नई दिल्ली: ताजिकिस्तान के साथ मिलकर संचालित किया जाने वाला भारत का पहला विदेशी एयरबेस गिसार मिलिट्री एयरोड्रम (जीएमए) पिछले रविवार को तालिबान के कब्जे में आ चुकी अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से अपने सैकड़ों नागरिकों और अफगानों को निकालने के भारत के प्रयासों में काफी अहम साबित हुआ है.
अयनी एयरबेस के नाम से जाना जाने वाला जीएमए, जिसका नाम अयनी गांव के नाम पर रखा गया है, ताजिक राजधानी दुशांबे के पश्चिम में स्थित है. रक्षा एवं सुरक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया लगभग दो दशकों से इस एयरबेस का संचालन भारत द्वारा ताजिकिस्तान के साथ मिलकर किया जा रहा है.
सूत्रों ने कहा कि इस एयरबेस की स्थापना में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और पूर्व वायु सेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल बी.एस. धनोआ की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिसके लिए वित्तीय मदद विदेश मंत्रालय की तरफ से उपलब्ध कराई गई थी.
हालांकि, आम तौर पर जनता की नजरों से दूर रहा यह एयरबेस अफगानिस्तान से लोगों को निकालने के लिए जारी प्रक्रिया के कारण सुर्खियों में आ गया है, एएनआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस पूरी कवायद के दौरान एयर इंडिया के एक विमान के अलावा भारतीय वायु सेना के सी-17 और सी-130 जे परिवहन विमानों ने ताजिकिस्तान एयरबेस का इस्तेमाल किया है.
Bringing Indians home from Afghanistan!
AI 1956 carrying 87 Indians departs from Tajikistan for New Delhi. Two Nepalese nationals also evacuated.
Assisted and supported by our Embassy @IndEmbDushanbe.
More evacuation flights to follow. pic.twitter.com/YMCuJQ7595— Arindam Bagchi (@MEAIndia) August 21, 2021
उदाहरण के तौर पर एक सी-130 जे विमान ने काबुल से 87 भारतीयों को एयरलिफ्ट किया और ताजिकिस्तान में उतरा. बचाकर लाए गए इन लोगों को अंततः एयर इंडिया के विमान में बैठाया गया जिसने अयनी एयरबेस से उड़ान भरी और इन्हें लेकर भारत पहुंचा.
इसी तरह, 17 अगस्त को जब भारत ने अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों के साथ काबुल स्थित अपने दूतावास के कर्मचारियों को बाहर निकाला तो एक सी-17 उड़ान भरने और उन लोगों को वहां से लेकर आने के लिए अमेरिका की मंजूरी मिलने तक जीएमए में ही इंतजार कर रहा था. सूत्रों ने कहा कि इसकी वजह यह थी कि विमान काबुल एयरपोर्ट पर ज्यादा देर तक नहीं रुक सकता था जहां पर पहले से ही अफरा-तफरी की स्थिति थी.
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2002 में शुरू हुई थी जीएमए परियोजना
जीएमए को लेकर अक्सर दूसरे फरखोर बेस के साथ भ्रम होता रहा है. दक्षिणी ताजिकिस्तान स्थित फरखोर—उत्तरी अफगानिस्तान के साथ सीमा के पास—एक ऐसा शहर है जहां 1990 के दशक में भारत ने एक अस्पताल बनाया था.
यह वही अस्पताल है जहां नार्दर्न एलायंस—पहले सोवियत और फिर तालिबान से मोर्चा लेने वाला गठबंधन—का हिस्सा रहे और दिवंगत शक्तिशाली अफगान ताजिक गुरिल्ला नेता अहमद शाह मसूद को 2001 में इलाज के लिए लाया गया था जब वह एक आत्मघाती बम धमाके में बुरी तरह घायल हो गए थे. हालांकि, अस्पताल के सैन्य डॉक्टर तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें बचा नहीं पाए थे.
सूत्रों ने बताया कि 9/11 हमले के बाद अस्पताल ने काम करना बंद कर दिया था. भारत ताजिक सैन्य कर्मियों के लिए दक्षिणी ताजिकिस्तान के कुरगन तेप्पा में 50 बेड वाला एक अस्पताल चलाता है।
सूत्रों ने बताया कि 2001-2002 के आसपास विदेश मंत्रालय और सुरक्षा प्रतिष्ठान के ‘कट्टरपंथी विचारकों’ ने अयनी में टूटे-फूटे पड़े जीएमए को विकसित करने पर विचार किया, इस प्रोजेक्ट को पूर्व रक्षा मंत्री स्वर्गीय जॉर्ज फर्नांडीस की तरफ से पूरा समर्थन मिला.
भारतीय वायुसेना ने एयर कमोडोर नसीम अख्तर (सेवानिवृत्त) को एयरबेस पर काम शुरू करने के लिए नियुक्त किया. अख्तर के बाद एक और अधिकारी ने जिम्मेदारी संभाली, जिनके कार्यकाल के दौरान भारत सरकार की तरफ से नियुक्त निजी ठेकेदार अपने करार से मुकर गया, जिसके बाद एक कानूनी कार्यवाही चली.
भारत सरकार ने सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) की टीम को भी शामिल किया, जिसका नेतृत्व एक ब्रिगेडियर कर रहे थे. उस समय इस प्रोजेक्ट पर करीब 200 भारतीय काम कर रहे थे और गिसार में हवाई पट्टी को 3,200 मीटर तक बढ़ा दिया गया था—जो कि फिक्स्ड-विंग वाले अधिकांश विमानों के उतरने और उड़ान भरने के लिए पर्याप्त होती है.
इसके अलावा, भारतीय टीम ने यहां हैंगर बनाने के अलावा, ओवरहालिंग और विमान में ईंधन भरने की क्षमता भी विकसित की. ऐसा अनुमान है कि भारत ने जीएमए को विकसित करने में करीब 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च किए हैं.
एयर चीफ मार्शल धनोआ को 2005 के अंत में ‘ऑपरेशनल’ हुए जीएमए का पहला बेस कमांडर नियुक्त किया गया था, उस समय वे ग्रुप कैप्टन थे.
हालांकि, सूत्रों ने बताया कि नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद ही भारत ने जीएमए में अस्थायी तौर पर लड़ाकू विमानों—सुखोई 30 एमकेआई—की पहली अंतरराष्ट्रीय तैनाती की.
जीएमए का रणनीतिक आधार
सूत्रों ने बताया कि जीएमए भारतीय सेना को रणनीतिक आधार पर मजबूती देता है. ताजिकिस्तान अपनी सीमाएं चीन और पाकिस्तान के साथ सीमा साझा करता है. यह अफगानिस्तान के वाखान कॉरिडोर को जोड़ता है, जो एक ऐसा गलियारा है जो पीओके और चीन के साथ सीमा साझा करता है.
इस गलियारे से लगा ताजिकिस्तान का इलाका पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से महज 20 किलोमीटर की ही दूरी पर है और ताजिकिस्तान से संचालित होने के कारण यह एयरबेस सैन्य रणनीतिकारों को तमाम विकल्प मुहैया कराता है.
सूत्रों ने बताया कि आईएएफ के लड़ाके ताजिकिस्तान से पेशावर को निशाना बना सकते हैं, जो पाकिस्तान पर संसाधनों के लिहाज से अतिरिक्त दबाव डालने वाला है.
इसका मतलब है कि युद्ध की स्थिति आने पर पाकिस्तान को अपने संसाधनों को पूर्वी सीमाओं से पश्चिम की ओर ले जाना होगा जो भारत के साथ सीधे मोर्चे पर उसकी स्थिति को कमजोर करता है.
ताजिकिस्तान में पैर जमाने का एक और बड़ा फायदा यह है कि यह पाकिस्तान को दरकिनार कर अफगानिस्तान में कई अलग रास्ते भी खोलता है.
हालांकि, रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े कुछ लोगों तर्क देते हैं कि भारत कभी जीएमए या इसमें किए निवेश का पूरी तरह इस्तेमाल करने में सक्षम नहीं रहा. उनका कहना है क अन्य देशों के साथ इस तरह के अन्य संयुक्त सहयोगात्मक प्रयास भी पिछले कुछ वर्षों में पूरी तरह से आगे नहीं बढ़ पाए हैं.
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