद जीटीआरई एक इंजन देने में असमर्थ रहा है जो एलसीए को पावर दे सकता था.’
रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘परियोजना को अब इंजन के आगे के विकास के लिए एक विदेशी कंपनी के साथ एक संयुक्त उद्यम में प्रवेश करने के विकल्प का सामना करना पड़ रहा है.’
बड़ी संख्या में अन्य महत्वपूर्ण परियोजनाओं को भी इसी तरह विदेशी कंपनियों का हाथ पकड़ना पड़ा.
स्कोलर एरिक अर्नेट ने उल्लेख किया है, एडवांस लाइट हेलीकाप्टर एक भारतीय-डिज़ाइन और भारतीय-निर्मित हेलीकॉप्टर होना था. लेकिन हेलीकॉप्टर में इस्तेमाल किया जाने वाला पावर इंजन फ्रांसीसी फर्म टर्बोमका के साथ सह-डिजाइन किया गया था.
पुराने इंजनों के लिए नई भूमिकाएं
कावेरी इंजन को अब ड्रोन जैसे अन्य तकनीकों में इस्तेमाल के लिए फिर से डिजाइन किया जा रहा है.
डीआरडीओ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘कावेरी परियोजना ने हमें कई महत्वपूर्ण तकनीकी डोमेन में महारत हासिल करने में मदद की है और इस परियोजना के कारण, स्वदेशी 80-केएन श्रेणी के इंजनों के डिजाइन, विकास, निर्माण, संयोजन, परीक्षण और योग्यता के लिए देश के भीतर इकोसिस्टम मौजूद है.’
अधिकारी ने आगे कहा, ‘इसके अलावा, कावेरी प्रोजेक्ट के जरिए हासिल की गई तकनीकी क्षमताएं एएमसीए जैसे हाइर-थर्स्ट इंजनों के विकास में बहुत उपयोगी हो सकती हैं’ उन्होंने आगे कहा, जब कुछ नया बनाने की बात आती है तो हमेशा कठिनाइयों का पार करना होता है.’
विशेषज्ञों का कहना है कि समस्याएं धातु विज्ञान, विनिर्माण बुनियादी ढांचे और परीक्षण सुविधाओं में अंतराल से लेकर भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद महत्वपूर्ण तकनीकों को देने से इनकार करने तक थीं. एक अन्य अधिकारी ने कहा, ‘और कोई भी देश, यहां तक कि हमारे सबसे करीबी दोस्त भी जेट इंजन के लिए तकनीक में सहयोग देने के उत्सुक नहीं थे’
सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत की जेट-इंजन की तलाश में इस क्षेत्र में माहिर वैज्ञानिकों की कमी का भी सामना करना पड़ा था. रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘ प्रोजेक्ट को मंजूरी के समय में जितनी प्रशिक्षित मैनपावर को स्वीकृत दी गई थी, जीटीआरई को लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उसे लगभग दोगुना करना पड़ा था।’
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘आज भी संस्थान की वैज्ञानिक और तकनीकी शाखा में कर्मचारियों की कमी है, जो प्रोजेक्ट प्रगति को प्रभावित कर रही हैं.’
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