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Saturday, 21 December, 2024
होमडिफेंसनई मार्चिंग धुनें, 1947 से पहले के अब कोई युद्ध सम्मान नहीं- सशस्त्र सेनाएं बनेंगी ज़्यादा ‘भारतीय’

नई मार्चिंग धुनें, 1947 से पहले के अब कोई युद्ध सम्मान नहीं- सशस्त्र सेनाएं बनेंगी ज़्यादा ‘भारतीय’

भारतीय युद्ध नायकों पर ज़्यादा बल दिया जाएगा, और सैन्य अध्ययन में अर्थशास्त्र जैसे लेख शामिल किए जाने पर विचार चल रहा है. प्रयास ये है कि अगले साल, आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर, इन बदलावों को लागू कर दिया जाए.

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नई दिल्ली: सेना के बैण्ड की धुनों आज़ादी से पहले के युद्ध सम्मान और मेस के तौर-तरीक़ों में बदलाव और सैन्य अध्ययन में भारतीय युद्ध नायकों पर ज़्यादा बल- दिप्रिंट को पता चला है कि ये कुछ ऐसे बदलाव हैं, जिनपर भारतीय सशस्त्र बल सेनाओं के भारतीयकरण को बढ़ावा दिए जाने के प्रयासों के तहत विचार कर रहे हैं.

फिलहाल, सैन्य बैण्ड्स की काफी धुनें ब्रिटिश मूल की हैं. इनमें से कुछ धुनें लंबे समय से चली आ रही परंपराओं का हिस्सा भी बन गई हैं और इन्हें विशेष समारोहों पर बजाया जाता है. मसलन, ऑल्ड लैंग साइन तथा अबाइड विद मी, क्रमश: हर पासिंग आउट परेड, और बीटिंग द रिट्रीट समारोह में बजाई जाती हैं.

रक्षा सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया, कि इस बात पर ग़ौर चल रहा है, कि क्या इनमें से कुछ प्रतिष्ठित धुनों की जगह, कुछ उपयुक्त भारतीय धुनें लाई जा सकती हैं, जो वही संदेश देती रहेंगी.

एक शीर्ष रक्षा सूत्र ने दिप्रिंट को बताया, ‘इनमें से कुछ धुनों को बदलने की तलाश शुरू हो गई है. कोशिश ये है कि इन बदलावों को, अगले साल तक लागू कर दिया जाए, जब भारत आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ का जश्न मनाएगा.’

सूत्रों ने कहा कि इस पर भी ग़ौर हो रहा है कि क्या आज़ादी से पहले के कुछ युद्ध सम्मानों को ख़त्म करना बुद्धिमानी होगी, जो यूनिट्स को लड़ाइयों के दौरान, आसाधारण सामूहिक वीरता दिखाने के दिए गए थे. सशस्त्र बलों की एक महत्वपूर्ण परंपरा है लड़ाई में सैनिकों की बहादुरी का जश्न मनाना और इसे युद्ध सम्मान दिवस के रूप में मनाया जाता है.

इनमें से बहुत से सम्मान, उस समय की ब्रिटिश भारतीय सेना की इकाइयों को, स्थानीय भारतीय राजाओं के खिलाफ लड़ने के लिए दिए गए थे. मसलन, यूनिट्स को 1857 में अंग्रेज़ों के खिलाफ भारत की पहली क्रांति के दौरान, युद्ध सम्मान दिए गए थे, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ लड़ाई भी शामिल थी.

कुछ सम्मान दो विश्व युद्धों, तथा दूसरी लड़ाइयों के दौरान भी जीते गए, जैसे कि ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ हायफा का युद्ध.

सूत्रों ने कहा कि जहां ब्रिटिश ज़माने के मेस के तौर-तरीक़ों में, जो ख़ासकर डिनर नाइट्स – बैठकर किए जाने वाले औपचारिक डिनर्स- के दौरान अपनाए जाते हैं, आज़ादी के बाद से काफी बदलाव किए गए हैं, वहीं अब इस ग़ौर किया जा रहा है, कि क्या इनमें और अधिक बदलाव लाए जा सकते हैं.


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एक दूसरे रक्षा सूत्र ने दिप्रिंट से कहा, कि देश की सैन्य स्टडीज़ में ज़्यादातर, प्राचीन चाइनीज़ मिलिटरी ट्रीटीज़ आर्ट ऑफ वॉर के लेखक, सन त्ज़ू के लेखों का उल्लेख होता है, और साथ ही लिडल हार्ट जैसे ब्रिटिश रणनीतिकार, और जर्मन जनरल क्लॉजविट्स का ज़िक्र होता है, जबकि कौटिल्य केअर्थशास्त्र जैसी देसी रचनाओं का उल्लेख, अपेक्षाकृत कम रहता है.

सूत्र ने कहा, ‘(भविष्य में) रणनीतिक स्टडीज़ में इसपर ज़्यादा बल दिए जाने की संभावना है’.

इसके अलावा, भारतीय महाकाव्यों में स्थापित रणनीतियों का भी, ज़्यादा गहराई से अध्ययन किया जाएगा, और साथ ही – छापामार युद्ध के लिए- शिवाजी की युद्ध-नीतियों, तथा नौसैनिक युद्ध के लिए राजा चोला पृथम और उसके पुत्र राजेंद्र चोला की रणनीति भी पढ़ी जाएगी. सूत्रों ने कहा कि सेना में, भारतीय भाषाओं पर भी ज़्यादा बल दिया जाएगा.

इनमें से कुछ विचारों पर, पहले भी चर्चा की जा चुकी है. लेकिन इन योजनाओं और चर्चाओं में, फिर से जान तब पड़ी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च में, गुजरात के केवड़िया में आयोजित, संयुक्त कमांडर सम्मेलन में बोलते हुए, राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली में स्वदेशीकरण को बढ़ावा देने की बात की. ये स्वदेशीकरण सिर्फ उपकरण और हथियार हासिल करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि तीनों सेवाओं में प्रचलित सिद्धांतों, तौर-तरीक़ों, और परंपराओं में भी अपेक्षित है.

तीन-दिवसीय सम्मेलन के पहले दिन, और तीसरे दिन के एक अलग सत्र में, रक्षा सेवाओं में परंपराओं और संस्कृति के स्वदेशीकरण के विषय पर, चर्चा भी आयोजित की गई थी.

लेकिन, मेजर जनरल बीरेंदर धनोआ (रिटा) ने दिप्रिंट से कहा, कि दुनिया भर की सेनाएं एक ही तरह के, उपकरण तथा ट्रेनिंग पैटर्न का पालन करती हैं, जो आधुनिक युद्ध के लिए ज़रूरी होता है, और साथ ही अपनी संस्कृति तथा अनुभवों का सहारा लेती हैं. उनका मानना है कि सशस्त्र बलों में किए जाने वाले बदलाव, राजनीति से प्रेरित नहीं होने चाहिएं.

2016 में कॉम्बैट पेपर में भी चर्चा हुई थी

आर्मी वॉर कॉलेज महू में 2016 में प्रकाशित, इंटरप्रेटिंग एंशिएंट इंडियाज़ स्ट्रैटजिक मिलिटरी कल्चर शीर्षक से एक पेपर में, महाभारत और अर्थशास्त्र से उदाहरण लेकर, प्राचीन और आधुनिक समय के, युद्ध और शासन कला के पहलुओं के, आपसी संबंधों पर रोशनी डाली गई है.

रक्षा सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया, कि पेपर में कहा गया था कि ‘अर्थशास्त्र, महाभारत तथा अन्य साहित्य में पाए जाने वाले, स्वदेशी रणनीतिक विचार और युद्ध कला, न केवल भारतीय मानस के चेतन में बसे हैं, बल्कि आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं’.

उसमें कुछ धर्म-ग्रंथों को भी सूचीबद्ध किया गया था, जिन्हें प्राचीन शासन कला, तथा भारतीय सैन्य विचारों के स्रोत के तौर पर, इस्तेमाल किया जा सकता है. इसमें धनुर्वेद भी शामिल था (जिसमें रक्षा योजना, युद्ध-नीति, रक्षा बलों का गठन, रक्षाकर्मियों का चयन और प्रशिक्षण, सैन्य-व्यूह, लड़ाई का विभाजन, उपकरण, लंबी दूरी के हथियार आदि शामिल हैं).

पेपर में मनुस्मृति के 7वें अध्याय का भी हवाला दिया गया था, और कहा गया था कि इसमें शासन कला तथा युद्ध के नियम, शुक्र नीति (जिसमें उसके अनुसार ऋषि शक्राचार्य की सैन्य सूक्तियों का उल्लेख है) और अग्नि पुराण, ब्रह्म पुराण, तथा ब्रह्मानंद पुराण जैसे पुराणों की बात की गई है, जिनका संबंध कूटनीति तथा युद्ध के सिद्धांतों से है.

पेपर में भारत में अलग अलग युगों में, सैन्य रणनीति के विकास पर चर्चा की गई है, और कौटिल्य की सूचना युद्ध रणनीति पर बल दिया गया है, जो युद्ध एवं विदेश नीतियों की भारतीय कला है.

‘सेना को सावधान रहना होगा’

लेकिन मेजर जनरल धनोआ (रिटा) ने, ऐसे बदलाव करते समय सावधानी बरतने की सलाह दी.

दिप्रिंट से बात करते हुए, पूर्व सैन्य अधिकारी ने कहा, कि एक विश्वास है, जो पूरी तरह निराधार नहीं है- ‘लेकिन उसके कारण वो नहीं हैं, जो राजनेताओं ने उन्हें समझा है’- कि भारतीय सेना अभी तक ऐसी परंपराओं, और रीति रिवाजों से चिपकी हुई है, जो पुराने पड़ चुके हैं, और एक औपनिवेशिक अतीत के अवशेष हैं, जिनका ‘नए भारत’ में कोई स्थान नहीं है.

उन्होंने कहा कि सेना वैसे भी पुराने नियम और वर्दियां बदल रही है, जो आधुनिक भारत के लिए ज़्यादा उपयुक्त हैं, और कुछ पुरानी पड़ चुकी परंपराओं को त्याग रही है. उन्होंने कहा, ‘ये एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो बाहर वालों को बहुत दिखाई नहीं पड़ती’.

मे.जन. धनोआ ने कहा कि ऑफिसर्स मेस के मामलात, जिस तरह रेजिमेंट सिस्टम बना हुआ है, उसमें ‘कभी कभी कथित रूप से’ मातहतों और अफसरों के बीच विभाजन से भी, एक ग़लत मान्यता पैदा हो जाती है, कि सेना औपनिवेशिक विचारों के साथ चिपकी रहती है, जो सही नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘जहां तक ऐसे सिद्धांतों और नेतृत्व की मिसालों का सवाल है जो भारतीय हों, तो हम एक ज़माने से ऐसा करते आ रहे हैं, और साथ ही दूसरों के श्रेष्ठ आचरण, तथा सिद्धांतों को भी आत्मसात कर रहे हैं. दुनिया भर की सेनाएं एक ही तरह के उपकरण, तथा प्रशिक्षण पैटर्न का पालन करती हैं, चूंकि आधुनिक युद्ध की मांग यही है’.

उन्होंने कहा, ‘लेकिन फिर आप अपनी ख़ुद की संस्कृति, और अनुभवों का भी इस्तेमाल करते हैं, ताकि आपके लोग उन चीज़ों को अपनाकर इस्तेमाल कर सकें, जो आपके लिए काम करती हैं. इसलिए शिक्षण के अपने स्कूलों में, हम एक ज़माने से ये करते आ रहे हैं, और ये कोई नया विचार नहीं है’. उन्होंने आगाह किया कि ज़ाहिरा तौर पर अच्छे दिखने वाले ये सुझाव, ‘राजनीति से भरे’ हैं, और सेना को सावधानी बरतनी होगी, कि क्या वो एक दिशा में केवल इसलिए जा रही है, कि ये ‘समय के मिज़ाज की मांग है’.

उन्होंने कहा, ‘सेना को अपना चरित्र अराजनीतिक बनाए रखना होगा, और अपनी इस क्षमता को बनाए रखना होगा, कि वो वही करे जो संविधान और राज्य उससे अपेक्षा करता है, और इसके लिए ज़रूरत है कि अच्छे विचार ग्रहण किए जाएं, और विनम्रता लेकिन दृढ़ता के साथ, उन विचारों के लिए मना कर दिया जाए, जो उसके दार्घ-कालिक हित में नहीं हैं’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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