मेरठ/औली: दस्ताने पहने हाथ पर बैठी एक काली चील आदेश का इंतजार कर रही है. जैसे ही वह क्षण आता है, वह आसमान की ओर उड़ान भरती है, और तब तक नीचे नहीं आती जब तक कि वह अपने शिकार को अपने पंजे में नहीं ले लेती. और फिर वह तेजी से नीचे की तरफ झपट्टा मरती है, और यह फिर उसके बदकिस्मत – और असंभाव्य – शिकार, एक क्वाडकॉप्टर ड्रोन, के लिए सब कुछ ख़त्म हो जाता है. अपने पंजों से पकड़े गए उपकरण को नीचे खींचने के बाद, वह अपने मिशन के दूसरे भाग, निगरानी, को पूरा करने के लिए एक बार फिर से उड़ती है.
यह सारा दृश्य उत्तराखंड के औली में चल रहे भारत-अमेरिकी सैन्य युद्ध अभ्यास के दौरान देखा गया. दुश्मन के ड्रोन के खतरे को देखते हुए और ट्रैक किए जाने की चिंता के बिना गहन निगरानी करने की आवश्यकता के साथ सेना बूट कैंप के माध्यम से ‘आकाशी रंगरूटों’ के झुंड को खड़ा कर रही है.
मेरठ स्थित रिमाउंट वेटरनरी कॉर्प्स (आरवीसी) केंद्र काली चीलों और बाज़ों को क्वाडकोप्टर को हवा में ही मार गिराने के लिए चुपचाप से प्रशिक्षित कर रही है – चार रोटर वाला एक प्रकार का हेलीकॉप्टर, जो अब छोटे मानव रहित हवाई वाहनों (यूएवी) या ड्रोन के लिए एक लोकप्रिय डिज़ाइन है.
रक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े एक सूत्र ने कहा, ‘इन चीलों ने प्रशिक्षण के दौरान उनमें से कई सौ (क्वाडकॉप्टर) को नीचे गिरा दिया, कई बार तो उन्हें पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया था. चूंकि ये क्वाडकॉप्टर हैं, इसलिए अब तक कोई भी चील घायल नहीं हुई है.’
सूत्रों ने कहा कि इनमें से अधिकांश पक्षियों को बचाया गया था और वे फाल्कन रेस्क्यू एंड रिहैबिलिटेशन सेंटर का हिस्सा हैं. साल 2020 के बाद से पक्षी बड़ी संख्या में इस मिशन के तहत प्रशिक्षण में शामिल रहे हैं.
और यह देखते हुए कि संभावित दुश्मनों द्वारा सीमा पार, और साथ ही उनके अपनी सीमा के भीतर, उपयोग किए जाने वाले आधुनिक ड्रोन अब आकार में बड़े हो रहे हैं, आरवीसी के प्रशिक्षक इन पक्षियों को उनकी निगरानी के लिए भी प्रशिक्षित कर रहे हैं. इसी मकसद से पक्षियों द्वारा वीडियो रिकॉर्ड करने के लिए उनके सिर पर कैमरे लगाए जाते हैं. हालांकि, फ़िलहाल ये छोटे कैमरे हैं जो लाइव फीड को रिले नहीं कर सकते हैं, मगर आगे का विचार यह है कि पक्षियों द्वारा प्रशिक्षण जारी रखे जाने के साथ ही धीरे-धीरे उनकी क्षमता बढ़ाई जाए.
एक अन्य सूत्र ने बताया,’ये पक्षी बहुत टेरीटोरियल (स्थानिक) हैं. जब हम उन्हें किसी विशेष क्षेत्र में लॉन्च करते हैं, तो वे स्वयं अपने क्षेत्र का घेरा बना लेते हैं. समय के साथ, यह घेरा बढ़ता रहता है और पक्षी एक बड़े क्षेत्र की निगरानी करने में सक्षम हो जाता है.’
सूत्रों ने बताया कि यह प्रशिक्षण सकारात्मक सुदृढ़ीकरण के माध्यम से दिया जा रहा है, जिसमें प्रत्येक पक्षी को एक हैंडलर को सौंपा गया है. मगर, ये सारे प्रयास अभी भी प्रशिक्षण के स्तर पर हैं और इन पक्षियों को सक्रिय रूप से तैनात नहीं किया गया है.
पहले सूत्र ने कहा, ‘जब हम उनके प्रदर्शन से पूरी तरह संतुष्ट हो जाएंगे, तभी हम उन्हें सक्रिय रूप से तैनात करेंगे.’
आरवीसी, जिसने सशस्त्र बलों में कुत्तों के प्रशिक्षण और तैनाती में महारत हासिल की है, को उम्मीद है कि ये चीलें अपना काम बेहतरीन तरीके से कर लेंगे.
नीदरलैंड्स ने साल 2016 में ड्रोन को नीचे खींचने के लिए चीलों का उपयोग करने के लिए सुर्खियां बटोरी थीं और इसे ‘एक हाई-टेक समस्या का लो-टेक समाधान’ कहा था. ड्रोन तकनीक पर दिया जा रहा जोर – आक्रामक और रक्षात्मक संचालन दोनों भूमिकाओं में – वैश्विक युद्ध में यूएवी के बढ़ते उपयोग की प्रतिक्रिया है.
मगर, इन शीर्ष स्तर के हवाई शिकारियों की क्षमता को और पैनी करने वाली पहली भारतीय एजेंसी भारतीय थल सेना नहीं है. जुलाई 2020 में, तेलंगाना सरकार ने एक आदेश जारी कर राज्य के गृह विभाग को वीआईपी कार्यक्रमों के दौरान दिखाई देने वाले अवैध ड्रोन को मार गिराने के लिए बाजों के एक स्क्वाड को प्रशिक्षित करने के लिए कहा था.
तेलंगाना गृह विभाग कथित तौर पर मोइनाबाद स्थित एकीकृत खुफिया प्रशिक्षण अकादमी (इंटीग्रेटेड इंटेलिजेंस ट्रेनिंग अकादमी) में ‘गरुड़ स्क्वॉड’ नाम के दस्ते के रूप में इन पक्षियों को प्रशिक्षित करेगा. शुरूआती आदेश के अनुसार 31 मार्च 2021 तक दो प्रशिक्षकों की नियुक्ति की जानी थी.
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इस तरह के चलन पर एक सरसरी निगाह
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना की पिजन आर्मी (कबूतर सेवा) के एक मेजर ने एक बार सेना में शामिल पक्षियोंकी तुलना नागरिकों के हाथों में बंदूकों से की थी. उन्होंने कथित तौर पर कहा था, ‘आपको शायद इसकी कभी जरूरत न पड़े. पर अगर आपको इसकी जरूरत होती है, तो आपको इसकी सख्त जरूरत होगी.’
सैन्य संचार के सबसे पुराने साधनों में से एक माने जाने वाले पक्षियों का अपनी गति और घर वापस आने की क्षमता के कारण सैन्य और खुफिया कार्यों में उपयोग किए जाने का एक लंबा इतिहास रहा है.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्हें बड़े पैमाने पर तैनात होते देखा गया था. ब्रिटिश सेना ने पूरे युद्ध के दौरान सैकड़ों कबूतरों का उपयोग ख़ुफ़िया जानकारी देने और युद्ध के मैदान से समाचारों को भेजने के लिए किया था.
कुछ को काउंटर-स्पाई (दोहरे जासूस) के रूप में भी इस्तेमाल किया गया था: जर्मनों ने अपने कबूतरों को मित्र देशों के कबूतरों की तरह दिखने के लिए चोरी छिपे फ्रांस में घुसाने की कोशिश की थी. इस युद्ध के एक अन्य थिएटर में, सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) की पूर्ववर्ती एजेंसी, अमेरिकन ऑफ़िस ऑफ़ स्ट्रेटेजिक सर्विसेज के एजेंटों को नियमित रूप से बर्मा में एक छोटे से बांस के पिंजरे में कैद एक कबूतर के साथ छोड़ दिया जाता था. इसके बाद इस पक्षी को तब एक कोड लिखित (कोडेड) संदेश के साथ वापस भेजा जाता था जिसमें निर्देश होते थे और यह संकेत दिया जाता था कि सब कुछ ठीक है.
अब, आधुनिक युद्ध के युग के आगमन के साथ, पक्षियों को अभी और अधिक उपयोग में लाया जा सकता है – और मिनी यूएवी के बढ़ते चलन का मुकाबला करने के लिए यह एक व्यवहार्य विकल्प बन गया है.
जैसा कि एक अमेरिकी मेजर ने साल 1941 में द न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा था,’ पिजंस कैन विन बैटल्स (कबूतर लड़ाई जीत सकते हैं).’
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(संपादन: अलमिना)
(अनुवाद: रामलाल खन्ना)